09 जुलाई, 2010

इन्कलाब

बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी ने ,
जीवन का सूरज अस्त किया ,
पहले ही गरीबी कम न थी ,
कर्ज ने और बेहाल किया ,
मन की बेचैनी बदने लगी ,
कैसे कर्ज चुक पायेगा ,
जब कोइ रास्ता नजर नहीं आया ,
आत्महत्या ही विकल्प पाया ,
धनी उद्धयोगपति और नेता ,
अपने पैर मजबूत कर रहे ,
एक से कई उद्योग किये ,
और अधिक धनवान हुए ,
है भृष्टाचार बढ़ता जाता ,
धन चाहे जहां से आए ,
चाहे किसी की जान जाए ,
पूर्ती भृष्टाचारी की हो जाए ,
सरकार कुछ नहीं कर पाती ,
उसमें बैठे लोग ,
केवल दिखावा करते हैं ,
वे बदलाव नहीं चाहते ,
स्वहित छोड़ नहीं पाते ,
गिर गई सरकार यदि ,
तो वे कहाँ जाएंगे ,
फिर से चुनाव जब होंगे ,
अपनी कुर्सी न बचा पाएंगे ,
मतलब सिद्ध यदि होता हो ,
सारे दल एक हो जाते हैं ,
संविधान में संशोधन कर ,
खुद ही लाभ उठाते हें ,
संविधान में भी केवल ,
सैद्धान्तिक बातें ही हैं ,
इसी का लाभ ,
ले जाते हैं नेता और भृष्टाचारी ,
जब जनता उठ खड़ी होगी ,
इन्कलाब बुलंद होगा ,
खलबली मच जाएगी ,
अराजक तत्व ,
कुछ तो छिप जाएंगे ,
और कुछ विदेश का रुख करेंगे ,
बदलाव जब आएगा ,
जनता को उसका हक मिल पाएगा ,
समानता और भाईचारे का ,
देश में साम्राज्य होगा ,
और एक सम्रद्ध समाज होगा |
आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. बदलाव जब आयेगा तभी आ पायेगा न इन्कलाब ! न नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी ! हाँ सुखद स्वप्नों को देखने का अधिकार सबको है ! आप भी देखिये ! आशावादी लेखन के लिये बधाई !

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  2. हां आशा पर ही दुनिया कायम है मगर अभी दूर दूर तक ये सपना पूरा होता नही दिख् रहा। बहुत अच्छी्रचना है। धन्यवाद

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  3. बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

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