01 जुलाई, 2010

दर्पण

दर्पण के सामने जो भी आया
उसने उसका रूप दिखाया
वह दांये को बांया,बाएं को दांया
 दिखलाता अवश्य   है
फिर भी सब कुछ
दिख ही जाता है |
चेहरे पर जो भी भाव आए
स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं
सुख हो  या दुःख 
शीशे में दिख ही जाते हैं |
मुखोटा यदि चेहरे पर हो
भाव कहीं छिप जाते हैं
जैसे ही वह हटता है
वे साफ उभर कर आते हैं |
जब रंग मंच का उठता है पर्दा
नाटक का प्रत्येक पात्र
अभिनय कर कुछ दर्शाता है
कलाकार का असली चेहरा
रंग मंच पर खो जाता है
पात्र यदि भाव प्रवण न हो
नाटक नीरस हो जाता है |
फिर से दर्पण में निहार कर
खुद को जब खोजना चाहे
मन में छिपे दर्द को उसके
दर्पण भी न पहचान पाए
 दिखाई देता है चेहरा उसमें
पर मन में छिपे भावों को
वह भी नकार देता है
विष कन्या सुन्दर दिखती थी
पर रोम रोम में भरा विष
दर्पण नहीं देख पाता था
वह तो बाह्य सुंदरता का ही
आकलन कर पाता था
सुंदरता चार चाँद लगाती है
ब्यक्तित्व को निखारती है
कई तरह के प्रसाधनों से
यदि कोई रूप सवारता है
दर्पण में निहारता है
वह सुन्दर भी दिखने लगता है
यदि कोइ कमी रह जाए
दर्पण तुरंत पकड़ लेता है |
सब सुन्दर नहीं होते
यह दर्पण भी समझता है
यदि सारे सुन्दर चहरे
दर्पण के सामने आएंगे
तो बेचारे कुरूप कहाँ जाएंगे |
आशा

3 टिप्‍पणियां:

  1. दर्पण सुन्दर असुंदर का भेद नहीं जानता ! उसका तो धर्म यही होता है कि जो कुछ भी उसके सामने हो उसे प्रतिबिम्बित कर दे ! दर्पण की ही तरह मानव मन भी ऐसे भेद करना छोड़ दे तो दुनिया कितनी सुहानी हो जाए !

    जवाब देंहटाएं
  2. "तो बेचारे कुरूप कहाँ जाएंगे |"
    आप मेरी बात को अन्यथा न लें मगर मुझे यह लाइन पसंद नहीं आयी , मैं कुरूप हो सकता हूँ मगर बेचारा कहने का अधिकार किसी को नहीं ...
    हो सकें तो बदल लें इस लाइन को
    आदर सहित !

    जवाब देंहटाएं
  3. दर्पण के सामने आएंगे ,
    तो बेचारे कुरूप कहाँ जाएंगे |
    सुन्दर रचना!

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: