13 अप्रैल, 2021

पर्यावरण

 


 प्रकृति नटी करती जब  नर्तन  

मन रमता जाता  उसमें

नाज नखरे उसके सह न पाते

है राज  क्या इस नृत्य का | 

कभी नरम और कभी गरम

कैसा  है  मिजाज उसका

कोई मिसाल नहीं 

बेमिसाल है निखरा  रूप उसका  |

जब सागर  का  जल  लेता उफान

लगता भय देख कर रौद्र रूप उसका  

उछाल लहरों का देखा नहीं जाता

बर्बादी का मंजर सहा नहीं जाता| 

जब आपदा आती है अनजाने में  

चुपके से बिना बताए

अस्त व्यस्त होता जन जीवन   

 डगमगाने लगता पर्यावरण संतुलन  |

होता बहुत कठिन उसका संरक्षण

पर मानव ही है कारण  इसका  

यदि ध्यान दिया जाए सतर्क रहा जाए

सीमित संसाधन का सही दोहन हो  |  

प्राकृतिक संतुलन पर प्रहार न हो 

ऐसी आपदा बार बार न आए  

जीवन  सुखद हो जाए 

जन जीवन सरल सहज हो जाए  |

आशा 

8 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |

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  2. जब सागर का जल लेता उफान

    लगता भय देख कर रौद्र रूप उसका

    उछाल लहरों का देखा नहीं जाता

    बर्बादी का मंजर सहा नहीं जाता| ---बहुत अच्छी रचना है। बधाई

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      टिप्पणी बहुत अच्छी लगी |धन्यवाद संदीप जी टिप्पणी के लिए |

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  3. सुप्रभात
    धन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |

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  4. सुप्रभात
    आभार सर मेरी रचना की सूचना के लिए |

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  5. वाह जी वाह ! बहुत ही सुन्दर सृजन !

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