04 सितंबर, 2015

वैभव का साया

 
कान्हां तुमने कहाँ छिपाया
अदभुद वैभव का साया 

मैंने पीछा करना चाहा 

पर साया हाथ न आया 

है यह कैसी माया 

भेद मुझे क्यूं न बताया 

पूजन अर्चन  पूर्ण  श्रद्धा से 

पर तुम तक पहुँच न पाया 

छप्पन भोग का नैवैध्य चढाया 

माखन मिश्री लाया 

मेरी कमियाँ मैं नहीं जानता 

फिर भी दूरी उनसे चाहता 

मुझे थोड़ी सी बुद्धि देते यदि 

उनसे दूरी बना पाता  

तुम्हारे समीप हो पाता  |
आशा

01 सितंबर, 2015

मैं क्या सोचूँ


मैं क्या सोचूँ
देखा सागर का विस्तार
जल है अपार
फिर भी प्यासा रहा
एक घूट कंठ से न उतरी
मैं क्या सोचूँ |
बेचैन मन
सागर उर्मियों सा
प्रहार पर प्रहार
सह न पाता 
बच  नहीं पाता
मैं क्या सोचूँ |
नदी आतुर
सागर मिलन को
स्वअस्तित्व
 बचा न पाई
समाहित हुई
मैं क्या सोचूँ |
मैं अकिंचन
कहाँ जाऊंगा   
 किनारा कभी न पाऊंगा
सोचता रह जाऊंगा
अभी से क्या सोचूँ |
आशा