11 फ़रवरी, 2010

हाट बाज़ार


भीड़ भरे बाजार में
एक मूक दर्शक सी खड़ी हूँ
कई लोग लगे  मोल भाव में
कभी  झुके तो कभी अड़े हैं
देख सजी दुकानों को
मन करता सब कुछ ले लूं
इतने में एक क्रेता ने
बार बार कीमत पूँछी
सब्जी वाली तुनक गयी
गुस्से में नाक फुला बोली
यह सब लेने की
है तेरी  औकात नहीं
चल निकल यहाँ से
ना  कर मेरा  समय खोटी
पर वह कैसे टल जाता
अपमान कैसे सह पाता
लगा आवाज बढाने में
तोल मोल बदला  शोर में
हुई बारिश अपशब्दों की
हाल बद से बदतर हुआ
छीनाझपटी  मारामारी
हुई हावी पुरजोर
अवसाद से मन भरा
कई प्रश्नों ने घेरा
ऐसा क्यूं होता है ?
हर  वस्तु का मूल्य
क्यूं  सही नहीं होता ?
यहाँ  सीघा ठगा जाता
चतुर  सयाना सब पाता
पर  मुझ सा रह जाता
डरा हुआ सहमा सा
क्या हर हाट में
 बाजार में यही होता है ?
सोच सोच कर थक जाती हूँ
इस मोल भाव की दुनिया में
जीवन से कटती जाती हूँ
भीड़ भरे बाजार में
जाने कहाँ खो जाती हूँ
खुद को बहुत अकेला पाती हूँ |
आशा


























10 फ़रवरी, 2010

A girl

A girl watching in the sky,
like a fairy trying to fly.
she is so cute with a charming look,
but she is shy and dry,
she gazes with a new look in the sky,
but what is in her heart
forces me to think some thing,
to do some thing for only her.
but she is so difficult to reach,
what she is,and what she thinks,
is too unpredictable,
.as she watches in the sky ,
what is new is unknown to me .

ASHA

09 फ़रवरी, 2010

जन श्रुति

सुमंत पुर में एक राजा राज्य करता था |उसका बेटा बहुत सुस्त ,आलसी और निकम्मा था |उसे अत्यधिक लाड
प्यार ने बहुत बिगाड़ दिया था |राजा बहुत परेशान रहने लगा |उसने अपने मंत्रियों से सलाह ली |वह अपने बेटे
को नसीहत देना चाहता था |अतः उसने अपने बेटे को घर से निकल दिया |
पहले तो राजकुमार बहुत दुखी हुआ फिर वह जंगल की ओर चल दिया |चलते चलते उसके पैर में कांटा चुभ गया |
जैसे ही वह कांटा निकालने के लिए झुका उसने देखा कि चार बूढी औरतें आपस में झगड़ रहीं थीं |उससे रहा नहीं गया, और उसने आपसी विवाद का कारण जानना चाहा |
उन महिलाओं में से एक ने कहा कि हम यह जानना चाहते है कि तुमने किसे सलाम किया था |राजकुमार बहुत चतुर था |उसनेसब से पहले एक महिला से अपना नाम बताने को कहा |वह बोली ,मेरा नामभूख है |राजकुमार ने कहा दूसरी बारी क्या ,जब लगती है तब कुछ भी खाया जा सकता है|द्वितीय महिला ने अपना नाम प्यास बताया |
जबाब में राजकुमार ने कहा ,प्यास का क्या जब प्यास लगती है किसी भी स्त्रोत के पानी से प्यास बुझाई जा सकती
है |अब बारीतीसरी महिला की थी |उसने अपना नाम नींद बताया |पहले राज कुमार ने कुछ सोचा और फिर जबाब
दिया ,नींद जब आती है पत्थर पर भी सोया जा सकता है |अंतिम महिला ने अपना नाम आस बताया |राज कुमार ने उसको झुक कर सलाम किया क्यों की आस पर तो पूरी दुनिया टिकी है |
यह कह कर राज कुमार अपनी राह चल दिया |घूमते हुए वह एक अन्य राज्य में पहुच गया |वहां राजकुमारी
रत्ना का स्वयंवर हो रहा था |राजा ने यह तय किया था कीजो भी ऊपर लटकी घूमती हुई मछली की आँख का
भेदन करेगा ,उसी से राजकुमारी का विवाह होगा |राजकुमार तो कुशल धनुर्धर था|उसने मत्स्य भेदन
सरलता से कर राज कुमारी रत्ना से विवाह कर लिया |
अब वे वहां सुख से रहने लगे |बीचमें एक चतुर्थी पड़ी |जब राजकुमारी रत्ना धोबन को बाना देने लगी तो धोबन ने लेने से इंकार कर दिया |धोबन ने कहा की तुम्हारे तो घर बार है ही नहीं ,न सास न ससुरा न खुद का घर |यह सुन रत्ना को भुत बुरा लगा और वहगुस्सा हो कर कोप भवन में जा बैठी |शाम को जब राजकुमार घर आया तब उसने रूठने का कारण पूंछा | रत्ना ने साडी बात बताईऔर कहा की वह अन्नतभी ग्रहणतभी करेगी जब वह अपनी
ससुराल पहुंच जायेगी |यह बात सुन राजा नेखूब दान दहेज और चतुरंगिणीसेना के साथ अपनी बेटी को विदा किया |
जब राजकुमार अपने राज्य की सीमा के पास पहुचा उसने राजा सेमिलने के लिए अपना दूत भेजा |रजा को लगा की कोई अन्य राजा उसे बूढा और कमजोर जानराज्य पर हमला करना चाहता है |राजाउससे मिलने पहुंचा |
राजकुमार रथ से उतरा और अपने पिता के पैर छूने लगा |राजा ने उसे पहचान कर अपने गले लगा लिया |
राजमहल में धूमधाम से बेटे बहू का स्वागत हुआ और राजारानी अपने राज्य का भार अपने योग्य पुत्र को सॉप
कर तीर्थ करने चले गए | लंबे समय तक योग्यतापूर्वक राज्य कर राजकुमार ने अपनी योग्यता का परिचय दिया|

07 फ़रवरी, 2010

संजा

एक राजा के दो बेटी थीं|एक का नाम चंचल और छोटी का नाम संजा था |रोज उन्हें पढाने एक
शिक्षक आते थे |वे चंचल को नेक वक्त और संजा को कम वक्त कहते थे |जब भी रानी यह सुनती
उसे बहुत बुरा लगता |आखिर उसने गुरूजी से पूँछ ही लिया की वे ऐसा क्यों कहते है | वे बोले संजा बहुत
भाग्य हीन है |यह सुन कर माँ को बहुत बुरा लगा |उसने संजा की बुरी छाया से सब को बचाने के लिए
जंगल में अपनी बेटी के साथ रहने का निश्चय किया |रात के अँधेरे में ,संजा को ले कर वह जंगल की और
चल पड़ी | थोड़ी दूर जाने पर भयंकर काली रात में जंगली जानवरों की आवाज ,उबड खाबड़ रास्ते पर चलना
दूभर हो गया |संजा को जोर से प्यास लगी |माँ बेटी पानी की तलाश में इधर उधर भटकने लगीं |
काफी दूर उन्हें एक बड़ा दरवाजा नजर आया |संजा ने माँ से कहा की वह अभी पानी ले कर आती है |
संजा ने जैसे ही उस घर में प्रवेश किया ,दरवाजा अपनेआप बंद हो गया |
बहुत कोशिश करने पर भी दरवाजा नहीं खुला |हार थक कर माता उसे अपनी किस्मत के भरोसे छोड़ कर
घर लौट गई |
संजा ने देखा की वहां कोई नहीं था |उसने धीरे धीरे एक कक्षा में कदम रखे |वहां एक पलंग पर सुइयों से
भरी हुई एक व्यक्ति की लाश पड़ी थी |वह पलंग के नजदीक बैठ कर धीरे धीरे उन सुइयों को निकलने लगी |
एक दिन राह पर चलते किसी कीआवाज सुन वह ऊपर बरामदे में गई |बेचने वाला एक दासी को बेच रहा था |
अपने अकेले पन से तंग आकर संजा ने उसे खरीद लिया |बांदी का नाम रानी था |वह भी संजा की मदद करने लगी |एक सुबह संजा नहाने जाने के पहिले बोली की अब तुम कोई सी भी सुई न निकलना |बांदी को उत्सुकता हुई और
उसने आँखों पर लगी दोनो सुई भी निकल दीं |वह राजकुमार राम राम कर उठ बैठा |सामने एक लड़की को देख
उसका नाम जानना चाहा | बांदी थी बहुत चालक |वह राजकुमारी बन बैठी और संजा को अपनी नौकरानी बताया |
एक और करिश्मा हुआ |जैसे ही राज कुमार ने ताली बजाई ,सारे महल में चहलपहल हो गई |पर संजा नौकरानी ही बन कर रह गई |एक दिन राज कुमार मेले में जा रहा था |उसने सबसे अपनी अपनी पसंद की चीज मंगाने को कहा |रानी बनी बांदी ने अपने लिए छल्ले व् चुटील लाने को कहा | |पर संजा ने कठपुतली मंगाई |
अब रोज रात को कठपुतली का नाच होता |संजा कभी हंसती कभीं रोती और गाती "रानी थी सो बांदी हुई ,
बांदी थी सो रानी हुई "|संजा की आवाज बहुत मीठी थी |लोगों ने राजकुमार से पूंछा "इतनी रात गए कौन
गाता है |राजकुमार ने नींद से बचे रह कर अपनी ऊँगली काट ली और जाग कर गाने की राह देखने लगा
कुछ समय भी न बीता था कि उसे संजा की मधुर आवाज सुनाई दी| वह नीचे आया और इस गाने का रहस्य
जानना चाहा |संजा ने सारा राज उजागर कर दिया|राजकुमार को बहुत गुस्सा आया |उसने दरवाजे के ठीकसामने एक गड्ढा खुदवाया |नकली बनी राजकुमारी को उसमें जिन्दा गढ़वा दिया |
संजा के साथ शादी कर सुख से रहने लगा |
संजा के पिता को जब पता चला ,वे अपने आप को रोक न सके और बहुतसे उपहार ले कर अपनी बेटी से
मिलने आए | उसकी सम्पन्नता देख कर उनकी आँखे ख़ुशी से भीग गई |बच्चे का कोई भी नाम
लिया जाए ,जरुरी नहीं कि उसका प्रभाव जीवन पर होता है |

आशा

श्रंखला

रेशा-रेशा चुन-चुन कर
जब से उसे बनाया गया ,
कई मुश्किलों में घिरी ,
पर अपनों से न भाग सकी ,
कैसे बीते समय कठिन ,
यह कूट कूट करसिखाया गया ,
जब रेशों का निखारा रूप ,
सुंदरता ने दी दस्तक ,
अनेकानेक रंगों से उसको ,
बहुत प्यार से सजाया गया ,
फिर भी नज़रों से दूर रही ,
न देखा गया न सराहा गया ,
उसमें परिवर्तन होने लगे ,
वह श्रंखला बनी और आगे बढ़ी ,
वह भी कुछ खास न कर पाई,
मेखला बन कर मुसकाई,
मेखला का रूप भी न बाँध सका ,
कोई बंधन भी निभा न सका ,
पर यही मेखला का बंधन ,
जब बना जीवन का दर्शन ,
कोई नहीं जान पाया ,
वह कैसे कहाँ से उठाई गयी ,
अब वही मेखला बन गई श्रंखला ,
कई बार बँधी कई बार खुली ,
फिर भी कोने में पड़ी रही ,
पर एक पारखी पा उसको ,
नए रूप में ले आया ,
अब यही श्रंखला रूप बदल अपना ,
जब कमरे में सज जाती है ,
पड़ती है जब नजर उस पर ,
वह बार-बार खिल उठती है ,
और सदा सराही जाती है |

आशा

04 फ़रवरी, 2010

क्षणिका

आज के इस शुभ अवसर पर ,
है स्वागत आगत आज आपका ,
नित नयी प्रीत प्रगाढ़ बनाये ,
है दिन सब के सौभाग्य का|
आशा

03 फ़रवरी, 2010

तुम मुझे अपनी सी लगती हो






तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो
जब मै मै नहीं होता
तुम में समा जाता हूँ
और न जाने कहाँ गुम हो जाता हूँ |
तुम मुझे अपनी सी लगती हो
जब जाड़े की धूप सी
मुझे छू जाती हो
और शाम को सिमट कर
कहीं छुप जाती हो |
तुम्हारा अस्तित्व मुझे
यह आभास कराता है
कि मैं एक विकसित होता पौधा हूँ
तुम हो एक प्रतान
मुझे बढ़ाती हो
सँवारती हो
पल्लवित होने का
पुष्पित होने का
अवसर खोज लाती हो |
तुम मुझे बहुत प्यारी लगती हो
जब मै तुम में खो जाता हूँ
स्वयं अपने को भूल जाता हूँ
नित नए सोच उभरते हैं
मै उनमें बह जाता हूँ |
तुम में मिलती है मुझे
एक तस्वीर नई
मै उसमें समा जाता हूँ
साथ तुम्हारा पा कर
भावों में बहता जाता हूँ |
मन में उठते भावों को
तुम पर ही लुटाता हूँ
तब मैं मैं नहीं रहता
तुम में ही समा जाता हूँ |
क्या तुम हो अनजान पहेली सी
मै रोज जिसे हल करता हूँ
मै तुम में खुद को पाता हूँ
तुम मुझे सुहानी लगती हो
जब तुम में मैं खो जाता हूँ |

आशा

02 फ़रवरी, 2010

क्षणिका

विदाई के क्षण होते भारी,
कुछ मीठी कुछ यादें खारी ,
सदा यही क्रम रहता जारी ,
प्रीत हमारी पर अनियारी |

01 फ़रवरी, 2010

बात पिछले साल की

पिछले वर्ष ण जाने क्या हुआ इन्द्र देव अचानक रूठ गए |जब गर्मी आई तो बिना पानी के बहुतसी कठिनाइयों का
सामना करना पड़ा |पहले नल रोज आते थे ,फिर ४ दिनमें एक बार और बाद में यह स्थिती हो गई की नल में
टपकती पानी की एक बूंद देखने को भी तरस गए |टेंकरों से दूर दूर से पानी लाया जाता था | अन्य स्त्रोतों को भी सफाई
के बाद उपयोग में लाया गया |पर फिर भी पूर्ति ण हो पाई
शहर से बहुत दूर के जल स्त्रोत से चैनल कटिंग कर बहुतही महंगी योजना अपना कर पानी सोने के भाव उपलब्ध हुआ |पर जैसेही स्थिति सामान्य हुई ,मानसून सक्रीय हुआ हमें अखवार में पढने को मिला की इतनी
मेहनत से बनाई गई चैनल को समाप्त किया जा रहा है | मै कई दिन तक सोचती रही उसको तोड़ने से क्या फायदा
हुआ इतना धन उसे बनाने में लगा और फिर उसे तोड़ने में |क्या यह धन का दुरूपयोग नहीं है ? यदि उस स्त्रोत
के जल का उपयोग नहीं करना था तब भी उसे यथावत रख कर फिर किसी कठिन समय के लिए सहेजा जा सकता था |क्या पता कब इसकी आवश्यकता हो जाती |पर शान को कौन समझाए ,बार बार की तोडा फोड़ी सरकारी
खर्च को बढ़ती है | इससे लाभ की जगह हानी ही होती है जितना सरकार खर्च करती है ,उसका प्रभाव आम नागरिक
पर ही तो पड़ता है |
|

30 जनवरी, 2010

मन चंचल

मन चंचल है ,
नहीं कुछ करने देता ,
तब सफलता हाथों से ,
कोसों दूर छिटक जाती है ,
उस चंचल पर नहीं नियंत्रण ,
इधर उधर भटकता है ,
और अधिक निष्क्रिय बनाता है ,
भटकाव यह मन का ,
नहीं कहीं का छोड़ेगा ,
बेचैनी बढ़ती जायेगी ,
अंतर मन झकझोरेगा ,
क्या पर्वत पर क्या सागर में ,
या फिर देव स्थान में ,
मिले यदि न शांति तो ,
क्या रखा है संसार में ,
साधन बहुत पर
जतन ना किया तब ,
यह जीवन व्यर्थ अभिमान है
मन चंचल यदि बाँध ना पाए ,
सकल कर्म निष्प्राण है |
आशा







27 जनवरी, 2010

रिश्ते

जीवन सरल नहीं होता
हर कोई सफल नहीं होता
यदि किताबों से बाहर झाँका होता
अपने रिश्तों को आँका होता
कठिन घड़ी हो जाती पार
जीवन खुश हाल रहा होता |
पहले भी सब रहते थे
दुःख सुख भी होते रहते थे
इस समाज के नियम कड़े थे
फिर भी जीवन अधिक सफल थे |
सुख दुःख का साँझा होने से
कभी अवसाद नहीं होता था
जीवन जीना अधिक सहज था
पर आज जीना हुआ दूभर |
कभी सोचा है कारण क्या
हम रिश्तों को भी न समझ पाए
केवल अपने में रहे खोये
संवेदनायें मरने लगीं
और अधिक अकेले होने लगे |
रिश्तों की डोर होती नाज़ुक
अधिक खींच न सह पाती
यदि समझ न पाए कोई
रिश्तों को बिखरा जाती |
मन पीड़ा से भर उठता
कोई छोर नजर नहीं आता
ग्रहण यदि लग जाये
घनघोर अँधेरा छा जाता |
जिसने रिश्तों को समझा
गैरों को भी अपनाया
वही रहा सफल जीवन में
मिलनसार वह कहलाया |

आशा


26 जनवरी, 2010

मुमताज़ की तलाश...

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...

कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।

साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"

शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"

राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"

सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"

"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।

"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।

इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?

इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।

पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।

एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।

फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"

और पटाक्षेप हो गया।

24 जनवरी, 2010

मन का सुख

पंख लगा अपनी बाँहों में
मन चाहे उड़ जाऊँ मैं
सहज चुनूँ अपनी मंजिल
झूलों पर पेंग बढ़ाऊँ मैं|
भाँति-भाँति के सपनों में
चुन-चुन कर प्यारे रंग भरूँ
हरा रंग ले सब पर डालूँ
हरियाली सी छा जाऊँ मैं |
प्यारे-प्यारे फूल चुनूँ
गुलदस्ता एक बनाऊँ मैं
अनेकता में एकता का
सच्चा रूप दिखाऊँ मैं |
जब जी चाहे उसको देखें
खुशबू से मन उनका महके
नन्हों की वह ख़ुशी देख कर
ममता से दुलराऊँ मैं|
जात पाँत और रंग भेद
से दूर बहुत वे सरल सहज
और निश्चछल निर्मल
उन पर अपना स्नेह लुटाऊँ
मन का सुख पा जाऊँ मैं |
बच्चों में मैं बच्चा बन कर
सब से नेह बढ़ाऊँ मैं
खुले व्योम के उस कोने में
अपनी मंज़िल पाऊँ मैं |
पंख लगा अपनी बाँहों में
एक परी बन जाऊँ मैं
उनको सदा विहँसता देखूँ
सारे सुख पा जाऊँ मैं |

आशा

23 जनवरी, 2010

कर्त्तव्य बोध

कितने दिन बीत गये अब तो ,
भारत को आज़ाद हुए ,
फिर भी हम न समझ पाये ,
कि क्या कर्तव्य हमारे हैं ,
अधिकार सभी चाहे हमने ,
जिस हद तक जा सके गये ,
रोज-रोज बसों को तोड़ा ,
और चक्का जाम किया,
लाठी खाई, घूँसे खाये ,
पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा ,
नेता हमने ऐसे खोजे ,
जो खुद को भी न समझ पाये ,
लोक सभा में जूते चप्पल ,
उनसे से भी न वे बच पाये ,
माइक अक्सर टूटा करते ,
व्यवधान सदा ही होते हैं ,
जब आता प्रश्न अधिकारों का ,
सभी एक जुट होते हैं ,
जब जब यह सब देखा हमने ,
शर्मसार हम होने लगे ,
कैसे नेता चुने गए हैं ,
यह प्रश्न मन में उठने लगे ,
बच्चे इससे क्या पायेंगे ,
केवल अधिकार ही जतालायेंगे ,
जब कर्तव्य सामने होगा ,
उससे वे बचना चाहेंगे ,
अधिकारों कि सूची लम्बी ,
चाहे जैसे उनको पायें ,
कर्तव्य अगर कोई हो उनका ,
उसे सदा ही दूर भगायें ,
आज तक हम विकासशील हैं ,
विकसित देशों से दूर बहुत ,
नव स्वतंत्र देशों से भी पिछड़े ,
हम जहाँ से चले थे वहीं अटके ,
फिर भी कर्तव्य बोध से बचते रहे ,
अपना सोच न बदल पाये ,
हम में से सबने यदि ,
एक कर्तव्य भी चुना होता
हम भी विकसित हो जाते ,
भारत विकसित देश कहाता |

आशा

20 जनवरी, 2010

आत्म दग्धा


माँ के बिना बीता बचपन
केवल रहा पिता का साया 
बाबा को डर लगता था
कैसे बड़ी सुमन होगी
 चिंता वह करता था
 सोच कर हो व्यथित अक्सर दुखी हो जाता था !
कैसे हुआ अजब संजोग
बड़ी बुआ के कहने से
बूढ़े से मेरा ब्याह रचाया
वृद्ध पति रूखा व्यवहार
न कोई ममता  न कोई माया
जलती रोटी देख तवे पर
उसको बहुत गुस्सा आया
जलती लकड़ी से मुझे जलाया !
तब तन तो मेरा झुलसा ही 
मन ने भी हाहाकार मचाया
मरना भी स्वीकार नहीं था
जीवन भी जीना ना चाहा
मरने जीने की उलझन ने
मुझे अधिक बिंदास बनाया !
जब बड़ी हुई थोड़ी मैं
 तन भी भटका मन भी अटका
चाहा साथ किसी ऐसे का
हाथ पकड़ जो साथ ले चले !
फिर से  मैंने धोखा खाया
बिन ब्याही माँ बनी जब 
इसी समाज ने ठुकराया !
कुछ समय जब बीत गया
फूट गया मन का छाला
जैसे तैसे शुरू किया जीवन
एक और से ब्याह रचाया !
ज़िन्दगी फिर पटरी पर आई
मैंने पत्नी धर्म निभाया
एक दिवस वह गया काम पर
 मेरी सौतन ले आया !
मन विद्रूप से भर-भर आया
नफरत ने मन में पैर जमाया
अब खुद ही खुद से लड़ती हूँ
क्या मै ही गलती करती हूँ !
वह सौतन रास नहीं आई
मुझको फूटी आँख नही भाई
बालबाल फिर कर्ज में डूबी
घर चलाना  कठिन हो गया
वह कायर घर से दूर हो गया !
कैसे पालूँ कैसे पोसूँ
इन छोटे-छोटे बच्चों को
कैसे घर का कर्ज उतारूँ
नहीं राह कोई दीखती
बढ़े कर्ज और भूखे बच्चे
सारे धागे लगने लगे कच्चे !
ऐसे में इक ठोला आया
उसने यह अहसास दिलाया
बहुत सहज है , बहुत सरल है
थोड़ा है जो क़र्ज उतर ही जायेगा
ठोले से मैंने प्यार बढ़ाया
फिर से मैंने धोखा खाया
वह तो बड़ा सयाना निकला
भँवर जाल में मुझे फँसाया
उसने मेरा चेक भुनाया !
अब तिल-तिल कर मैं मरती हूँ
खुद ही से नफरत करती हूँ
पर मन के भीतर छुपी सुमन
अक्सर यह प्रश्न उठाती है
मैंने क्या यह गलत किया
और मेरी क्या गलती है ?
जिसने चाहा मुझको लूटा
मेरा जीवन बर्बाद किया !
वे सब तो दूध के धुले रहे
बस मैं ही हर क्षण पिसती हूँ
जब भी  जिधर से निकलती हूँ
मुझ पर उँगली उठती है
हर पल के ताने अनजाने
मुझ में नफरत भरते हैं !

आशा

18 जनवरी, 2010

एक दुलहन

वह सकुचाती और शरमाती ,
धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ,
पीले हरेगलीचे पर जब ,
पड़ते महावरी कदम उसके,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
वह रूकती कभी ठिठक जाती ,
दूधिया रोशनी जब पड़ती उस पर ,
अपने में ही सिमट जाती ,
तब वह लगती वीर बहूटी सी ,
झुकी-झुकी प्यारी चितवन ,
उसको और विशिष्ट बनाती ,
मुस्कान कभी होंठों पर आती ,
या सकुचा कर वह रह जाती ,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
झीना सा अवगुंठन उसका ,
जिसमें से झाँका उसका रूप ,
लाल रंग की साड़ी उसकी ,
दुगना करती रूप अनूप ,
जैसे ही कुछ हलचल होती ,
वह छुईमुई सी हो जाती ,
तब मुझे अविराम कहीं ,
वीर बहूटी याद आती !

आशा

17 जनवरी, 2010

सपने

मैं जो चाहूँ जैसे चाहूँ
सपने में साकार करूँ
बचपन की याद समेटे
खेलूँ कूदूँ हँसती जाऊँ |
कभी बनूँ नन्हीं गुड़िया
माँ को रो रो याद करूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
मैं कैसे तुमको समझाऊँ |
रोज नए अवतार धरूँ
सपनों की रानी बन कर
तुमसे रूठूँ या मन जाऊँ
या कभी पेड़ पर चढ़ जाऊँ |
दौड़ धूप और कूदाफाँदी
सहज भाव से कर पाऊँ
सपनों में विचरण करूँ
उनमें ही में खोती जाऊँ|
पानी में उतरूँ या तैरूँ
अगले क्षण पार उतर जाऊँ
जो मंदिर दूर दिखा मुझको
उस तक आज पहुँच पाऊँ |
कभी खोज में व्यस्त रहूँ
या कोई पहेली सुलझाऊँ
किसी विशाल मंच पर चढ़ कर
भाषण दूं स्वयं पर इतराऊँ |
जो कुछ नया मिला मुझको
उस तक पहुँच उसे सहेजूँ
सपने भी सच्चे होते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
मन चाहा रूप धर सपने में
स्वप्नों की वादी में विचरूँ
फूलों से सजूँ हवा में बहूँ
सपने भी सच्चे लगते हैं
यह कैसे तुमको समझाऊँ |
ये चाहत पूरी करते हैं
इच्छा को पंख लगाते हैं
अपनों से कभी मिलाते
गैरों को दूर भगाते हैं
बड़ी असंभव बातों का
आसान हल सुझाते हैं |
है मुश्किल याद रखना उन्हें
वे कभी-कभी तो आते हैं
अपने सारे सपने
मुझको बहुत सुहाते हैं |

आशा

15 जनवरी, 2010

पतंग

मै हूँ एक छोटी पतंग
रंग बिरंगी प्यारी न्यारी
बच्चों के दिल की हूँ रानी
एक दिन की हूँ मेहमान |
सारे साल प्रतीक्षा रहती
ख़त्म हो गयी आज
छुटकी देती मुझको छुट्टी
मेरी डोर कहीं ना अटकी |
आसमान की लम्बी सैर
नहीं किसी से कोई बैर
बच्चों की प्यारी किलकारी
मन में भरती उमंग हजारी |
तरह-तरह के कितने रंग
कई सहेली मेरे संग
मुझ में भरती नई उमंग
मै हूँ एक नन्हीं पतंग |
ठुमक-ठुमक के आगे बढ़ती
फिर झटके से आगे जाती
कभी दाएं कभी बायें आती
जब चाहे नीचे आ जाती|
यदि पेच में फँस जाती
लटके झटके सब अपनाती
नहीं किसी से यूँ डर जाती
सारी तरकीबें अपनाती |
जब तक पेंच पड़ा रहता है
साँसत में दिल बड़ा रहता है
फिर डोर खींच अनजान नियंता
मुझको मुक्ति दे देता है |
मुक्त हो हवा के साथ मैं
विचरण करती आकाश में
मेरा मन हो जाता अंनग
मैं हूँ इक नन्हीं पतंग |

