15 जनवरी, 2011

होता नहीं विश्वास दोहरे मापदंडों पर

होता नहीं विश्वास
दोहरे मापदंडों पर ,
अंदर कुछ और बाहर कुछ
बहुत आश्चर्य होता है
जब दोनों सुने जाते हैं
अनुभवी लोगों से |
हैं ऐसे भी घर इस जहाँ में
जो तरसते हैं कन्या के लिये |
उसे पाने के लिये ,
कई जतन भी करते हैं |
लगता है घर आँगन सूना
बेटी के बिना अधूरा |
पर जैसे ही बड़ी हो जाती है
वही लोग घबराते हैं |
बोझ उसे समझते हैं
छोटी मोटी भूलों को भी ,
बवंडर बना देते हैं ,
वर्जनाएं कम नहीं होतीं
कुछ ना कुछ सुनने को
मिल ही जाता है |
बेटी है कच्ची मिट्टी का घड़ा
आग पर एक ही बार चढ़ता है
उसे पालना सरल नहीं है ,
है आखिर पराया धन
जितनी जल्दी निकालोगे
चिंता मुक्त हो पाओगे |
यदि भूल से ही सही
कहीं देर हो जाये
हंगामा होने लगता है ,
इतनी आज़ादी किस काम की
सुनने को जब तब मिलता है|
लड़के भी घूमते हैं
मौज मस्ती भी करते हैं
उन्हें कोई कुछ नहीं कहता
उनकी बढ़ती उम्र देख
सब का सीना चौड़ा होता |
दोनों के पालन पोषण में
होता कितना अंतर |
लड़कों के गुण गुण हैं
लड़की है खान अवगुणों की |
है यह कैसा भेद भाव
कैसी है विडंबना
घर वालों के सोच की
समाज के ठेकेदारों की |
कथनी और करनी में अंतर
जब स्पष्ट दिखाई देता है
सही बात भी यदि कही जाए
मानने का मन नहीं होता
मन उद्दंड होना चाहता है
विद्रोह करना चाहता है |

आशा

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात बिलकुल सही है.


    सादर

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  2. दोहरे मापदण्ड समाप्त होने चाहिएँ!
    इसी में सबका हित निहित है!

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  3. एक बहुत ही सामयिक और प्रासंगिक रचना ! बेटे और बेटी में यह भेद सदियों से चला आ रहा है और तथाकथित आधुनिक भारतीय समाज आज भी इस संक्रमण से बुरी तरह ग्रस्त है ! इतनी बेहतरीन विषयवस्तु के लिये आपको बधाई एवं शुभकामनायें !

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  4. अशा जी आपने बिलकुल सही कहा। यही दोहरेमापदंड तो स्थिती सुधरने नही देते। सच मे ऐसे मे मन मे क्षोभ होना लाज़िमी है। अच्छी रचना बधाई।

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  5. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    कथनी और करनी में अंतर
    जब स्पष्ट दिखाई देता है
    ......आपने बिलकुल सही कहा।

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