09 जनवरी, 2010

ख़ुली किताब का पन्ना


चहरे पर भाव सहज आते ,
नहीं किसी को बहकाते ,
न कोई बात छिपी उससे ,
निश्छल मन का दर्पण है वह ,
सूर्य किरण की आभा सा ,
है मुखड़ा उसका ,
ख़ुली किताब के पन्ने सा |
सुरमई आँखों की कोरों में ,
न कोई अवसाद छुपा है ,
न ही विशद आंसुओं की लड़ी है ,
केवल हँसी भरी है ,
उन कजरारी अँखियों में ,
मन चंचल करती अदाओं में ।
है अंकित एक-एक शब्द ,
मन की किताब के पन्नों में ,
उनको समेटा सहेजा है ,
हर साँस से हर शब्द में ,
वही चेहरा दीखता है ,
खुली किताब के पन्ने सा
यदि पढ़ने वाली आँख न हो ,
कोई पन्ना खुला रहा तो क्या ,
मन ने क्या सोचा क्या चाहा ,
इसका हिसाब रखा किसने ,
इस जीवन की आपाधापी में ,
पढ़ने का समय मिला किसको ,
पढ़ लिया होता यदि इस पन्ने को ,
खिल उठता गुलाब सा मन उसका ,
है मन उसका ख़ुली किताब के पन्ने सा |

आशा

3 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन को खुली क़िताब की तरह ही पढ़ने का प्रयत्न किया है मैंने भी । सच क़िताबें पढ़ने की फुर्सत कब मिल पाई है जीवन में । हर पात्र की कहानी उसके चेहरे पर ही पढ़ी है और उसे ही आत्मसात किया है । बहुत सुन्दर रचना है । मेरा अभिनन्दन स्वीकार करें और रचना कर्म को अपना धर्म मान कर करती रहें । औरों को बहुत मार्गदर्शन मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है ।
    The unborn tomorrow and the dead yesterday
    why fret about these if present be sweet .

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  2. asha mummy ji apki har rachna mughe pasand aati hai.
    parantu
    ख़ुली किताब का पन्ना
    ye kuch jyada hi pasand hai..
    ise apne blog par paost karna chata hoon..
    agar aapki izajat ho to......

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