14 मार्च, 2011

यथार्थ





काल चक्र अनवरत घूमता
रुकने का नाम नहीं लेता
है सब निर्धारित कब क्या होगा
पर मन विश्रान्ति नहीं लेता |
एकाएक जब विपदा आए
मन अस्थर होता जाए
तब लगता जीवन अकारथ
फिर भी मोह उससे कम नहीं होता |
प्राकृतिक आपदाएं भी
कहर ढाती आए दिन
बहुत कठिन होता
सामना उनका करना |
कोई भी दुर्घटना हो
या प्राकृतिक आपदा हो
कई काल कलवित हो जाते हैं
अनेकों घर उजाड जाते हैं |
जन धन हानि के दृश्य
मन में भय भर देते हैं
तब जीवन से मोह
व्यर्थ लगता है |
धन संचय या प्रशस्ति
लोभ माया का
या हो मोह खुद से
सभी व्यर्थ लगने लगते हैं |
भविष्य के लिए सजोए स्वप्न
छिन्न भिन्न हो जाते हैं
होता है क्षण भंगुर जीवन
यही यथार्थ समक्ष होता है |

आशा



12 मार्च, 2011

मेरी आँखों में बस गया है



मेरी आँखों में बस गया है
वह प्यारा सा भोला चेहरा
जो चाहता था ऊपर आना
पर चढ़ नहीं पाता था |
अपनीं दौनों बाहें पसार
लगा रहा था गुहार
जल्दी से नीचे आओ
मुझे भी ऊपर आना है
अपने साथ ले कर जाओ |
सूरज के संग खेलूंगा
चिड़ियों से दोस्ती करूँगा
दाना उन्हें खिलाऊंगा
फिर अपने घर ले जाऊंगा |
जब में बक्सा खोलूँगा
खिलौनों की दूकान लगा दूंगा
जो भी उन्हें पसंद होगा
वे सब उन्हें दे दूंगा |
उसकी भोली भाली बातें
दया भाव और दान प्रवृत्ति
देख लगा बहुत अपना सा
एक भूले बिसरे सपने सा |
वह समूह में रहना जानता है
पर उसकी है एक समस्या
अकेलापन उसे खलता है
घर में नितांत अकेला है |
माँ बापू की है मजबूरी
उस पर ध्यान न दे पाते
उसे पडोस में छोड़ जाते
जब भी वह देखता है
अपने पास बुलाता है |
अब तो खेल सा हो गया है
टकटकी लगा मैं
उसका इन्तजार करती हूँ
जैसे ही दीखता है
गोद में उठा लेती हूँ |
उसके चेहरे पर
भाव संतुष्टि का होता है
उस पर अधिक ही
प्यार आता है |
आशा





11 मार्च, 2011

वह खेलती होली


खेतों में झूमती बालियाँ गेहूं की
फूलों से लदी डालियाँ पलाश की
मद मस्त बयार संग चुहल उनकी
लो आ गया मौसम फागुन का |
महुए के गदराय फल
और मादक महक उनकी
भालू तक उन्हें खा कर
झूमते झामते चलते |

किंशुक अधरों का रंग लाल
गालों पर उड़ता गुलाल
हो जाते जब सुर्ख लाल
लगती है वह बेमिसाल |
चौबारे में उडती सुगंध
मधु मय ऋतु की उठी तरंग
मनचाहा पा हो गयी अनंग
गुनगुनाने लगी फाग आज |
भाषा मधुर मीठे बोल
चंचल चितवन दिल रख दे खोल
अपने रसिया संग
आज क्यूँ ना खेले फाग |
मन को छूती स्वर लहरी
और फाग का अपना अंदाज
नाचते समूह चंग के संग
रंग से हो सराबोर |
वह भीग जाती प्रेम रंग में
रंग भी ऐसा जो कभी न उतारे
तन मन की सुध भी बिसरा दे
वह खेलती होली
रसिया मन बसिया के संग |

आशा





10 मार्च, 2011

दंश का दर्द

कच्ची सड़क पर लगे पैर में कंटक
निकाल भी लिए
जो दर्द हुआ सह भी लिया |
पर हृदय में चुभे
शूल को निकालूँ कैसे
उसके दंश से बचूं कैसे |
जब हो असह्य वेदना
बहते आंसुओं के सैलाव को
रोकूं कैसे |
इस दंश का दर्द
जीवन पर्यन्त होना है
कैसे मुक्ति पाऊं उससे |
बिना हुए चोटिल
दोधारी तलवार पर चलना
और बच पाना उससे
होता है बहुत कठिन
पर असम्भव भी नहीं |
शायद वह भी सहन कर पाऊं
धरा सा धीरज रख पाऊं
और मुक्ति मार्ग पर चल पाऊं
बिना कोई तनाव लिए |

आशा

09 मार्च, 2011

तलाश


खोने लगी हूँ सपनों की दुनिया में
अपने आप में अदृश्य की तलाश में
कल्पना सजग हुई है
मन का कौना तलाशती है |
हो एक अज्ञात कल्पना
स्वप्न लोक का हो विस्तार
आस पास बुने जाल में
हो छिपी भावनाओं का स्पन्दन |
अदृश्य अहसास की छुअन
सानिध्य की लगन
लगता है स्त्रोत कल्पना का
जो हैअसीम है अक्षय
अनंत है विस्तार जिसका |
खोज रही हूँ पहुँच मार्ग
स्त्रोत तक जाने के लिए
जैसे ही पहचान लूंगी
निर्वाध गति से आगे बढूगी
अदृश्य सत्य को साकार पा
आकांक्षा पूरी करूंगी |

आशा





05 मार्च, 2011

नारी


माँ के आँचल में पली बढी
आँगन में पनपी तुलसी सी
नन्हीं बाहें फैला कर
अस्तित्व बनाया अपना भी|
मधुरस से मीठे बोलों से
चहकी मधु बयनी मैना सी
हो गयी घर में रौनक
वह बढ़ने लगी वल्लरी सी |
छिपे गुण प्रस्फुटित हुए
वय बढ़ने के साथ
उत्साह भी कम नहीं
है ललक बहुत कुछ करने की |
सहनशील है, अनुशासित है
कर्तव्य बोध गहरा उसमें
कर्मठ है, जुझारू है
रहती व्यस्त कई कार्यों में |
इतने से जीवन काल में
कई भूमिका निभाती है
बेटी बहिन माँ बन कर
सब का मन हर लेती है |
प्रेयसी या अभिसारिका होती
बन जीवन संगिनी मन में बसती
कार्य कुशलता की धनी है
बाहर भी जंग जीत लेती |
वह अबला ऩही है
कर्त्तव्य अपने जानती है
विमुख नहीं अधिकारों से भी
उन्हें खोना नहीं चाहती |
इसी लिए दौड़ रही है
आज के व्यस्त जीवन में
बराबरी से चल रही है
स्पर्धा की दुनिया में |

आशा


04 मार्च, 2011

कच्ची उम्र सुनहरे सपने

सुन्दर गुमसुम गुड़िया सी
छवि उसकी आकर्षित करती
कोई कमी उसमें ना देखी
आत्म विश्वास से भरी रहती |
सोचती है समझती है
पर सच सुनना नहीं चाहती
मन में छुपे कई राजों को
किसी से बाँटना नहीं चाहती |
कच्ची उम्र सुनहरे सपने
हर पल सपनों में ही जीती
रहती ककून में बंद
रेशम के कीड़े सी |
अपने को किया
सीमित जालक में
अंतर्द्वंद में घिरी हुई वह
आत्मकेंद्रित हो गयी है |
है उम्र ही कुछ ऐसी
खोई रह्ती कल्पनाओं में
सत्य नहीं जान पाती
है कौन अपना पहचान नहीं पाती |
मुखौटे के है पीछे क्या
यही अगर पहचान पाती
भेद पराये अपने का
स्पष्ट उसे नजर आता |
जो निखार व्यक्तित्व का
था अपेक्षित उससे
होने लगा है अवरुद्ध सा
यह भी वह समझ पाती |
सब बोझ समझ बैठे उसको
यह भूल गये
वे भी कभी गुजरे होंगे
कच्ची उम्र के इस दौर से |
पैर यदि बहकने भी लगे
दिवा स्वप्नों से
अपने आप सम्हल जायेंगे
यह दौर भी गुजर जायेगा |
ठहराव व्यक्तित्व में होगा
और सफलता कदमों में
योग्यता उसकी रंग लायेगी
वह पिछड़ नहीं पायेगी |

आशा










01 मार्च, 2011

बादल


पक्षियों से पंख फैला
आपस में मिलने की आस ले
नीलाम्बर में आते बादल
इधर उधर जाते बादल|
काले भूरे और श्वेत
तरह तरह के होते बादल

जब भी दृष्टि पड़ती उन पर
बहुत सुखद लगते बादल
मन भीग भीग जाता
देख कर सुनहरे बादल |
बादल होते रमता जोगी
स्थिर नहीं रह पाते
इधर उधर भटकते रहते
एक जगह ना रुक पाते |
लगते हेँ सन्देश वाहक से
जो दे सन्देश आगे बढते
जहां से भी चल देते
बापिस नहीं लौट पाते|
है एक बात और उनमें
कभी प्यासी धरती की
तो कभी प्यासे चातक की
प्यास बुझाना नहीं भूलते
प्यासे को पानी देते
हरी भरी
धरती करते |
होते हैं जब भी क्रोधित
करते घोर गर्जन तर्जन
अंदर की आग दर्शाने को
लेते सहारा दामिनी का
विचारक दौनों रूपों को
देखता है सम दृष्टि से
सोचता है मनन करता है
उसे लगता मनुष्य जीवन भी
आते जाते बादल सा |
जीवन भी आगे बढ़ता है
पीछे लौट नहीं पाता
केवल यादे रह जाती हैं
वह दुनिया छोड़ चला जाता |

आशा










28 फ़रवरी, 2011

मन

ना कोई सीमा ना कोई बंधन
उड़ता फिरता मन हो अनंग ,
होता उसका विस्तार
गहन गंभीर जल निधि सा |
है बहुत सूक्ष्म पर बहु आयामी
सिलसिला विचारों का
रुकने का नाम नहीं लेता
अंत उनका नहीं होता |
मन है अंत हीन आकाश सा
गहन गंभीर धरती सा
कभी उड़ते पक्षी सा
तो कभी मोम सा |
विचरण करता केशर क्यारी में
वन उपवन की हरियाली में
कभी उदासी घर कर जाती
भटकता फिरता निर्जन वन में |
चंचल चपल संगिनी तक
प्रेम की पराकाष्ठा तक जा
विचार ठहर नहीं पाता
चंचल मन को कोई भूल नहीं पाता |
ठहराव यदि आया विचार नहीं रहता
तिरोहित हो जाता है
छिप जाता है
सृष्टि के किसी अनछुए पहलू में |

आशा





26 फ़रवरी, 2011

झूठी आशा


चुभन नागफणी की
दरकते रिश्ते
मन में नफरत ने घर किया
व्यंग बाणों ने मन को
छलनी कर दिया |
कटुता ने पैर पसारे
विचार शून्य मन हुआ
रूखे रिश्ते सतही व्यवहार
पीठ मुड़ते ही
कटु शब्दों के बाण
कर देते जीना हराम|
क्या सभी होते सराबोर बुराई में
उनमें कुछ भी अच्छा नहीं होता
कभी उन पर भी ध्यान दिया जाता |
मखमल में लपेट किये गये वार
कितनी गहराई तक चुभते हैं
इसका भी भान नहीं रहता
बेबात छिड़ जाती बहस
इस हद तक पहुँच जाती
क्या सही क्या होता गलत
सुध इसकी भी नहीं रहती |
लगती है परम्परा बुराई खोजने की|
निंदा रस का आनन्द पा
ख़ुद ही प्रसन्न हो कर
संतुष्ट हुआ जा सकता है
पर केवल अहम की तुष्टि के लिये
किया गया अपमान सहना
सबकी मानसिकता नहीं होती
चुभन काँटों की सहन नहीं होती |
अब तो लगने लगा है
जो जैसा है वैसा ही रहेगा
उसमें परिवर्तन की आशा
है छलावा मृगतृष्णा सा
जिसके पीछे भागना
है केवल समय की बर्बादी |

आशा

यह भी देखें |आशा करती हूँ यह लाइनें दोहे की श्रेणी में आती हैं :-

वार तर्क कुतर्क का, होता है आसान |
शायद आज के सोच का, यही है विधान ||


आशा





25 फ़रवरी, 2011

कलाकार

घुंघराले केश ,कशिश आँखों में
है वह कौन
जो अक्सर दिखाई देता है
किसी ना किसी आयोजन में
अनजाना लगता है
पर रहता विशिष्ट हर महफिल में |
उसकी सूरत ,मधुर आवाज और सीरत
करते आकर्षित उस ओर
उसे महत्त्व मिलता है हर सम्मलेन में |
वह गायन से या वायलिन वादन से
जलवे बिखेरता हर महफिल में
कुछ ऐसी छाप छोडता है
कमीं न होती प्रशंसकों की |
तालियों का सिलसिला जब भी चलता
दुगुना उत्साह उसमें भरता
है वह एक कलाकार उस बैंड का
जो आये दिन बुलाया जाता है
किसी न किसी आयोजन में
है वह जन्म जात कलाकार
पा कर आया है आशीष
माँ शारदे के कर कमलों का |

आशा


कसक

होती है कितनी कसक
जब कोई साथ नहीं देता
बेगानों सा व्यहार उसका
मन उद्विग्न कर जाता |
कई समस्याएँ हैं जीवन में
उन से जूझ नहीं पाता
जब तन मन साथ नहीं देता
निराशा से घिरता जाता |
उम्र के इस मोड़ पर
नहीं होता चलना सरल
लम्बी कतार उलझनों की
पार पाना नहीं सहज |
हमराही का साथ पा
मानसिक बल मिलता है
ह्रदय मैं उठी वेदना
कुछ तो कम हों सकती है |
पीछे मुड कर देखना
उसे ओर बढ़ावा देता है
पर अक्षमता का अहसास
मन विचलित कर देता है |
जीवन अकारथ लगता है
बढ़ता जाता बोझ पृथ्वी पर
मन बोझ तले दब जाता है
असंतोष घर कर जाता है |
आँसुओं का उमढ़ता सैलाब
थमने का नाम नहीं लेता
वेदना ओर बढ़ जाती है
वह चिर विश्रांति चाहता है |

आशा



22 फ़रवरी, 2011

एक भूल हुई

ना जाने कब उसे
अपनी चाहत समझ बैठा ,
है वह कौन
जान नहीं पाया |
खिलते फूल सी मुस्कान
भीड़ के बीच खोजना चाही
खोजता ही रह गया
नहीं जान पाया है वह कौन |
कई पत्र लिखे
लिख कर फाड़े
कुछ भेजे, कुछ पड़े रहे
उत्तर एक का भी
आज तक नहीं आया |
अब तो अकेलापन
जहरीले कंटक सा चुभता है
वह जाने कहाँ खो गयी
मुझे बेचैन कर गयी |
अपने सामने पा कर उसे
कुछ मन की कहने के लिये
उसकी मौन स्वीकृति के लिये
बेतहाशा तरसा हूँ |
सोचता हूँ कोई उपाय खोजूँ
उस तक पहुँच पाने का
उसे यदि खोज पाऊँ
व्यथा अपने मन की
उसे सुनाऊँ |
बदनाम हुआ जिसके लिए
बस सपनों में ही आती है
कभी हँसाती तो कभी रुलाती है
दिल की बात अनकही रह गयी है
मन में निराशा घर कर गयी है |
कभी कभी ऐसा लगता है
शायद कभी न मिल पायेंगे
अनजाने में एक भूल हुई
खुद पर इतना ऐतबार किया
उसे अपनी चाहत बना बैठा
जब चाहत पूरी न हुई
खुद को गुनाहगार मान बैठा |

आशा







मेहनतकश

मेहनतकश हैं
धूप में करते काम
श्रमकण उभरते माथे पर
फिर भी नहीं करते आराम |
सड़क के किनारे
कच्चे झोंपड़ों में
रहते गुदड़ी के लाल
काटते रात उन्मुक्त आकाश तले |
रहते प्रकृति के सानिध्य में
सुबह चूल्हे पर बनी रोटी
कच्ची प्याज मिर्च दाल या सब्जी
देती पेट को आधार |
पूरे दिन की कठिन मेहनत
उससे मिलते चंद सिक्के
और संतुष्टि
ले जाती गहरी नींद की बाहों में |
वे हैं शायद बहुत सुखी
समस्त व्याधियों से दूर
किसी जिम में नहीं जाते
कोई दवा नहीं खाते |
लगते हैं पोस्टर श्रम के महत्व के
या प्राकृतिक चिकित्सा के
मुझे तो लगते सन्देश वाहक
शारीरिक श्रम के महत्त्व के |

आशा






20 फ़रवरी, 2011

मुझे न तोलना कभी

मुझे न तोलना कभी
मानक रहित तराजू से
जो सत्य का साथ न दे
झूट पर ही अटल रहे
ऐसे बेमानी रिश्तों की टीस
होती है क्या तुम नहीं जानते|
जो दर्द उठता है
उसे समझ नहीं पाते
मन बोझिल होने लगता है
सारी अनर्गल बातों से
चोटिल मन को साथ लिए
घूमना कितना मुश्किल है
उसे जानना सरल ही नहीं नामुमकिन है|
ऐसा ही अहसास सब को होता है
जब संवेदनाएं हावी होती हैं
मन विगलित होने लगता है
इसका प्रभाव क्या होगा
तुम समझ नहीं पाते |
क्यूँ कि तुम खुद को
उस स्थान पर रख कर
सोचने की कोशिश ही नहीं करते
मन में उठती टीस का
अनुभव नहीं करते
दूसरे के मनोंभाव को
तोल नहीं सकते
जो खुद सोचते हो
उसे
ही सत्य समझते हो |

आशा


17 फ़रवरी, 2011

क्या वह बचपना था

कई रंगों में सराबोर गाँव का मेला
मेले में हिंडोला
बैठ कर उस पर जो आनंद मिलता था
आज भी यादों में समाया हुआ|
चूं -चूं चरक चूं
आवाज उसके चलने की
खींच ले जाती उस ओर
आज भी मेले लगते हैं
बड़े झूले भी होते हैं
पर वह बात कहाँ जो थी हिंडोले में|
चक्की ,हाथी ,सेठ ,सेठानी
पीपड़ी बांसुरी और फुग्गे
मचलते बच्चे उन्हें पाने को
पा कर उन्हें जो सुख मिलता था
वह अब कहाँ|
आज भी खिलौने होते हैं
चलते हैं बोलते हैं
बहुत मंहगे भी होते हैं
पर थोड़ी देर खेल फेंक दिए जाते हैं
उनमे वह बात कहाँ
थी जो मिट्टी के खिलौनों में |
पा कर उन्हें
बचपन फूला ना समाता था
क्या वह बचपना था
या था महत्व हर उस वस्तु का
जो बहुत प्रयत्न के बाद
उपलब्ध हो पाती थी
बड़े जतन से सहेजी जाती थी |

