12 मार्च, 2010

विषमता

हे करुणाकर, हे अभयंकर
क्यूँ सबकी अरज नहीं सुनता
भूखों को अन्न नहीं देता
निर्धन को निर्धन रखता है |
जब कोई समस्या आती है
निर्धन को ही खाती है
महँगाई की मार उसे
भूखे पेट सुलाती है |
कोई नेता नहीं मरता
कहीं धनवान नहीं फँसता
बिना गेट के फाटक पर
केवल निर्धन ही कटता है |
कैसा तेरा न्याय अनोखा
धनिकों का घर भरता है
नेता यदि आड़े आए
उसको भी खुश रखता है |
जब आता भूकंप कभी
दरार न होती महलों में
केवल घर तो निर्धन का ही
ताश के घर सा ढहता है |
जो गरीबी में जन्मा
निर्धनता से मरता है !
घावों में टीस उभरती है
पस तिल-तिल करके रिसता है|
नेता हो यदि बीमार कभी
इलाज विदेश में होता है
आम आदमी तो बस
अंतिम साँसें ही गिनता है |
तेरी लाठी बेआवाज
सब पर वार नहीं करती
निर्धन पिसता जाता है
धनवान अधिक पा जाता है |
दिन दूना रात चौगुना
नेता फलता जाता है
एक नहीं फल पाये तो
अन्यों को उकसाता है |
क्यों बनाया अंतर इतना
क्यों न्याय सही ना कर पाया ?
हे कमलाकर, हे परमेश्वर
यह है तेरी कैसी माया |

आशा

3 टिप्‍पणियां:

  1. निर्मम यथार्थ की कड़वी सच्चाई बयान करती बहुत ही सारगर्भित रचना ! भगवान के दरबार में भी अन्याय होता है यह सिद्ध हो रहा है ! सुन्दर रचना के लिए आभार !

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  2. सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

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  3. ashaji...wah ..bahut khoob likhaaapne sahi likhaaur karari chot ki hai vyastha v vertman sththi per ....bhasha saral v sahaj hai ,,aap kavita mein jaha jaha ant mein" hai" sabd estemaal kiya gaya hai ..usko hata ker padhe to kavita ki lay bahut sunder ho jayegi

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