27 अगस्त, 2011

सादगी


थी नादान बहुत अनजान
जानती न थी क्या था उसमे
सादगी ऐसी कि नज़र न हटे
लगे श्रृंगार भी फीका उसके सामने |
थी कृत्रिमता से दूर बहुत
कशिश ऐसी कि आइना भी
उसे देख शर्मा जाए
कहीं वह तड़क ना जाए |
दिल के झरोखे से चुपके से निहारा उसे
उसकी हर झलक हर अदा
कुछ ऐसी बसी मन में
बिना देखे चैन ना आए |
एक दिन सामने पड़ गयी
बिना कुछ कहे ओझिल भी हो गयी
पर वे दो बूँद अश्क
जो नयनों से झरे
मुझे बेकल कर गए |
आज भी रिक्त क्षणों में
उसकी सादगी याद आती है
मन उस तक जाना चाहता है
उस सादगी में
श्रृंगार ढूंढना चाहता है |

आशा





11 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी किसी की छवि मन मस्तिष्क पर इस तरह से अधिकार कर लेती है कि हटाये नहीं हटती ! मोहक एवं सुन्दर प्रस्तुति ! शुभकामनायें !

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  2. कविता चित्र का साथ पा कर और भी जीवंत हो उठी है दीदी

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  3. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  4. खूबसूरत कविता... नए भाव को अभिव्यक्ति मिल रही है...

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  5. सच है कभी कभी कोई छवि मन में बसी रहती है .. बहुत लाजवाब ...

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  6. दिल के झरोखे से चुपके से निहारा उसे
    उसकी हर झलक हर अदा
    कुछ ऐसी बसी मन में
    बिना देखे चौन ना आए।

    प्रेम की अनोखी अभिव्यक्ति।

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  7. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।

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