14 सितंबर, 2010

यह तो नियति है मेरी

जलना और जलाना है प्रकृति मेरी ,
है आधार मेरे जीवन का ,
मैं सब के काम आती हूं ,
घरों में कल कारखानों में ,
जलती हूं सहयोग करती हूं ,
कभी कष्टों का कारण ,
भी हो जाती हूं ,
हवा और गर्मी ,
सदा मुझे उकसाते हैं ,
वे दौनों हैं बैरी मेरे ,
सोते से जगाते हैं ,
जंगल में हो रगड,
यदि सूखी लकडियों की ,
या शुष्क घास में हो घर्षण ,
मैं सोते से जग जाती हूं ,
घघकती हूं ,उग्र हो जाती हूं ,
होता तवाही पर विराम कठिन ,
जब मुझे बुझाया जाता है ,
ह्रदय से गुबार निकलता है ,
गहरे काले भूरे रंग का,
धुँआ निकलने लगता है ,
घुटन जो छिपी थी मन में ,
जैसे ही बाहर आती है ,
करती हूं शान्ति का अनुभव ,
पानी बर्फ और ठंडी बयार
हैं अन्तरंग मित्र मेरे,
पा कर साथ इनका ,
कहीं दुबक कर सो जाती हूं ,
जब तक उकसाया नहीं जाता ,
मैं नहीं धधकती ,
कोई नुकसान नहीं करती ,
यह तो नियति है मेरी ,
सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
कभी संभव होता नहीं ,
विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
वह वैसा ही रहता है |

आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना ! सत्य है ---
    सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
    थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
    पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
    कभी संभव होता नहीं ,
    विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
    वह वैसा ही रहता है |
    बहुत बढ़िया ! बधाई !

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  2. आप तो बहुत ही अच्छा लिखती हैं .........
    यह रचना भी बहुत प्रभावी और प्यारी बन पड़ी है......
    कहीं दुबककर सो जाती हूँ......... के आगे की तीनों पंक्तियाँ ..... बहुत
    अच्छी लगीं

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  3. बहुत सुन्दर कविता ...बधाई.

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    'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी .

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