09 मार्च, 2010

मन की बात

बिना जाने मन की बात कोई,
चाहती नहीं की तुम से कुछ कहूँ ,
कहा यदि मैंने कुछ तुमसे ,
और पूरा न हो सका तुमसे ,
यह सब नहीं होगा पसंद मुझे ,
कि मैं दंश अवमानना का सहूँ |
कहा हुआ पूरा हो तो
कहीं कुछ अर्थ निकलता है ,
यदि पूरा न हो पाया तो ,
मन अशांत विचरता है ,
फिर आता है मेरे मन में ,
कि मैं तुम से कुछ भी न कहूँ |
दुःख होने लगता है ,
अधूरी अपेक्षा रखने से ,
विश्वास टूट जाता है ,
मन चाहा न होने से |
तब कई शब्द घुमड़ने लगते हैं ,
हृदय में घर करने लगते हैं ,
कभी सोचने लगती हूँ ,
मुझमें इतनी लाचारी क्यूँ है ?
फिर मन में विश्वास जगाती हूँ ,
खुद ही सब करना होगा ,
यही मन में भरना होगा ,
तब नहीं चुभेगा दंश कोई ,
मैं नहीं चाहती बैसाखी अभी |

आशा

2 टिप्‍पणियां:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. बहुत ही अच्छी रचना ! आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का सन्देश देती बहुत प्रेरणादायी प्रस्तुति ! बधाई एवं आभार !

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