आशा


16 फ़रवरी, 2011

कैसे भूलूं

कैसे भूलूं
था एक विशिष्ट दिन
जब दी आवाज नव जीवन ने
कच्ची मिट्टी थी
आ सिमटी माँ की गोद में
नए आकार में |
वह स्पर्श माँ का पहला
बड़े जतन से उठाना उसका
बाहों के झूले में आ
उसकी गर्मी का अहसास
बड़ा सुखद था
पर शब्द नहीं थे
व्यक्त करने के लिए |
प्रति उत्तर में थी
मीठी मधुर मुस्कान
उसकी ममता और दुलार
आज भी छिपा रखा है
अपनी यादों की धरोहर में |
झूले से उतर
चूं -चूं जूते पहन
धरती पर पहला कदम रखा
पकड़ उंगली चलना सीखा
अटपटी भाषा में
अपनी बात कहना सीखा
कैसे भूलूं उसे |
बचपन की अनगिनत यादें
सजी हुई हैं मन में |
गुड़ियों के संग खेल
बिताए वे पल कहाँ खो गए
कैसे खोजूं ?
था पहला दिन शाला का
इतनी दूर रहना माँ से
उसके प्यार भरे आंचल से
था कितना कठिन
कैसे भूलूं
छोटी सी बेबी कार
स्टेयरिंग पर हाथ
और चलते पैर पैडल पर
तेज होती गति देख
पीछे से काका की आवाज
बेबी साहब ज़रा धीरे
दृश्य है साकार आज भी
मन के दर्पण में
कितना अच्छा लगता है
वह समय याद करना |
शाला में आधी छुट्टी में
जाड़ों की कुनकुनी धूप में
रेत के ढेर पर खेलना
मिट्टी के घरोंदे बनाना
फूलों से उन्हें सजाना
बागड़ पर टहनियों की कतार
घर के आगे
बगीचे की कल्पना
आज भी भूल नहीं पाई |
था डर बस नक्कू सर की
स्केल की मार का
पर आस पास होता था
बस प्यार ही प्यार
कैसे भूलूं उन यादों को
सोचती हूँ वह समय
ठहर क्यूँ नहीं गया |

आशा






15 फ़रवरी, 2011

गरीब की हाय

होता नहीं अच्छा
गरीब की हाय लेना
उसकी बद्दुआ लेना
उसकी हर आह
तुम्हारा चैन ले जाएगी
दिल दहला जाएगी
जिसकी कीमत
बहुत कुछ खो कर
चुकाना होगी |
हर आँसू तुम्हे
भीतर तक हिला जाएगा
चेहरे से जब नकाब उतरेगा
असली चेहरा सबके समक्ष होगा |
पर हर ओर तबाही
मच जाएगी
उसके रँग लाते ही
तुम्हारी जड़ें हिल जाएँगी |
झूट का सहारा ले
आसमान छूने का भरम
धुल धूसरित हों जाएगा
सब को असली रूप नज़र आएगा |
मत भूलो
कभी तुम भी गरीब थे
उनका पैसा लूट जो हों आज
कई घर उजाड़ आए हों |
जब आँसू ओर आहों का सैलाब
लावा बन जाएगा
तुम्हे कहीं का ना छोड़ेगा
समूल नष्ट कर जाएगा |

आशा






13 फ़रवरी, 2011

केवल तेरे ही पास

मैं चाहता न था बंधना
किसी भी बंधन में
पर न जाने कहाँ से आई
तू मेरे जीवन में |
सिर्फ आती
तब भी ठीक था
क्यूँ तूने जगह बनाई
मेरे बेरंग जीवन में |
मुझे बांधा
अपने मोह पाश में
सांसारिकता के
बंधन में |
बंधन तोड़ नहीं पाता
जब भी प्रयत्न करता हूँ
और उलझता जाता हूँ
तेरे फैलाए जाल में |
है तू कौन मेरी ?
क्यों चाहती जी जान से मुझे
ऐसा है मुझ में क्या ?
मैं जानना चाहता हूँ |
जब भी सोचता हूँ
स्वतंत्र रहने की चाह
गलत लगने लगती है |
फिर सोचता हूँ
बापिस आ जाऊं
अपने कदम
आगे न बढ़ाऊं|
पर चला आता हूँ
केवल तेरे ही पास
तुझे उदास देख नहीं पाता
नयनों में छलकते प्यार को
नकार नहीं पाता
और डूब जाता हूँ
तेरे प्यार में |

आशा




10 फ़रवरी, 2011

प्रारब्ध की विडंबना

सारे बच्चे खेल रहे थे
वह देख रहा था टुकुर -टुकुर
कोई नहीं खिलाता उसको
सभी करते ना नुकुर
चाहता था बच्चों में खेलना
जब भी हाथ बढ़ाया उसने
साथ खेलने के लिए
बहुत हंसी उडाई उसकी
और उसको टाल दिया
वह बहुत दुखी हो जाता
जब चल नहीं पाता |
माँ पापा जब बाहर जाते
कमरे में बंद उसे कर जाते
भूले से यदि ले जाते
दया के पात्र बन जाते |
जब भी कोई उनसे बात करता
' बेचारा ' से प्रारम्भ करता
बचपन में पोलियो ने ग्रसा
अब यही अहसास दिला कर
सारा ज़माना मार रहा |
पर वह निष्क्रीय नहीं हुआ
कोई कमी नहीं करता
चलने के प्रयत्न में
अभ्यास निरंतर करने से
वह भी सक्षम हो रहा है
आने वाले कल के लिए
सुनहरे सपने बुन रहा है
प्रारब्ध की विडंबना से
उसे अब दुःख नहीं होता
क्यूँ की वह समझ गया है
नियति से समन्वय करना |

आशा


08 फ़रवरी, 2011

दम्भ

कठिन होता है
बिना सुविधाओं के रहना,
पर असंभव नहीं |
परन्तु जीना होता असंभव
आवश्यकताओं की पूर्ति बिना ,
है यह केवल दम्भ
जी सकते हैं अर्थ के बिना ,
पार कर सकते हैं कठिन डगर
आवश्यकताएं पूरी हुए बिना |
यही दम्भ उन्हें
ऊपर उठने नहीं देता ,
जो सोचते हैं करने नहीं देता ,
वे केवल सोचते हैं
आदर्शों की बात करते हैं ,
कल्पना जगत में विचरते हैं ,
कर कुछ नहीं सकते |
झूठा घमंड उन्हें
बड़बोला ही बना पाता है ,
वे अभावों में जीते हैं
तिल -तिल क्षय होते हैं |
ऊँची सोच बड़ी बातें
लगती पुस्तकों में ही अच्छी |
हैं वे सच्चाई से दूर बहुत,
जो कुछ प्राप्त नहीं कर पाते,
कई कहानियां सुनाते हैं
हो दम्भ से सराबोर |
यह तक भूल जाते हैं
कि होता प्रयत्न आवश्यक
कोई कार्य करने के लिए
सफलता पाने के लिए |
वह भी यदि सफल हो
और सही राह दिखाई दे
तभी राह
पर चलना
सहज हो पाता है
आगे बढ़ने के लिए |

आशा







07 फ़रवरी, 2011

आशा की किरण

नित आती जाती समस्याएँ
उनका निदान या समाधान
कर सकते हो यदि
और सांझा कर सकते हो उनसे
तभी नजदीकियाँ बढ़ाना
वरना ना छेड़ना तार दिल के
बिना बात ना उलझाना
अजनबी सा व्यवहार करके |
है समय बड़ा बलवान
हर पल कीमती है
उसे ही यदि भुला दिया
वह लौट कर ना आएगा |
अपनी उलझनें सुलझाने के लिए
होता हर व्यक्ति सक्षम
सांझा अपनों से होता है गैरों से नहीं
यदि सही सलाह ना दे पाये
साथ रहना क्या आवश्यक है |
जो जाल बुना अपने आसपास
चाहती नहीं उसमें उलझ कर रह जाऊँ
प्रयास यदि कुछ तुम भी करते
कुछ भ्रम मेरे भी टूटते
गुत्थी सुलझाने का अवसर मिलता
तभी समस्या हल होती
आशा की किरण नजर आती
सोये अरमान जगा पाती |

आशा

05 फ़रवरी, 2011

आया वसंत



मंद-मंद वासंती बयार
नव किसलय करते सिंगार
नए पुराने वृक्षों का
हुआ संकेत वसंत आगमन का |
हरी भरी सारी धरती
रंगीन तितलियाँ विचरण करतीं
पुष्पों पर यहाँ वहाँ
रस रंग में डूबीं वे
मन को कर देतीं विभोर |
पुष्पों की आई बहार
कई अनोखे रंग लिये
पीली सरसों पीले कनेर
शेवंती की मद मस्त गंध
गेंदे की क्यारी हुई अनंग|
होते ही भोर सुन कोयल की तान
मन होता उसमें साराबोर
है संकेत वसन्त आगमन का |
वीणा पाणी को करते नमन
कलाकार कवि और अन्य
पीली साड़ी में लिपटी गृहणी
दिखती व्यस्त गृहकार्य में,
मीठे व्यंजन बना
करती स्वागत वसंत ऋतु का |
वासंती रंग में रंगा हुआ
खेलता खाता बचपन
माँ सरस्वती के सामने
प्रणाम करता बचपन |
है दिन वसंत पंचमीं का
माँ शारदे के जन्म का
सुहावनी ऋतु के
होते आभास का |

आशा

04 फ़रवरी, 2011

सफलता

बहुत कुछ खोना पड़ता है
एकलव्य की तरह
आगे बढ़ने लिये |
राह चुननी पड़ती है
उस पर चलने के लिये |
होता आवश्यक
नियंत्रण मन पर
भटकाव से बचने के लिये
ध्यान केन्द्रित करने के लिये |
किसी कंधे का सहारा लिया
और बन्दूक चलाई भी
तब क्या विशेष कर दिया
यदि अपनी शक्ति दिखाई होती
सच्चाई सामने होती |
झूठा भरम टूट जाता
निशाना सही था या गलत
स्पष्ट हो गया होता |
सफलता चूमती कदम उसके
जो ध्यान केन्द्रित कर पाता
मनन चिंतन उस पर कर पाता |
जो भी सत्य उजागर होता
उस पर सही निर्णय लेता
यही क्षमता निर्णय की
करती मार्ग प्रशस्त उसका |
उस पर कर आचरण
जो भी फल वह पाता
शायद सबसे मीठा होता |
है सफलता का राज़ यही
कभी सोच कर देखा होता |

आशा









01 फ़रवरी, 2011

है कौन दोषी

पैर पसारे भ्रष्टाचार ने
अनाचार ने,
नक्सलवादी उग्रवादी
अक्सर दीखते यहाँ वहाँ |
कोई नहीं बच पाया
मँहगाई की मार से ,
इन सब के कहर से
भटका जाने कहाँ-कहाँ |
जन सैलाब जब उमड़ा
इनके विरोध में
पर प्रयत्न सब रहे नाकाम
होता नहीं आसान
इन सब से उबरना |
है यह एक ऐसा दलदल
जो भी फँस जाता
निकल नहीं पाता
दम घुट कर रह जाता |
यह दोष है लोक तंत्र का
या प्रदेश की सरकार का
या शायद आम आदमी का
सच्चाई है क्या ?
जानना हो कैसे सम्भव
हैं सभी बराबर के दोषी
कोई नहीं अछूता इन से
जब खुद के सिर पर पड़ती है
पल्ला झाड़ लेते हैं |
असफल गठबंधन सरकारें
नेता ही नेता के दुश्मन
ढोल की पोल खोल देते
जब भी अवसर हाथ आता |
आम आदमी
मूक दृष्टा की तरह
ठगा सा देखता रहता
देता मूक सहमति
हर बात में |
क्या दोषी वह नहीं ?
वह विरोध नहीं कर पाता
मुँह मोड़ लेता सच्चाई से
इसी लिए तो पिस रहा है
खुद को धँसता पा रहा है
आज इस दल दल में |

आशा


30 जनवरी, 2011

स्वार्थी दुनिया

होता नहीं विश्वास
कभी विष कन्याएं भी होती थीं
होता था इतना आकर्षण
कोई भी बँध जाता था
मोह पाश में उनके |
सदियों से ही सुंदरता का
उसके पूर्ण उपयोग का अवसर
खोना न चाहा किसी ने |
जब भी कोई स्वार्थ होता
उपयोग विष कन्या का होता |
बचपन से ही रखा जाता
सब की नजरों से दूर
उस अपूर्व सुन्दरी को |
नमक से दूरी रख
पालन पोषण होता उसका
यदि किसी की दृष्टि भी
उस पर भूले से पड़ जाती
हो जाता भूलना कठिन |
कई ऱाज जानने के लिए
बदला लेने के लिए
पूर्ण योगदान होता था उसका |
पर थी नितांत अकेली वह
एक ही बात
मन में घुमड़ती
लगती सुंदरता अभिशाप
जब सभी उससे दूरी रखते
निकटता से उसकी डरते |
उसकी सुंदरता
उसके बाहुपाश का बंधन
कारण बनता
मृत्यु के कगार तक पहुँचने का
हर बार विचार कौंधता मन में
क्या होती सुंदरता अभिशाप |
है कितनी स्वार्थी दुनिया
निज हित के लिए
कितना गिर सकती है
कुछ भी कर सकती है |

