14 सितंबर, 2012

व्यथित



-धधकती आग ढहते मकान
कम्पित होती पृथ्वी  
कर जाती विचलित
मचता हाहाकार
जल मग्न गाँव डूबते धरबार
हिला जाते सारा मनोबल
सत्य असत्य की खींचातानी
लगने लगती बेमानी
करती भ्रमित झझकोरती
क्षणभंगुर जीवन की व्यथा
छल छिद्र में लिप्त खोजता अस्तित्व
हुतात्मा सा जीता इंसान
कई विचार मन में उठते
आसपास जालक बुनते
मन में होती उथलपुथल
हूँ संवेदनशील  जो देखती
उसी में खोजती रह जाती हल
विचारों की श्रंखला रुकती नहीं
कहीं विराम नहीं लगता
हैं सब नश्वर फिर भी
मन विचलित होता जाता
जाने क्यूं व्यथित होता |
आशा 

11 सितंबर, 2012

हो कौन ?



हो कौन ?कहाँ से आए ?
मकसद क्या यहाँ आने का ?
इधर उधर की ताका झांकी
निरुद्देश्य नहीं लगती
चिलमन की ओट से जो चाँद देखा
क्या उसे खोज रहे हो ?
उससे मिलने की चाह में
 या ऐसे ही धूम रहे हो |
कारण कौशल से छिपाया
मुखौटा चहरे पर लगाया
पर आँखें उसे ही खोजतीं
जिसे रिझाने आए हो |
यदि थोड़ी भी सच्चाई होती
लोगों से आँखें नहीं चुराते
प्रश्नों से बचना न चाहते
झूठ का अभेद्य कवज
अपने साथ नहीं ढोते |
चेहरा तो छिपा लिया तुमने
पर आँखों का क्या करोगे
अक्स सच्चाई का
उनसे स्पष्ट झांकता |
सब से छिपाया नहीं बताया
अपने मन के भावों को
कैसे छिपा पाओगे
प्रेम के  आवेग को
गवाह हैं आँखें तुम्हारी
 उजागर होते भावों की |
आशा