17 जून, 2010

मेरी चाहत

समझदार हूँ
अपना अस्तित्व है मेरा
मेरी सोच सबसे जुदा
यह भी कोई खता नहीं 
बदलाव समाज में चाहूँ
अपने ढंग से रहना चाहूँ
ना मैं  हूँ मोम की गुड़िया 
ना ही भेड़ बकरी
 हूँ देन आज के युग की 
मेरे भी हैं  अपने सपने 
उनको पूरा करना चाहूँ
ऐरे गैरे चाहे जैसे से
विवाह मैं न कर पाऊँगी
दान दहेज के दानव से
खुद को  दूर रखना चाहूँगी 
मन चाहा रिश्ता जब होगा
तभी उसे स्वीकार करूँगी |
बड़ा परिवार ढेर से बंधन
हर समय दबाने की चाहत
बात-बात पर रोका टोकी
यह  मुझे स्वीकार न होगी
मन को सब से दूर करेगी 
सास ननद के ताने सुनना
घुटन भरे माहौल में रहना
हर पल मर-मर कर जीना
है  मेरी फितरत नहीं 
यह सब मैं सह न सकूँगी
सहज भाव से जी न सकूँगी
ठेस यदि मन को पहुँची
सब के साथ रह न सकूँगी
पहले भी अकेले रही 
अब भी मैं स्वतंत्र  रहूँगी |
यदि मेरा पढ़ना लिखना
उनको नहीं सुहाता है
पर मेरा है  जीवन वही 
उससे गहरा नाता है
ऐसे विचार रखने वालों से
ताल मेल न हो पायेगा
उन्नति  मार्ग अवरुद्ध होगा
जीवन नर्क हो जायेगा
हूँ  आज की नारी 
अपनी अस्मिता मिटने न दूँगी
जाग्रत हूँ जाग्रत ही रहूँगी |


आशा

6 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी अस्मिता मिटने न दूंगी ,
    अस्मिता मिटनी भी नहीं चाहिये. यही तो पहचान है
    सुन्दर रचना

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  2. बहुत बढ़िया ! बहुत ही सार्थक सन्देश देती एक प्रेरक रचना ! अपनी अस्मिता को मिटने ना देने का यह संकल्प जिस दिन नारी निभा ले जायेगी वह अबला न होकर सबला बन जायेगी ! सशक्त प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार !

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  3. "मै आज की नारी हूं ,
    अपनी अस्मिता मिटने न दूंगी ,
    जाग्रत हूं जाग्रत ही रहूंगी"

    bahut khoob....

    kunwar ji,

    जवाब देंहटाएं
  4. ये तो बहुत खूबसूरत है :)

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