21 मार्च, 2010

मन कीथाह

मन की थाह नहीं होती
गति अविराम नहीं होती
मन चंचल यदि उड़ना चाहे
कोई रोक नहीं होती
जब चाहे स्वच्छंद रहे
या अम्बर की सैर करे
कोई ना छोर नज़र आता
अम्बर भी छोटा पड़ जाता
चिड़ियों के पंख लगा उड़ता
तारों से अठखेली करता
चंदा से दो बातें करके
प्यारा सा गीत सुना जाता
उमड़ घुमड़ जब बादल आते
झूम-झूम कजरी गाता
मन अनंग की थाह नहीं
उसको कोई न समझ पाता
नदियों की धारा में बहता
झरनों सा वह झर-झर बहता
कण-कण में बसता जाता
जब पुरवाई का झोंका आता
हिरणों के संग दौड़ लगाता
या जंगल में रमता जाता
बाधा यदि बीच में आती
खुद को बाधित कभी न पाता
भूत भविष्य सभी कालों में
या गहन विचारों में
गोते बारम्बार लगाता
मन चंचल है थाह नहीं
कोई लगाम न लगा पाता
वह क्या चाहे क्या है अपेक्षित
या फिर है वह कहीं उपेक्षित
कोई नहीं जान पाता
उस अनजाने की थाह नहीं 
उसकी गति में विराम नहीं|


आशा

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