आशा

14 जनवरी, 2010

आतंक

जब कोई धमाका होता है ,
घना कोहरा छा जाता है ,
आतंक का घना साया ,
थर्रा देता है धरती को
सहमा देता है जन मानस को |
सन्नाटा अपने पैर जमाता ,
दिल दहल दहल रह जाता है ,
कम्पित होता है सकल जहाँ ,
पर हल कोई नजर नहीं आता !
राजनीति की रोटियाँ सेकी जाती हैं ,
सरहद भी बची नहीं इससे !
बेचा जाता है ईमान यहाँ ,
तब हरी भरी वादी में ,
आतंक अपना पैर जमाता है |
बड़े बड़े झूठे वादे ,
भ्रमित करते हैं जन जीवन को ,
इतनी भी साँस न ले पाते ,
सिसकते हुए अरमान यहाँ |
जब सोती है सारी दुनिया ,
जगती रहती है छोटी मुनिया ,
अंधकार के साये में ,
माँ उसको थपकी देती है ,
अपने बेजान हाथों से ,
उसको गोदी में लेती है |
हर आहट उसे हिलाती है ,
वह चौंक-चौंक रह जाती है ,
शायद कहीं कोई आये,
व्यर्थ हुआ इंतज़ार उसे रुलाता है ,
न ही कोई आता है ,
और न ही कोई आयेगा |
अविरल आँसुओं की झड़ी ,
ना तो रुकी है न रुक पायेगी ,
उसकी आँखें पथरा जायेंगी ,
करते करते इंतजार ,
आतंक बाँह पसारेगा ,
न होंगे सपने साकार,
यह आतंक का साम्राज्य ,
ले गया घरों का सुख छीन कर ,
कितनों के उजड़ गये सुहाग ,
किस माँ की उजड़ी गोद आज ,
बहनों ने भाई खोये हैं ,
उम्मीदों पर लग गये विराम ,
आतंकी दंश लगा सबको ,
जब दहशत गर्दों नें ,
फैलाये अपने पंख विशाल ।

आशा










09 जनवरी, 2010

ख़ुली किताब का पन्ना


चहरे पर भाव सहज आते ,
नहीं किसी को बहकाते ,
न कोई बात छिपी उससे ,
निश्छल मन का दर्पण है वह ,
सूर्य किरण की आभा सा ,
है मुखड़ा उसका ,
ख़ुली किताब के पन्ने सा |
सुरमई आँखों की कोरों में ,
न कोई अवसाद छुपा है ,
न ही विशद आंसुओं की लड़ी है ,
केवल हँसी भरी है ,
उन कजरारी अँखियों में ,
मन चंचल करती अदाओं में ।
है अंकित एक-एक शब्द ,
मन की किताब के पन्नों में ,
उनको समेटा सहेजा है ,
हर साँस से हर शब्द में ,
वही चेहरा दीखता है ,
खुली किताब के पन्ने सा
यदि पढ़ने वाली आँख न हो ,
कोई पन्ना खुला रहा तो क्या ,
मन ने क्या सोचा क्या चाहा ,
इसका हिसाब रखा किसने ,
इस जीवन की आपाधापी में ,
पढ़ने का समय मिला किसको ,
पढ़ लिया होता यदि इस पन्ने को ,
खिल उठता गुलाब सा मन उसका ,
है मन उसका ख़ुली किताब के पन्ने सा |

आशा

07 जनवरी, 2010

बिदाई की बेला में

कुछ मीठी कुछ खट्टी यादें 
 बार बार मन को महका दें 
 उन्हें भूल न जाना बहना 
 आज बिदाई की बेला में 
 मुझे यही है कहना |
 झरने सी तुम कल कल बहना 
 कठिन डगर पर बढ़ती रहना 
 बंध स्नेह का तोड़ न देना 
है  यही तुम्हारा गहना 
 मुझे यही है कहना | 
प्रीत रीत को भूल न जाना 
 घर आँगन को तुम महकाना 
 सदा विहँसती रहना
  हमें भूल न जाना बहना |
 मंगलमय हो पंथ तुम्हारा 
 सदाचार हो गहना 
 सुन्दर तनमन देख तुम्हारा 
कुछ कहा जाए ना बहना 
 मुझे यही है कहना | 
 आशा

