09 मार्च, 2010

मन की बात

बिना जाने मन की बात कोई,
चाहती नहीं की तुम से कुछ कहूँ ,
कहा यदि मैंने कुछ तुमसे ,
और पूरा न हो सका तुमसे ,
यह सब नहीं होगा पसंद मुझे ,
कि मैं दंश अवमानना का सहूँ |
कहा हुआ पूरा हो तो
कहीं कुछ अर्थ निकलता है ,
यदि पूरा न हो पाया तो ,
मन अशांत विचरता है ,
फिर आता है मेरे मन में ,
कि मैं तुम से कुछ भी न कहूँ |
दुःख होने लगता है ,
अधूरी अपेक्षा रखने से ,
विश्वास टूट जाता है ,
मन चाहा न होने से |
तब कई शब्द घुमड़ने लगते हैं ,
हृदय में घर करने लगते हैं ,
कभी सोचने लगती हूँ ,
मुझमें इतनी लाचारी क्यूँ है ?
फिर मन में विश्वास जगाती हूँ ,
खुद ही सब करना होगा ,
यही मन में भरना होगा ,
तब नहीं चुभेगा दंश कोई ,
मैं नहीं चाहती बैसाखी अभी |

आशा

08 मार्च, 2010

रानू बंदरिया

राज कुमार राज बर्मन को जंगल में घूमना बहुत अच्छा लगता था |वह जंगल में घूमता और अपने को प्रकृति
के आँचल में छुपा लेता |हरियाली और पशु पक्षी उसकी कमजोरी थे |वहां जा कर उसे बहुत शांति का अनुभव होता था |
वह स्वभाव से बहुत संवेदनशील और दयालू था |वह किसी का भी दुःख सहन नहीकर पाताथा |
एक दिन जब वह घूम रहा था ,उसने एक बंदरिया को कराहते देखा |शायद किसी शिकारी के बाण से वह घायल होगयी थी |राज ने तुरंत बंदरिया को गोद में उठा कर पैर में से तीर निकाला और उपचार किया |फिर उसे उसके कोटर तक छोड़ आया |
पर रात भर वह सो न सका |बारबार उसे बंदरिया का ही ख्याल सताता रहा |सुबह होते ही वह जंगल की ओर
चल दिया |रानू बंदरिया बाहर बैठी थी |जैसेही उसने अपने बचाने वाले को देखा ,तुरंत उसे बुलाया और अपने कोटर में आने को कहा |
जैसेही राजकुमार अंदर आया ,वहाँ की सुंदरता देख कर हतप्रभ रह गया |उसने देखा की एक बहुत सुंदर लड़की
उसके सामने बैठी थी और उसके हाथ में व् एक पैर में वही पट्टी बंधी थी |बहुत आश्चर्य से राज ने देखा और उसका नाम पूंछा | पहले तो वह शरमाई फिर कल के लिए धन्यवाद दिया और अपना नाम रानू बताया |
राज से रहा नहीं गया और बन्दर का रूप धरने का कारण जानना चाह |रानू ने कहा ,"मैं भी आप के समान ही
एक राजकुमारी हूँ |पहले बहुत सुख से रही |एक दिन जब मैं जंगल में घूम रही थी एक राक्षस ने मुझे पकड़ कर
यहां कैद कर लिया |तभी से मैंयही पर कैद हूं "|
राजकुमार रानू की सुंदरता पर ऐसा मोहित हुआ की शादी की इच्छा उसके मन मैं उठने लगी |वह अक्सर
वहां जाने लगा और एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा | रानू भी मन ही मन उससे प्रेम करने लगी थी |
इस लिए उसने एक शर्त पर शादी के लिए हां की |उसने कहा,"मैं दिन भर बन्दर के ही रूप मैं रहूंगी "|राज को क्या
आपत्ति हो सकती थी |दोनों ने शादी कर ली |
राजकुमार अपनी पत्नी के साथ अपने घर आ गया |सबने बंदरिया को देख बहुत हंसी उड़ाई |दूसरे दिन रानी
ने सब को बुलवाया और एक एक बोरा गेहूं बीनने को दिए |रानू ने अपने हिस्से के गेहूं अपने कमरे में रखवालिए
|रात को वह उठी और अपना चोला उतार कर गेहूं बीन कर फिरसे अपने पलंग पर सो गयी |बिने हुए
गेहूं देख कर सब को बहुत आश्चर्य हुआ | तीसरे दिन चक्की पर आटा पीसना था |रात को उठ कर उसने अपना चोला
उतारा और चक्की पीसने लगी |रानी ने धीरे सेखूटी पर
टंगा चोला उठा कर छुपा दिया |
जैसेही काम समाप्त हुआ रानू ने अपना चोला खोजा |वह नहीं मिला |उसे बहुत गुस्सा आया | वह रोने लगी |
इतने में राजकुमार की नींद खुल गई |राज ने रोने का कारण पूंछा | जब सारा माजरा समझा ,जोर जोर से हँसने लगा
और रानू को समझाया की अब इस रूप मेंरहने की क्या आवश्यकता है ,राक्षसतो कब का मर चूका |रानू को विश्वास
नहीं हुआ |धीरे धीरे जब राज की बात समझ आई तब बड़ी मुश्किल से वह सोई |
सुबह उठ कर उसने सबके पैर छुए |सबने उसे बहुत सारे उपहार दिए और ढेरसा आशीर्वाद| यह सच है की कोई
भी काम सरलता से किया जा सकता है यदि मन में पक्की इच्छा हो |अब वे दोनों जंगल में जाकर प्रकृति का आनंद
लेने लगे और जरूरत मंद की सेवा करने लगे |रानू अब बहादुर होगई थी और किसी से नहीं डरती थी |
आशा

