14 दिसंबर, 2010

खुलने लगे हैं राज

खुलने लगे हैं राज़ अब ,
अब उस किताब के ,
अनछुए पन्नों के ,
हर पन्ने पर थीं कुछ लाइनें ,
पेन्सिल से चिन्हित ,
वे ही पढ़ ली जाती थीं ,
और रस्म अदाई हो जाती थी ,
उसे पढ़ने की ,
जो पन्ने छुए नहीं गये ,
जानने क़ी इच्छा ज़रूर थी ,
लिखा है क्या उनमें ,
लगने लगा तुझ से मिल कर ,
कहीं भूल हुई है ,
पुस्तक को पढ़ने में ,
उसका तो हर शब्द बोलता है ,
तेरे मन में क्या था ,
कैसी अभिव्यक्ति थी ,
और अनुभवों का ,
रिसाव था कृति में ,
सच कहूँ अब लग रहा है ,
तुझमें और उसमें ,
है कितना अधिक साम्य ,
एक-एक शब्द यदि नहीं पढ़ा ,
उस पर विचार नहीं किया ,
तब समझना बहुत कठिन है ,
तुझे और तेरी किताब को ,
और उसमें छिपे राज़ को |


आशा




,

13 दिसंबर, 2010

एक आम आदमी


दिखाई देता है जैसा
वह उन सब सा नहीं है
बना सँवरा रहता है
पर धनवान नहीं है
दावा करता विद्वत्ता का
चतुर सुजान होने का
कुछ भी तो नहीं है
संतृप्त दिखाई देता 
पर हैं अपूर्ण आशाएं
हैं दबी हुई भावनाएं
वह संतुष्ट नहीं है
दिखावा ईमानदारी का
पर लिप्त भ्रष्टाचार में
दोहरा जीवन जी रहा 
है विरोधाभास व्यक्तित्व में
वह भी जानता है
पर स्वीकारता नहीं
परिवार की गाड़ी खींच रहा 
कितना बोझ उठा रहा है
किस बोझ तले दबा है
कितनों का  है कर्ज़दार 
यह नहीं जानता
या नहीं स्वीकारता
क्यूँकि वह है
एक आम आदमी
और कोशिश कर रहा है
विशिष्ट बनने की |


आशा

11 दिसंबर, 2010

सच क्यूँ नहीं कहते


बातों के लच्छे
गालों के डिम्पल
और शरारत चेहरे पर
किसे खोजती आँखें तेरी
लिए मुस्कान अधरों पर
कहीं दूर बरगद के नीचे
मृगनयनी बैठी आँखें मींचे
करती इंतज़ार हर पल तेरा
चौंक जाती हर आहट पर
आँखें फिर भी नहीं खोलती
यही भरम पाले रहती
नयनों में कैद किया तुझको
दिल में बंद किया तुझको
खुलते ही पट नयनों के
तू कहीं न खो जाये
स्वप्न स्वप्न ही न रह जाए
है अपेक्षा क्या उससे
स्पष्ट क्यूँ नहीं करते
 क्या चाहते हो
सच क्यूँ नहीं कहते 
 भ्रम जब टूट जायेगा
सत्यता जान पाएगी |
आशा


,

10 दिसंबर, 2010

सब तुम्हें याद करते हैं


तुम्हारी सादगी ने
सदाचरण ने
मुझे जीना सिखाया
मधुर स्वरों ने
गाना गुनगुनाना सिखाया 
पहले कभी गीतों की
नई धुन न बन पाती थी
वही स्वर वही राग
आरोह अवरोह स्वरों का
और भेद स्थाई अंतरे का
सभी तुम से सीख पाया
साज़ जब भी बेसुरा हुआ
स्वर में ला बजाया तुमने
 स्वर में लाना सिखाया तुमने ,
सोचा न था कभी
मंच पर भी जाऊँगा
तुमसे सीखी धुनों को
अपने गीतों में सजाऊँगा
अब जब भी
तालियाँ बजती हैं
प्रोत्साहन मुझे मिलता है
पर मुझसे पहले
तुम्हें याद किया जाता है
क्योंकि मैंने तुमसे
शिक्षा ली है
गुरू शिष्य परम्परा
भी निभाई है
तुमसे ही प्रेरणा ली है
गीतों को नया रंग दे कर
जब भी प्रस्तुत करता हूँ
तुम्हारी सादगी, सदाचार
 मधुर, मन छूती आवाज़
का ही बल मिलता है
सच्ची साधना
संगीत की आराधना
ओर बिंदास प्रस्तुति
सभी सराहे  जाते  हैं
मुझे मंच पर देख
सब तुम्हें याद करते हैं
तुम जैसे लोगों को
सादर प्रणाम करते हैं |


