26 जुलाई, 2010

आई ऋतू वर्षा की

जब छाई काली घटा
रिमझिम रिमझिम जल बरसा
प्यासी धरती तृप्त हुई
जन मानस भी सरसा
चारों ओर हरियाली छाई
दुर्वा झूमी और मुस्काई
मुरझाए पौधे लहराने लगे
झूलों पर पैंग बढाने लगे
रंग बिरंगी तितलियाँ
पौधों पर मंडराने लगीं
फूलों से प्रेम जताने लगीं
छोटी छोटी जल की बूंदें
धीरे धीरे बढनें लगीं
धरती की गोदी भरने लगीं
मोर और पपीहे के स्वर
वन उपवन में गूँज रहे
हर्ष से भरे हुए वे
वर्षा का स्वागत कर रहे
 सौंधी खुशबू मिट्टी की
मन प्रफुल्लित हो रहा
बहुत आशा से किसान
यह कंचन वर्षा देख रहा
अच्छी फसल की आशा में
अनेकों सपने सजा रहा
नदी तलाब और झरने
वर्षा का जल सहेज रहे
कल कल करती नदियाँ झरने
और आस पास की हरियाली
है  रंगीन समा ऐसा
जी करता है जल में भीगूँ
प्रकृति की गोद में
हल्के ठंडे मौसम में
आँखें अपनी बंद कर लूं
अनुपम दृश्यों को
अपने मन में भर लूँ|

आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. जी करता है जल में भीगूँ ,
    प्रकृति की गोद में ,
    हल्के ठंडे मौसम में ,,

    वर्षा ऋतु को साक्षात जिया है आपने इस रचना में .... बहुत अनुपम रचना ...

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  2. हल्के ठंडे मौसम में ,,
    आँखें अपनी बंद करलूं ,
    अनुपम दृश्यों को ,
    अपने मन में भर लूँ ,
    मौसम का सुरम्य वर्णन ...
    प्रकृति मानो सजीव हो उठी ..

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  3. वर्षा का मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर दिया ....सुन्दर

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  4. आपकी रचना ने मन को भिगो दिया और मैं भी उन दिनों को जीने लगी जब रिमझिम बारिश की फुहारों को चहरे पर झेलने की जिद हुआ करती थी ! सुन्दर रचना !

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