आशा





29 जनवरी, 2011

विडम्बना

मैं रवि रहता व्यस्त पर हित में ,
कुछ तो नत मस्तक होते
करते प्रणाम मुझको
पर फिर भी लगती कहीं कमी
यही विचार आता मन में
वह प्यार मुझे नहीं मिलता
जो वह पा जाता है
है अस्तित्व उसका जब कि
मेरे ही प्रकाश से |
होता सुशोभित वह
चंद्रमौलि के मस्तक पर
सिर रहता गर्व से
उन्नत उसका |
जब भी चर्चा में आता
सौंदर्य किसी का,
उससे ही
तुलना की जाती |
त्यौहारों पर तो अक्सर
रहता है वह केंद्र बिंदु
कई व्रत खोले जाते हैं
उसके ही दर्शन कर |
इने गिने ही होते हैं
जो करते प्रणाम मुझको
वह भी किसी कारण वश
यूँ कोई नहीं फटकता
आस पास मेरे
जाड़ों के मौसम में
उष्मा से मेरी
वे राहत तो पाते हैं
पर वह महत्व नहीं देते
जो देते हैं उसे |
वह अपनी कलाओं से
करता मंत्र मुग्ध सबको
कृष्ण गोपिकाओं की तरह
तारिकाएं रहती निकट उसके
लगता रास रचा रही हैं
और उसे रिझा रही हैं |
इतने बड़े संसार में
मैं हूँ कितना अकेला
फिर लगने लगता है
महत्त्व मिले या ना मिले
क्या होता है
मेरा जन्म ही हुआ है
पर हित के लिए |

आशा

27 जनवरी, 2011

बहुत साम्य दिखता है

बहुत साम्य दिखता है
सागर में और तुझ में
कई बार सोचती हूँ
कैसे समझ पाऊँ तुझे |
सागर सी गहराई तुझ में
मन भरा हुआ विचारों से
उन्हें समझना
बहुत कठिन है
थाह तुम्हारी पाऊँ कैसे |
पाना थाह सागर की
फिर भी सरल हो सकती है
पर तुझे समझ पाना
है बहुत कठिन |
थाह तेरे मन की पाना
और उसके अनुकूल
ढालना खुद को
है उससे भी कठिन |
मुझे तो सागर में और तुझ में
बहुत समानता दिखती है
सागर शांत रहता है
गहन गंभीर दिखता है |
पर जब वह उग्र होता है
उसके स्वभाव को
कुछ तो समझा जा सकता है
किया जा सकता है
कुछ संयत |
उसकी हलचल पर नियंत्रण
कुछ तो सम्भव है
पर तेरे अंदर उठे ज्वार को
बस में करना
लगता असंभव
पर हर्ज क्या
एक प्रयत्न में
दिल के सागर में
डुबकी लगाने में
उसकी गहराई नापने में
यदि एक रत्न भी मिल जाए
उसे अपनी अँगूठी में सजाने में |

आशा

26 जनवरी, 2011

वह एक बादल आवारा

वह एक बादल आवारा
इतने विशाल नीलाम्बर में
इधर उधर भटकता फिरता
साथ पवन का जब पाता |
नहीं विश्वास टिक कर रहने में
एक जगह बंधक रहने में
करता रहता स्वतंत्र विचरण
उसका यह अलबेलापन
भटकाव और दीवानापन
स्थिर मन रहने नहीं देता
कभी यहाँ कभी वहाँ
जाने कहाँ घूमता रहता |
पर कभी-कभी खुद को
वह बहुत अकेला पाता
बेचारगी से बच नहीं पाता
जब होता अपनों के समूह में
उमड़ घुमड़ कर खूब बरसता
अपने मन की बात कहता |
जब टपटप आँसू बह जाते
कुछ तो मन हल्का होता
पर यह आवारगी उसकी
उसे एक जगह टिकने नहीं देती
और चल देता अनजान सफर पर
पीछे मुड़ नहीं देखता |

आशा

22 जनवरी, 2011

अपने जीवन की एक शाम मेरे नाम करदो

आज मुझे अपनी ३०० वीं पोस्ट अपने ब्लॉग पर डाल कर बहुत प्रसन्नता हो रही है |मेरे लिखने के उत्साह को बढ़ा कर जो प्रोत्साहन मुझे आप सब पाठकों से मिला है उसके लिये बहुत-बहुत आभारी हूँ |

अपने जीवन की एक शाम
मेरे नाम कर दो
और कुछ दो या ना दो
एक शाम उधार दे दो
ऊँचे पत्थर पर बैठे-बैठे
अस्ताचल जाते सूरज का
उसकी लाल रश्मियों का
लहरों के संग खेलना
होगा बहुत मनोहर दृश्य
उसे देख जो अनुभव होगा
शायद ही भूल पाओगे
मुझे कई बार याद करोगे |
ढलती शाम डूबता सूरज
पक्षियों का होता कलरव
घर जाने की उत्सुकता उनकी
आकाश में जब देखोगे
अनेकों बार सराहोगे |
नीली दिखती झील का
काँच सा स्वच्छ नीर
क्रीड़ा रत मछलियाँ वहाँ
डूबती उतरातीं
जल में डुबकी लगातीं
हिल मिल साथ रहना उनका
जब देखोगे खो से जाओगे |
मेरे साथ होगे
मुझे संबल मिलेगा
होगा बहुत मनोहारी दृश्य
तुम्हारे विचार और मेरी लेखनी
दोनोजब बहुत पास होंगे
तभी तो उन अनुभूतियों का
लेखन में समावेश होगा
जो भी नई कृति उपजेगी
मन को अभिभूत कर पायेगी |

आशा

कोई नहीं समझ पाया

उगता सूरज धीरे-धीरे
चढ़ता ऊपर धीमी गति से
पर अस्ताचल को जाता
इतनी तीव्र गति से
कब शाम उतरी आँगन में
जान नहीं पाई वह |
ऐसा ही कुछ हुआ है
उसकी भी जिंदगी में
थी नन्ही नाजुक गुड़िया सी
ठुमक-ठुमक चलती घर में
किलकारियों से दूर बहुत
गुमसुम रहती घर बाहर में|
एकांत उसे अच्छा लगता
किसी के समक्ष जब आती
चुप रहती कुछ सकुचाती
ना कोई मित्र ना ही सहेली
रहती नितांत अकेली
वह भावनाओं का साझा
किसी से भी कर पाई
मन में दबे हुए अहसास
भी किसी से बाँट पाई |
उसके मन में क्या है
अंदाज कोई लगा पाया
जब भी कोई बात उठी
उसे ही दोषी ठहराया
मन कि स्थिति है क्या उसकी
यह भी ना जानना चाहा |
वह तनाव ग्रस्त
रह कर जिये कैसे
समझ नहीं पाती
अस्त होते सूरज की तरह
खुद को डूबता पाती
विचलित मन
कुछ करने नहीं देता
यदि करना चाहे
समाज अतीत के जख्मों से
उबरने भी नहीं देता |
बहुत अकेली हो गई है
यही सोचती रहती है
उसका भविष्य क्या होगा
जब कोई भी सहारा होगा
क्या कभी वह
इतनी सक्षम हो पायेगी
अपने निर्णय स्वयं लेने की
क्षमता जुटा पायेगी |