05 मार्च, 2010

सफर जिंदगी का

वह कल बीत गया
जब हुए सपने रंगीन ,
मैंने कोरे कागज पर ,
जब नाम लिखा तेरा ,
कागज पर स्याही मिटी नहीं ,
सूख गई और गहरी हुई ,
लिखी इबारत परवान चढ़ी,
फिर दिल में उतरी और पैठ गई ,
उसे मिटाना सरल नहीं था,
मिट जाये कोई कारण नहीं था ,
जीवन अविराम चलता गया ,
ग्राफ सफलता का बढ़ता गया ,
खुशियों से दामन भरता गया |
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी ,
एक दिन बैठे-बैठे ,
मैं सोच रही थी कैसा था कल ,
मैनें देखा झाँक विगत में ,
बीता कल भोला बचपन ,
गुडिया खेली झूला झूली ,
और सुनी कहानी परियों की ,
मैं सोच-सोच मुस्काने लगी ,
हरियाला सावन जब आया ,
लाल चुनरिया तब ओढ़ी,
मन भीगा तन भीग गया ,
जब सुनी किलकारी नन्हीं की ,
जीवन में खुशियाँ आने लगीं ,
मैं दिल खोल खुशी लुटाने लगी |
सब का प्यार दुलार मिला ,
झिलमिल तारों का हार मिला ,
सुखी संसार साकार मिला ,
मैं झूम-झूम कर गाने लगी ,
कब जीवन की शाम हुई ,
ढलती उमर भी सताने लगी ,
कभी हँसी और कभी खुशी ,
बीच-बीच में जाने लगी |
अब यही अभिलाषा बाकी है ,
हर साँस खुशी से भरी रहे ,
आदत मुस्कराने की ,
जो गई नहीं ,
न अब जाये ,
सदा मेरे संग रहे ,
सदा अंत तक हँसती रहूँ ,
मेरा जीवन रंगीन रहे ,
खुशियों से नाता सदा रहे |

आशा

02 मार्च, 2010

हज्जाम रामनारायण

एक राजा था |उसका नाम आर्यमन था |एक दिन जब वह आईने में अपनी सूरत देख रहा था उसे अपने बालों के बीच दो सींघ दिखाई दिए |वह बहुत परेशान हो गया|उसे तो अभी बाल भी कटवाने थे |अब बिचारा क्या करता |
बहुत सोच विचार कर उसने अपने एक विश्वासपात्र नौकर को बुलबाया |एक ऐसे नाई को खोजने को कहा जो सींगों
के राज को अपने मन रख कर राजा की कटिंग बना सके |
बहुत खोज के बाद एक नाई राम नारायण को लाया गया |नाई बातों का बादशाह था |उसने राजा के बाल काटे
और सींघ की बात किसी से न कहने का वायदा किया |राजा ने बहुत सारा धन दे कर उसे विदा किया |उसकी पत्नी ने उससे सवाल किया की इतनी दौलत उसे कैसे मिली |रामनारायण बात को टाल गया |पर जब वह सोने लगा उसके
पेट में बहुत दर्द हुआ |रात भर वह बहुत परेशान रहा | दूसरेदिन वह पास के जंगल में गया और चौकन्ना हो कर इधर उधर देखने लगा |जब उसे विश्वास हो गया की उसके सिवाय वहां कोई नहीं है ,वह एक सूखे पेड़ के पास गया और अपने पेट की बात "राजाके दो सींग " पेड़ से कह कर अपने घर आ गया |
थोड़े समय बाद एक कारीगर तबला ,हारमोनियम और सारंगी बनाने के लिए उस पेड़ को काट कर ले गया |जब
सारे उपकरण बन गए ,कारीगर ने अधिक धन पाने की लालसा से उनका प्रदर्शन राज दरवार में करने के लिए राजा
आर्यावर्धन से अनुमति ली |राजा गाने आदि सुनने का बहुत शौक़ीन था |राजा ने दूसरे दिन आने को कहा |
दूसरे दिन कारीगर नियत समय पर राजसभा में अपने बनाये हुए बाजों को ले कर उपस्थित हो गया |राजा की
अनुमति मिलते ही कारीगर ने हारमोनियम पर सुर छेड़ा | हारमोनियम में से सुर निकला "राजा के दो सींग "
सारंगी ने कहा "किनने कही ,किनने कही "| तबला बोला "दुमदुम हज्जाम ने,दुमदुम हज्जाम ने "|
ये शब्द सुन कर राजा गुस्से से लाल पीला होने लगा |उसने तुरंत अपने नौकर को बुलाया | नौकर को डाट कर
रामनारायण नाई को को बुलाने को कहा |नौकर तुरंत उसे बुला लाया |राम नारायण थर थर कांपने लगा |उसने
कहा "महाराज मेरा क्या कसूर है |मैने ऐसा क्या किया है जो आपने मुझे बुलबाया"|
" सच बताओ मेरे राज की बात तुमने किसे बताई थी "राजा ने बहुत गुस्से में आकार उससे पूंछा |
रामनारायण ने कहा "महाराज मैंने तो किसी से भी कुछ नहीं कहा "|राजा को उसकी बात पर विश्वास नही हुआ |
बहुत सख्ती करने पर नाई सोच कर बोला"महाराज मेरी नानी कहती थी की जब कोई बात पेट में न पचे और
पेट बहुत दुखे तब उसे किसी बेजान पेड़ से कह देना चाहिए |न तो बात फैलेगी और न ही पेट दुखेगा |मेरे पेट में
बहुत दर्द हो रहा था |इसी कारन मैंने पेड़ से यह राज कहा "|राजा ने पूंछा "यह दुमदुम हज्जाम कौन है "?
रामनारायण ने बताया की जब वह बहुत छोटा था उसकी नानी उसे दुमदुम कहा करती थी |इसीलिए उसे
दुमदुम हज्जाम के नाम से भी जाना जाता है |किसी ने सच ही कहा है."राज को राज ही रहने दो |दीवारों के भी
कान होते हें "|
आशा










वहाँ

26 फ़रवरी, 2010

होली














जब चली फागुनी बयार
मन झूम-झूम कर गाने लगा
सुने ढोलक की थाप पर
जब रसिया और फाग
 बार-बार गुनगुनाने लगा |
सरसों फूली टेसू फूला
वन उपवन महका
मदमाता मौसम छाने लगा
मन झूम-झूम लहराने लगा |
अमराई में छाई बहार
कोयल की मीठी तान सुनी
तरह-तरह के फूल खिले
फूलों पर भौरे गुंजन करते |
लाल, हरे और रंग सुनहरे
गौरी की अलकों से खेले
चूड़ी खनकी पायल बहकी
गौरी का मुखड़ा हुआ लाल
जब अपनों का लगा गुलाल
प्यारा सा पाया उपहार
भरने लगा मन में गुमान
 तन मन  को भिगोने लगीं |
रंगों की दुकानें सजीं
गुजिया पपड़ी भी  बनीं
भंग और ठंडाई छनी
सब की होली खूब मनी |

