20 अक्तूबर, 2011

दीपावली


टिमटिमाते तारे गगन में
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की |
कहीं जले माटी के दीपक
रौशन कहीं मौम बत्ती
चमकते लट्टू बिजली के
विष्णु प्रिया के इन्तजार में |
बनने लगी मावे की गुजिया
चन्द्रकला और मीठी मठरी
द्वार खुला रखा सबने
स्वागतार्थ लक्ष्मी के |
आतिशबाजी और पटाखे
हर गली मोहल्ले में
नन्ही गुडिया खुश होती
फुलझड़ी की रौशनी में |
समय देख पूजन अर्चन
करते देवी लक्ष्मी का
खील बताशे और मिठाई
होते प्रतीक घुलती मिठास की |
दृश्य होता मनोरम
तम में होते प्रकाश का
होता मिलन दौनों का
रात्री और उजास का |
प्रकाश हर लेता तम
फैलाता सन्देश स्नेह का
चमकता दमकता घर
करता इज़हार खुशियों का |

आशा


18 अक्तूबर, 2011

प्रकृति प्रेमी


ऊंची नीची पहाडियां
पगडंडी सकरी सी
मखमली फैली हरियाली
लगती उसे अपनी सी |
बचपन से ही था अकेला
एकांत प्रिय पर मृदुभाषी
भीड़ में भी था एकाकी
कल्पना उसकी साथी |
था गहरा लगाव उसे
प्रकृति की कृतियों से
मन मयूर नाच उठता था
उनके सामीप्य से |
हरी भरी वादियों में
कलकल करता झरना
ऊंचाई से नीचे गिरता
मन चंचल कर देता
जलचर थलचर भी कम न थे
नभचर का क्या कहना
लगता अद्भुद उन्हें देखना
उनमें ही खोए रहना |
था ऐसा प्रभावित उनसे
क्यूँ की वे थे भिन्न मानव से
घंटों गुजार देता वहाँ
तन्मय प्रकृति में रहता |
हर बार कुछ नया लिखता
देता विस्तार कल्पना को
रचनाएँ ऐसी होतीं
परिलक्षित करतीं प्रकृति को |
भावों की बहती निर्झरणी
यादों में बसती जाती
खाली एकांत क्षणों में
आँखों के समक्ष होती |
वह खुशी होती इतनी अमूल्य
जिसे व्यक्त करता
मन चाहे स्वरुप में
खो जाता फिर से प्रकृति में
आशा