20 जनवरी, 2011

है क्यूँ इतना गुमान

है क्यूँ इतना गुमान
इस क्षण भंगुर काया पर
क्यूँ होता अभिमान
दूसरों का अपमान कर
क्या यह उचित करती हो
ऐसा व्यवहार
नहीं अपेक्षित तुमसे
गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चलता
क्या कभी विचार किया है
अपने गुणों का सदुपयोग
क्यूँ नहीं करतीं
इतनी रूप गर्विता हो
धरती पर पैर नहीं रखतीं
जब जुड़ी नहीं जमीन से
तब कैसे सब से
प्रेम बाँट पाओगी
ईश्वर ने भेजा इस जग में
सद्भाव बढ़ाने के लिये
हो अपने में इतनी व्यस्त
कि बहुत कृपण हो जाती हो
प्रेम सब को बाँटने में |
रूप गर्विता हो
तुम्हारा यही सोच
ठीक नहीं है
तुम यहीं सही नहीं हो |
गुणों का महत्व जानती हो
फिर भी अपनाने की
पहल नहीं करतीं
क्या यहीं तुम गलत नहीं हो ?

आशा

9 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी रूप गर्विता हो
    धरती पर पैर नहीं रखतीं
    जब जुड़ी नहीं जमीन से
    तब कैसे सब से
    प्रेम बाँट पाओगी..

    bahut saarthak abhivyakti. sahee kaha jab tak jameen se naheen judoge to kaise prem baant paaoge..bahut prerak..

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  2. bahut sahi bhavabhivyakti.is abhiman ne hi to is sansar me bade bade yuddhon ko janam diya hai kintu aaj taq iska ant nahi hua hai.
    mere blog kaushal par aayen aur apni ray avashay den ye mere bhram aur blog parivar me tippaniyon ke liye ati mahtvapoorn hai....

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  3. गुणों का महत्व जानती हो
    फिर भी अपनाने की
    पहल नहीं करतीं
    क्या यहीं तुम गलत नहीं हो
    bahut achcha likhi hain.

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  4. बहुत खूबसूरत रचना ! एक सार्थक सन्देश देती बहुत प्रेरक रचना ! जिस दिन मन में छिपा यह गुमान टूट जाएगा उसी दिन इंसान समाजोपयोगी हो जाएगा ! बढ़िया पोस्ट के लिये बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  5. बहुत सुंदर सीख देती हुई रचना -
    शुभकामनायें

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  6. सच कहा है ... काया हमेशा नहीं रहती ... इस पर गुमान अच्छा नहीं ... सुन्दर रचना है ...

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  7. हर बार की तरह शानदार प्रस्तुति

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