18 नवंबर, 2015

कश्ती कागज़ की


 


आधी अधूरी जिन्दगी
कागज़ की कश्ती सी
बहती जाती डगमगाती
वार लहर का सह न पाती
हिचकोले खाती
असंतुलन से नजरें मिलाती
धीरे धीरे गलने लगती
है नश्वर वह जान जाती
पर जल से सम्बन्धबना पाती
समय ने भी सिखाना चाहा
साथ चलो बढ़ते जाओगे
पर बात समझ से थी परे
उस पर अमल न कर पाई
कागज  की कश्ती डूब गई
 वह तो  यह भी न कर पाई  
अपने आपमें उलझी रही
समय से सीख न ले पाई
अब बहुत देर हो चुकी है
किसी के सुझाव मानने को
अपनी त्रुटियाँ जानने को
विचारों को मूर्त रूप देने को
जीवन की शाम  उतर आई है
और इंतज़ार बाक़ी है
मुकाम तक पहुँचने को |
आशा
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Your reply here: