10 फ़रवरी, 2011

प्रारब्ध की विडंबना

सारे बच्चे खेल रहे थे
वह देख रहा था टुकुर -टुकुर
कोई नहीं खिलाता उसको
सभी करते ना नुकुर
चाहता था बच्चों में खेलना
जब भी हाथ बढ़ाया उसने
साथ खेलने के लिए
बहुत हंसी उडाई उसकी
और उसको टाल दिया
वह बहुत दुखी हो जाता
जब चल नहीं पाता |
माँ पापा जब बाहर जाते
कमरे में बंद उसे कर जाते
भूले से यदि ले जाते
दया के पात्र बन जाते |
जब भी कोई उनसे बात करता
' बेचारा ' से प्रारम्भ करता
बचपन में पोलियो ने ग्रसा
अब यही अहसास दिला कर
सारा ज़माना मार रहा |
पर वह निष्क्रीय नहीं हुआ
कोई कमी नहीं करता
चलने के प्रयत्न में
अभ्यास निरंतर करने से
वह भी सक्षम हो रहा है
आने वाले कल के लिए
सुनहरे सपने बुन रहा है
प्रारब्ध की विडंबना से
उसे अब दुःख नहीं होता
क्यूँ की वह समझ गया है
नियति से समन्वय करना |

आशा


8 टिप्‍पणियां:

  1. सारे बच्चे खेल रहे थे
    वह देख रहा था टुकुर -टुकुर
    कोई नहीं खिलाता उसको
    सभी करते ना नुकुर
    SUNDER

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  2. अभ्यास निरंतर करने से
    वह भी सक्षम हो रहा है
    आने वाले कल के लिए
    सुनहरे सपने बुन रहा

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें

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  3. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    सुन्दर रचना के लिये बधाई !

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  4. आशा के रंगों से सजी खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  5. नियति से समन्वय करने वाले हर हाल में खुश रहते हैं ...
    शारीरिक अक्षमता के शिकार बाल मन की पीड़ा और उसकी आशा पर अच्छी कविता !

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  6. मन में आशा का संचार करती बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना ! जिसमें साहस और हौसला है उसे कोई भी शारीरिक अक्षमता या बाधा हतोत्साहित नहीं कर सकते ! इतनी सार्थक रचना के लिये बधाई एवं शुभकामनायें !

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  7. charan sparsh naniji...
    its a encouraging n very inspiring poem...

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