06 जनवरी, 2010

अंतिम घड़ी

गीत गाती है
गुनगुनाती है
बातों बातों में झूम जाती है
फिर क्यूँ उन लम्हों को
ज़िंदगी झुठलाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |
बचपन का कलरव
यौवन का मधुरव
बन जाता है रौरव
मन वीणा टूट जाती है
जब अंतिम घड़ी आती है |

आशा

05 जनवरी, 2010

मै क्या लिखूँ

मन चाहता है  कुछ नया लिखूँ
क्या लिखूँ ,कैसे लिखूँ ,किस पर लिखूँ
हैं प्रश्न अनेक पर उत्तर एक
कि प्रयत्न करूँ |
यत्न कुछ ऐसा हो कि 
बन जाए एक कविता
कहानी हो ऐसी कि 
मै बन जाऊँ एक जरिया
सयानी बनूँ
 नया ताना बाना बुनूँ
कुछ पर अपना अधिकार चुनूँ
फिर ढालूँ उसे अपने शब्दों में
कृतियों की झंकार सुनूँ
मन मेरा चाहता है
कुछ नया लिखूँ|
नया नहीं कुछ खोज सकी
जो है उस पर ही अड़ी रही
आसमान के रंगों में ही
मेरी कल्पना सजग रही |
स्याह रंग जब मन पर छाया
बहुत उदास दुखों का साया सा
चेहरा नजर आया
मन मेरा हुआ  उदास
सोचा उस पर ही लिखूँ
जब अंधकार से घिरा वितान
दिखे विनाशक दृश्य अनाम
अनजाने भय का हुआ अवसान
इससे भी पूरा ऩहीं हुआ अरमान
क्या लिखूँ , कैसे लिखूँ
यही सोच रहा अविराम |
सुबह की सुनहरी रूपल झलक
ले चली मुझे कहीं दूर तक
एक प्यारा सा चेहरा पास आया
थामा हाथ बना साया
उसने ही मन को उकसाया
कुछ नया लिखूँ कुछ नया करूँ
दुनिया रंग रंगीली है
इसमें रमना भी ज़रुरी है
क्या इस पर भी कुछ लिखूँ !
मैं सोचती हूँ कुछ नया लिखूँ |

आशा

02 जनवरी, 2010

आस्था का भँवर

आस्था के भँवर में फँस कर
हर इन्सान घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलती है कोई राह
वह बस घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि सत्य में हो
तो कुछ समझ आता है
पर आडम्बर से युक्त
व्यवस्था समाज की
भुला देती है भ्रम सारे |
कोई भी यत्न नहीं तोड़ पाते इसे
सामाजिक आस्था के भँवर में
वह घूमता है
घूमता ही रह जाता है |
आस्था यदि धर्म में हों
तो भी कुछ बात है
पर धार्मिक ढकोसलों में
उलझी आस्था
केवल संताप है ,विश्वास नहीं
इसी लिए घूमते-घूमते ही
इस भँवर से
आस्था भी उठना चाहती है
निकलना चाहती है
इस धार्मिक उन्माद से |
पर मनों बोझ सह कर भी
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भँवर जाल से |
आस्था यदि मनुष्य की मनुष्य में हो
तब भी सोच होता है
पर जब तोड़ देता है मनुष्य
मनुष्य में उत्पन्न आस्था का भ्रम
तब घुटता है दम
आस्था का भँवर
लील जाता है इन्सान को |
बस वह डूबता है उतराता है
उलझ कर रह जाता है
आस्था के भँवर जाल में |

आशा

01 जनवरी, 2010

नूतन अभिनंदन


नूतन हो नव वर्ष
मैं सब का अभिनंदन करने आया हूँ
आज पा सुअवसर
तुम्हारा नेह माँगने आया हूँ |
अधिक समय तक रहा सुप्त
छिपा कर प्यार रहा उन्मुक्त
स्वयं को जान, अपनों को पहचान 
नेह निमंत्रण देने आया हूँ
हे सुभगे मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
मुझसे रूठी सारी खुशियाँ
जबसे  तुमसे रहा दूर
इस अनजानी दूरी को
मैं स्वयं मिटाने आया हूँ
नूतन वर्ष की इस बेला में
मैं प्यार बांटने  आया हूँ |
अपनी कमियों को पहचान
सपनों में भी उनसे रहा दूर
अपनों ने मुझे भुलाया 
 मन में  मेरे शूल चुभाया 
 फासला  और बढ़ाया 
पर  मैं इस अंतर को 
सह नहीं पाया
रह न सका दूर सब से
चाहता दूर मतभेद करना
नूतन अभिनंदन हे सुभगे
मैं तुम्हें मनाने आया हूँ |
आज सुअवसर देख 
तुम्हारा नेह पाने आया हूँ |


आशा