18 जुलाई, 2012

मैं मनमौजी


मैं मनमौजी रहता मगन
अपनी ही दुनिया में 
भावनाओं में बहता 
कल्पना की उड़ान भरता 
उड़ान जितनी ऊंची होती 
कुछ नई  अनुभूति होती 
वन उपवन में जब घूमता 
वृक्षों  का हमजोली होता 
पशु पक्षियों को दुलराता 
कहीं  साम्य उनमें पाता 
जब  बयार पुरवाई बहती 
जीवन में रंग भर देती 
बैठ कर सरोवर के किनारे
जल की ठंडक महसूस कर
किनारे  की गीली रेत पर
कई आकृतियाँ उकेरता 
रेती से घर बनाना 
फूलों से उसे सजाना 
मन  को आल्हादित करता
नौका  में बैठ कर अकेले 
उस पार  आने जाने में 
जल में क्रीड़ा करने में 
मन मगन होता जाता 
जाने कब चुपके से 
बचपन  पास आ खडा होता 
कागज़ की नौका बना 
जल में प्रवाहित करता 
बढती नौका के साथ साथ 
दौड लगाना चाहता 
रूमाल  से मछली  पकडने का 
आनंद भी कुछ कम नहीं 
खुद को रोक नहीं पाता 
बचपन में ही खो जाता |
आशा








9 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन ही तो है मनमौजी.....

    फिर कहाँ ऐसी मौज मस्ती..
    सुन्दर रचना आशा जी.

    अनु

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  2. बचपन की मस्ती होती ही मजेदार है
    बड़े होने पर बहुत याद आता है बचपन..
    बहुत सुन्दर,,प्यारी रचना...
    :-)

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  3. बचपन जीवन का स्वर्णिम काल होता है...बहुत सुन्दर रचना.

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  4. बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति ..
    भुलाए भी नहीं भूलते बचपन के वो दिन ..
    समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष

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  5. बचपन की अनेकों खूबसूरत स्मृतियों को जगाती बहुत प्यारी रचना ! हर पंक्ति अपने साथ हाथ पकड़ कर जैसे साथ लिए जाती है !

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  6. बचपन की सुन्दर यादें..बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति .

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