03 फ़रवरी, 2010

तुम मुझे अपनी सी लगती हो






तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो
जब मै मै नहीं होता
तुम में समा जाता हूँ
और न जाने कहाँ गुम हो जाता हूँ |
तुम मुझे अपनी सी लगती हो
जब जाड़े की धूप सी
मुझे छू जाती हो
और शाम को सिमट कर
कहीं छुप जाती हो |
तुम्हारा अस्तित्व मुझे
यह आभास कराता है
कि मैं एक विकसित होता पौधा हूँ
तुम हो एक प्रतान
मुझे बढ़ाती हो
सँवारती हो
पल्लवित होने का
पुष्पित होने का
अवसर खोज लाती हो |
तुम मुझे बहुत प्यारी लगती हो
जब मै तुम में खो जाता हूँ
स्वयं अपने को भूल जाता हूँ
नित नए सोच उभरते हैं
मै उनमें बह जाता हूँ |
तुम में मिलती है मुझे
एक तस्वीर नई
मै उसमें समा जाता हूँ
साथ तुम्हारा पा कर
भावों में बहता जाता हूँ |
मन में उठते भावों को
तुम पर ही लुटाता हूँ
तब मैं मैं नहीं रहता
तुम में ही समा जाता हूँ |
क्या तुम हो अनजान पहेली सी
मै रोज जिसे हल करता हूँ
मै तुम में खुद को पाता हूँ
तुम मुझे सुहानी लगती हो
जब तुम में मैं खो जाता हूँ |

आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! क्या बात है | बहुत ख़ूबसूरत कविता है | पढ़ कर मज़ा आ गया | सुन्दर भाव और सशक्त अभिव्यक्ति | बहुत बहुत बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  2. मै रोज जिसे हल करता हूँ ,
    मै तुम में खुद को पाता हूँ
    तुम मुझे सुहानी लगती हो ,
    जब तुम में मैं खो जाता हूँ |
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है आशा जी हमे भी आप अपनी सी लगती हैं स्नेह स्वीकार कीजिये। शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  3. marmsparsi panktiya,".kaun kiski jd me hai or kaun kiski hd me ,ye faishla ab ho chuka hi" aap ki en pankti se

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: