28 मई, 2010

मुक्तक

ऐ रहगुज़र मुझे माफ कर ,
मैं तेरा साथ न निभा पाया ,
हमसफर बना और साथ चला ,
पर हमराज़ कभी ना बन पाया |


आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. कसक से भरी सुन्दर रचना आशा जी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. वाह ! इस बार कुछ अलग अंदाज़ में ,,,बेहतरीन ,,,

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  3. संवेदना से भरपूर एक बेहतरीन मुक्तक ! बहुत खूब !

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  4. "हमसफर बना और साथ चला ,
    पर हमराज कभी न बना पाया |"
    बहुत खूब.कम शब्दों में ऐसी बानगी देखते ही बनती है.

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