आशा

24 फ़रवरी, 2010

उपेक्षिता

सजे सजाये कमरे में
मैंने उसे उदास देखा
आग्रह से यह पूछ लिया
उसका ह्रदय टटोल लिया
तुम क्यों सहमी सी रहती हो
आखिर ऐसा हुआ क्या है
जो नित्य प्रतारणा सहती हो |
पहले तो वह टाल गयी
फिर जब अपनापन पाया
हिचकी भर-भर कर रोई
मन जब थोड़ा शांत हुआ
अश्रु धार से मुँह धोया
तब उसने अपना मुँह खोला |
सजी धजी इक गुड़िया सी
मैं सब के हाथों में घूम रही
सब चुपचाप सहा मैने
अपने भाव न जता पाई
पर उपेक्षा सह न सकी
बहुत खीज मन में आई
मेरी अपेक्षा मरने लगी
दुःख के कगार तक ले आई |
व्यथा कथा उसकी सुन कर
मन में टीस उभर आई
मैं उसको कुछ न सुझा पाई
मन ही मन आहत हो कर
थके पाँव घर को आई |
ऐसा क्या था जो भेद गया
दिल दौलत दुनिया से मुझको
बहत दूर खींच लाया मुझको
मन ही मन कुरेद गया |
उसमें मैंने खुद को देखा
जीवन के पन्ने खुलने लगे
बीता कल मुझको चुभने लगा
मकड़ी का जाला बुनने लगा
फँस कर मैं उस मकड़ जाल में
अपने को भी न सम्हाल सकी
जो बात कहीं थी अन्तरमें
होंठों तक आ कर रुकने लगी |
मैं भी तो उसके जैसी ही हूँ
कभी गलत और कभी सही
अनेक वर्जनाएं सहती हूँ
फिर किस हक से मैंने
उसका मन छूना चाहा
मन ही मन दुखी हुई अब मैं
क्यूँ मैने छेड़ दिया उसको
उसकी पीड़ा तो की न कम मैंने
अपनी पीड़ा बढ़ा बैठी |

आशा

23 फ़रवरी, 2010

बच्चा एक मजदूर का

पार्क के उस कोने में
रेत के उस ढेर पर,
खेलता बच्चा बड़ा प्यारा लगता है ,
डर क्या है वह नहीं जानता ,
खतरा कैसा है वह नहीं पहचानता ,
वह तो बस इतना जाने ,
हँसना रोना या भूख प्यास .
माँ और बापू उसके ,
सड़क पर करते हैं काम ,
उनके जीवन में नहीं कोई विश्राम ,
बड़ी बहन उसकी चंचल ,
करती है देख रेख उसकी ,
उसे छोड़ देती है अक्सर ,
उसी रेत की ढेरी पर ,
रेती का ढेर फिसलपट्टी बनता अक्सर ,
इसके साथ रिश्ता उसका
नहीं कुछ अनजाना है ,
कभी ऊपर तो कभी नीचे ,
आगे कभी तो कभी पीछे ,
वह हिलता डुलता और खिसकता है ,
मुठ्ठी भर-भर रेत उठा ,
अपने मुँह पर ही मलता है ,
ठंडी रात के पहलू में ,
भाई बहनों को अलग हटा ,
माँ से लिपट कर सोता है ,
सोते-सोते हँसता है ,
या कभी ज़ोर से रोता है ,
माँ थपकी दे उसे सुलाती है ,
गोदी में उसे झुलाती है ,
रात ठंडी उसकी सहेली है ,
ऐसी कई रातें उसने ,
यहीं रह कर तो झेली हैं |
न ठंडक उसे सताती है ,
नज़ाकत पास नहीं आती है ,
पहने आधे अधूरे कपड़े ,
पर टोपा अवश्य लगाता है ,
जैसे ही होता है प्रभात ,
वही रेत का ढेर उसे ,
अपनी ओर खींच लाता है ,
वह हँसता और लुभाता है |

आशा