आशा



|

21 जनवरी, 2011

होता मोती अनमोल

सागर में सीपी
सीपी में मोती ,
वह गहरे जल में जा बैठी
आचमन किया सागर जल से
स्नान किया खारे जल से
फिर भी कभी नहीं हिचकी
गहरे जल में रहने में
क्योंकि वह जान गई थी
एक मोती पल रहा था
तिल-तिल कर बढ़ रहा था
उसके तन में
पानी क्यूँ ना हो मोती में
कई परतों में छिपा हुआ था
जतन से सहेजा गया था
यही आभा उसकी
बना देती अनमोल उसे
बिना पानी वह कुछ भी नहीं
उसका कोई मूल्य नहीं
सारा श्रेय जाता सीपी को
जिसने कठिन स्थिति में
हिम्मत ज़रा भी नहीं हारी
हर वार सहा जलनिधि का
और आसपास के जीवों का
क्योंकि मोती पल रहा था
अपना विकास कर रहा था
उसके ही तन में
था बहुत अनमोल
सब के लिये |

आशा

20 जनवरी, 2011

है क्यूँ इतना गुमान

है क्यूँ इतना गुमान
इस क्षण भंगुर काया पर
क्यूँ होता अभिमान
दूसरों का अपमान कर
क्या यह उचित करती हो
ऐसा व्यवहार
नहीं अपेक्षित तुमसे
गुण स्थाई होते हैं
काया नहीं
यही काया एक दिन कृशकाय
तो दूसरे दिन
कंकाल हो जाती है |
इन परिवर्तनों में
समय कब निकल जाता है
पता ही नहीं चलता
क्या कभी विचार किया है
अपने गुणों का सदुपयोग
क्यूँ नहीं करतीं
इतनी रूप गर्विता हो
धरती पर पैर नहीं रखतीं
जब जुड़ी नहीं जमीन से
तब कैसे सब से
प्रेम बाँट पाओगी
ईश्वर ने भेजा इस जग में
सद्भाव बढ़ाने के लिये
हो अपने में इतनी व्यस्त
कि बहुत कृपण हो जाती हो
प्रेम सब को बाँटने में |
रूप गर्विता हो
तुम्हारा यही सोच
ठीक नहीं है
तुम यहीं सही नहीं हो |
गुणों का महत्व जानती हो
फिर भी अपनाने की
पहल नहीं करतीं
क्या यहीं तुम गलत नहीं हो ?

आशा

19 जनवरी, 2011

और सपना साकार हुआ

जीवन की डगर पर ,
साथ उसे जब चलते देखा
कई फूल खिले मन के अंदर ,
उन से महका तन मन चंचल
उसकी वह अनुभूति हुई जब
खुलने लगे मन के बंधन ,
स्पष्ट बात करना उसका
मधुर मुस्कान सदा आनन पर
वह और उसका आकर्षण
कर देता बेचैन मुझे ,
अपनत्व पाने के लिये
उसके निकट आने के लिये
वह रूप और अदाएं
मन करता खींच लाऊँ उसे ,
अपने मन की बगिया में |
साथ बैठूँ बातें करूँ
कुछ अपनी कहूँ
कुछ उसकी सुनूँ
जैसे ही हाथ बढ़ाना चाहा
कि सपना टूट गया |
स्वप्न में जिसकी इच्छा थी
वह सामने खड़ी थी
अपने मुखड़े पर आई
उलझी लट सुलझा रही थी |
वही स्मित मुस्कान
लिये चहरे पर
पर यह स्वप्न नहीं था
सच्चाई थी
वही मेरे सामने खड़ी थी |

आशा

18 जनवरी, 2011

है न्याय कैसा

है जिंदगी मेरी
एक टिमटिमाता दिया
रोशनी कभी धीमी
तो कभी तीव्र हो जाती है
वायु का एक झोंका भी
मन अस्थिर कर जाता है ,
अंतर्द्वन्द मचा हुआ है
कोई हल नहीं मिलता
चाहती थी एक
मगर एक साथ दो आई हैं
कैसे इन नन्हीं कलियों का
जीवन यापन कर पाऊँगी
मन चाही हर खुशी से
इनकी दुनिया रँग पाऊँगी |
पहले ही कठिनाई कम थी
दो जून रोटी भी
सहज उपलब्ध थी
अब दो मुँह और बढ़ गए हैं
हैं हाथ केवल दो काम के लिये
आर्थिक बोझ उठाने के लिये |
बढ़ गई संख्या हमारी
उस पर मँहगाई की मार ,
सारी खुशियाँ छिनने लगी हैं |
यह नहीं कि मैं माँ नहीं हूँ
संवेदना नहीं है मुझ में
दोनों ही प्यारी हैं मुझे
लगती हैं अनियारी मुझे |
छोटी-छोटी आवश्यकतायें
जब पूरी नहीं कर पाती
बहने लगती अश्रु धारा
बहुत अधीर हो जाती हूँ |
जो चाहती थीं गोद हरी हो
नन्हीं सी गुड़िया घर आए
जाने क्या-क्या कर रही हैं
जादू टोना , तंत्र मन्त्र |
पर घर गूँज उठा मेरा
दोनों कि किलकारी से
पर अनचाही चिंता भी साथ आई है
दोनों के आगमन से |
फिर भी है विश्वास
जब गोद भर गई है
नैया भी पार
लग ही जायेगी |
मँहगाई का रोना क्या
कभी नियंत्रण
उस पर भी होगा
प्रभु कि कृपा कभी तो होगी |
पर एक विचार मन में आता है
है न्याय कैसा ईश्वर का
जहाँ चाह है राह नहीं है
पर हमने तो बिना माँगे ही
झोली भर-भर पा लिया है |