आशा

08 दिसंबर, 2010

संवेदना का ह्रास


मचा हुआ हाहाकार
सुलगती आग
धुँए का गुबार
और बारूद की गंध
आपस में  उलझते लोग
कितना शोर कर रहे हैं
पर हैआर्तनाद कैसा
सोचो ज़रा देखो है कहाँ
शायद कोई पल ठहर गया 
देख कर नृशंसता
हृदय हीन लोगों का कृत्य
कुत्सित इरादों का नृत्य
चारों ओर पसर गया है
बाहर झाँको देखो ज़रा
जाने कौन घिसट रहा है
दिखता रक्तरंजित
खूनी होली खेल चुका है
ज़िंदगी से जूझ रहा है
है सहायता अपेक्षित
जाओ वहाँ कुछ मदद करो
शायद वह कुछ बोल रहा है
उसे समझो सहारा दो
है यदि दया भाव शेष
आर्तनाद को   समझो
उपचार और दयाभाव
उसे संबल दे पायेंगे
जीवन उसे दे पायेंगे
आखिर क्यूँ रुक गये हो
क्या संवेदना विहीन हो 
जो कुछ जग में हो रहा 
उससे निस्पृह हो गये हो
यह आर्तनाद
हृदय को छलनी कर देगा
जब भी कभी ख्याल आयेगा
नींद हराम कर देगा
फिर कभी कोई
मदद नहीं माँगेगा
सब जान जायेंगे
 हृदयहीनता को
दम तोड़ती संवेदना को
कभी न उबर पाओगे
मन में उठती वेदना से
सोचते ही रह जाओगे
यदि सहायता की होती
संवेदना जीवित होती
उसे जीवन दान मिलाती
पत्नी को पति और
बच्चों को पिता का
स्नेह मिल सकता था|


आशा



,

07 दिसंबर, 2010

जो भूल न पाया


छूट गये सब संगी साथी
सभी से दूर हो गया 
साथ हैं केवल यादें
जो बार-बार साकार हो
स्मृति पटल पर
रखी किताब के
पिछले पन्ने खोल देती 
ना ही भुलाना चाहता
 ना ही भूल पाता है !
और लौट जाता है
बचपन क़ी मीठी यादों में
रंग बिरंगी अंटियाँ ले
करता इंतज़ार मित्रों का
जैसे ही कोई आता
खेल शुरू हो जाता था
कभी सड़क पर दौड़ लगाता
हल्ला गुल्ला और शरारत
छेड़ छाड़ और बतियाना
आते जाते लोगों से
क्या यह वही नटखट है
कुछ समानता तो दिखती है
पर पहचान नहीं पाता
धुँधली होती स्मृति को
विश्वास नहीं होता !
कुछ रुक कर आगे बढ़ता है
अगला पन्ना खोलता है
कुछ उम्र बढ़ी कुछ लम्बाई
आसमान छूना चाहा
प्रोत्साहन और कठिन परिश्रम
दोनों ने अपना रंग दिखाया
और बना वह बड़ा ऑफीसर !
पर बहुत कुछ पीछे छूट गया
ना सड़क पर होता खेल
और न होती कुट्टी मिठ्ठी
ना ही कोई लड़ाई झगड़े
बस सिलसिला शुरू हुआ
'जी सर का 'और
कुर्सी को सलाम का !
जब से सेवा मुक्त हुआ है
आस पास का जमघट
जाने कहाँ तिरोहित हो गया
रह गया वह नितांत अकेला
खोजता है कोई मिले
जिससे कुछ कह सुन पाये
बीता कल बाँट पाये
मन में उठी भावनाओं को
साकार शब्दों में कर पाये |


आशा

05 दिसंबर, 2010

नहीं होता जीवन एक रस


नहीं होता जीवन एक रस
कभी सरस तो कभी नीरस
जब होता जीवन संगीत मय
 हँसी खुशी रहती है
तभी जन्म ले पाती हैं
राग रागिनी और मधुर धुनें
जब हो जाता जीवन अशांत
थम जाता मधुर संगीत
धुनें या तो बनती ही नहीं
बन भी जायें यदि
मधुरता हो जाती गुम
समय के साथ-साथ
होते परिवर्तन दोनों में
समय निर्धारित है
हर राग गाने का
सही समय पर गाया जाये
तभी मधुर लगता है
बेसमय गाया राग
कर्ण कटु लगता है
समानता दोनों में है
पर है एक अन्तर भी
जीवन तो क्षणभंगुर है
संगीत स्थाईत्व लिये है
प्रकृति के हर कोने में
बिखरा पड़ा है संगीत
है यह मानव प्रकृति
उसे किस रूप में अपनाए
अपने कितने निकट पाए 
सृजन संगीत का
समय के साथ होता जाता है |


आशा