31 मई, 2014

वन संपदा





1--धानी चूनर
 पहनी धरती नें
छटा असीम
योवन छलकता
मन छूना चाहता |

2--है हरीतिमा
मनोरम दृश्य है
महका वन
पक्षी पंख फैलाते
चैन की सांस लेते |

3--कटते वन
विलुप्त हरियाली
गर्म मौसम
तल्खी मिजाज में है
उस ही का कारण |

4--काॅपी कलम
बिखरे से विचार
व्यस्त उनमें
मुझे सुकून देते
यही संपदा मेरी |
आशा





30 मई, 2014

क्षणिकाएं

(१)

सदा खिलता कमल पंक में
रहता दूर उसी पंक से

अपना स्वत्व बनाए रखता 
 शुचिता से भरपूर



निगाहेकरम की जो ख्वाहिश थी उन की
राख के ढेर में दब कर रह गयी
ना ही कोई अहसास ना ही कोई हलचल
पत्थर की मूरत हो कर  रह गयी |


28 मई, 2014

रे मन मेरे (हाईकू )





रे मन मेरे
क्यूं उलझा रहता
चैन गवाता |

तारीफ तेरी
किस बात के लिए
जख्म दे गयी |

बाण नैनों के
नागिन जैसी जुल्फें
दीवाना करें |

दो  पटरियां 
चांदनी रात कहे 
दूर जाना है |

दो पटरियां 
मिल न पातीं कभी 
साथ चलतीं |


जाना चाहती
दूर क्षितिज तक
भावों को लिए |

पक्षी चहका
छु कर क्षितिज को
क्षमता जागी |


हाथ बढ़ाया
मिलन की आस में
क्षितिज तक |
आशा






27 मई, 2014

कमीं कहाँ ?




सोया था सुख निंदिया में
केवल स्वप्नों में जिया
सच्चाई से दूर बहुत
अपनी दुनिया में रहा  |
एक स्वप्न में एक दिन
खुद को किया बंद कमरे में
पुस्तकों से घिरा हुआ
बेमतलब पन्ने पलट रहा |
किताब ने शिकायत की
पूरे  वर्ष अवहेलना झेली
तुमने  कद्र न की 
अब शोर सहन क्यूं न कर पाते|
रात  भर जगने का
सब  को भ्रम में  रखने का  
पढ़ने का  नाटक
भी तो कम न किया |
रात रात में जाग जाग कर
बिजली का खर्च बढ़ाया
सब की आँखों में धुल झोंक
कंप्यूटर भी खूब चलाया |
यदि पढ़ लिया होता
यह हाल न होता
अपना मन टटोलो
किसका नुक्सान हुआ  ?
धबराहट में नींद खुल गई
था तरवतर पसीने में
सोच में पड़ गया
कमी कहाँ थी अध्यन  में ?

25 मई, 2014

व्यथा पिता की


 


हारा तन के संताप से
मन के उत्पात से
जीवन व्यर्थ हुआ
 जग के प्रपंचों  से |
बचपन में अकेला था
कोई मित्र न मेरा था
केवल घर ही मेरा था
पर बीमारी ने घेरा था |
यौवन में पा संगिनी
घर में देखा स्वप्न
प्रजातंत्र लाने का
हर बात के लिए
 सबसे साझा करने का |
सब ने जाना केवल
अधिकार बोलने का
आज है ना कोई वजूद मेरा
ना ही कोई आवाज
उस शोर में दब कर रह गई है
आज मेरी पहिचान |
बेबस मूक दर्शक हूँ
अपनी व्यथा किससे कहूँ
पिस रहा हूँ
 चक्की के दो पाटों में |