आशा

17 जनवरी, 2011

एक तितली उड़ी


एक तितली उड़ी
मधु मास में
नीलाम्बर में ,
किसी की तलाश में
था जो सब से प्रिय उसको ,
और बिछड़ गया था
भीड़ भरे संसार में |
वह भटकी जंगल-जंगल
घास के मैदान में
बाग बगीचों में
और जाने कहाँ-कहाँ |
जब वह नहीं मिल पाया
हुई बहुत उदास
खोजते-खोजते थकने लगी |
तभी संग पवन के
मंद-मंद सुरभि फैली
यही गंघ थी उसकी
जिसे वह खोज रही थी |
खोज हो गई समाप्त
जब मिली उससे वहाँ
सजे सजाए पुष्प गुच्छ में
पास गई गले लगाया
अपना सारा दुःख दर्द सुनाया
तब का जब थी नितांत अकेली
खोज रही थी अपने प्रिय को |
जब दोनों को मिलते देखा
जलन हुई अन्य पुष्पों को
पर एक ने समझाया
जब हैं दोनों ही प्रसन्न
तब जलन हो क्यूँ हम को
आओ ईश्वर से प्रार्थना करें
उन्हें आशीष देने के लिये
जो मिल गए हैं पुनः
इस भीड़ भरे संसार में |

आशा

16 जनवरी, 2011

क्यूँ नहीं आए अभीतक

क्यूँ नहीं आए अभी तक ,
कब तक बाट निहारूँ मैं ,
ले रहे हो कठिन परीक्षा ,
है विश्वास में कहाँ कमी ,
कभी विचार आता है
अधिक व्यस्तता होगी ,
जल्दी ही बदल जाता है
कुछ बुरा तो नहीं हुआ है ,
चंचल विचलित यहाँ वहाँ
कहाँ नहीं ढूँढा तुमको ,
फिर भी खोज नहीं पाई
चिंताएं मन में छाईं ,
जब भी फोन की घंटी बजती ,
तुम्हारे सन्देश की आशा जगती ,
यदि वह किसी और का होता ,
चिंताओं में वृद्धि होती ,
यह चंचलता यह बेचैनी
कुछ भी करने नहीं देती ,
यदि बता कर जाते
यह परेशानी तो नहीं होती |
बहुत इन्तजार कर लिया
जल्दी से लौट आओ
मेरा सब का कुछ तो ख्याल करो
अधिक देर से आओगे यदि
फटे कागजों के अलावा
कुछ भी नहीं पाओगे
चार दीवारों से घिरा
खाली मकान रह जाएगा
बाद में दुखी होगे
अकेले भी न रह पाओगे |

आशा

15 जनवरी, 2011

होता नहीं विश्वास दोहरे मापदंडों पर

होता नहीं विश्वास
दोहरे मापदंडों पर ,
अंदर कुछ और बाहर कुछ
बहुत आश्चर्य होता है
जब दोनों सुने जाते हैं
अनुभवी लोगों से |
हैं ऐसे भी घर इस जहाँ में
जो तरसते हैं कन्या के लिये |
उसे पाने के लिये ,
कई जतन भी करते हैं |
लगता है घर आँगन सूना
बेटी के बिना अधूरा |
पर जैसे ही बड़ी हो जाती है
वही लोग घबराते हैं |
बोझ उसे समझते हैं
छोटी मोटी भूलों को भी ,
बवंडर बना देते हैं ,
वर्जनाएं कम नहीं होतीं
कुछ ना कुछ सुनने को
मिल ही जाता है |
बेटी है कच्ची मिट्टी का घड़ा
आग पर एक ही बार चढ़ता है
उसे पालना सरल नहीं है ,
है आखिर पराया धन
जितनी जल्दी निकालोगे
चिंता मुक्त हो पाओगे |
यदि भूल से ही सही
कहीं देर हो जाये
हंगामा होने लगता है ,
इतनी आज़ादी किस काम की
सुनने को जब तब मिलता है|
लड़के भी घूमते हैं
मौज मस्ती भी करते हैं
उन्हें कोई कुछ नहीं कहता
उनकी बढ़ती उम्र देख
सब का सीना चौड़ा होता |
दोनों के पालन पोषण में
होता कितना अंतर |
लड़कों के गुण गुण हैं
लड़की है खान अवगुणों की |
है यह कैसा भेद भाव
कैसी है विडंबना
घर वालों के सोच की
समाज के ठेकेदारों की |
कथनी और करनी में अंतर
जब स्पष्ट दिखाई देता है
सही बात भी यदि कही जाए
मानने का मन नहीं होता
मन उद्दंड होना चाहता है
विद्रोह करना चाहता है |

आशा

14 जनवरी, 2011

होगा क्या भविष्य

छोटी बड़ी रंग बिरंगी ,
भाँति-भाँति की कई पतंग ,
आसमान में उड़ती दिखतीं ,
करतीउत्पन्न दृश्य मनोरम ,
होती हैं सभी सहोदरा ,
पर डोर होती अलग-अलग ,
उड़ कर जाने कहाँ जायेंगी ,
होगा क्या भविष्य उनका ,
पर वे हैं अपार प्रसन्न अपने
रंगीन अल्प कालिक जीवन से ,
बाँटती खुशियाँ नाच-नाच कर ,
खुले आसमान में ,
हवा के संग रेस लगा कर |
अधिक बंधन स्वीकार नहीं उन्हें ,
जैसे ही डोर टूट जाती है ,
वे स्वतंत्र हो उड़ जाती हैं,
जाने कहाँ अंत हीन आकाश में ,
दिशा दशा होती अनिश्चित उनकी ,
ठीक उसी प्रकार
जैसे आत्मा शरीर के अन्दर |
उन्मुक्त हो जाने कहाँ जायेगी,
कहाँ रहेगी, कहाँ विश्राम करेगी ,
या यूँ ही घूमती रहेगी ,
नीले-नीले अम्बर में ,
कोई ना जान पाया अब तक
बस सोचा ही जा सकता है
समानता है कितनी ,
आत्मा और पतंग में |

आशा

13 जनवरी, 2011

अनाथ

माँ मैं तेरी बगिया की ,
एक नन्हीं कली ,
क्यूँ स्वीकार नहीं किया तूने ,
कैसे भूल गई मुझे ,
छोड़ गई मझधार में
तू तो लौट गई
अपनी दुनिया में
मुझे झूला घर में छोड़ गई ,
क्या तुझे पता है ,
जब-जब आँख लगी मेरी ,
तेरी सूरत ही याद आई ,
तेरा स्पर्श कभी न भूल पाई ,
बस मेरा इतना ही तो कसूर था ,
तेरी लड़के की आस पूरी न हुई ,
और मैं तेरी गोद में आई ,
तू कितनी पाषाण हृदय हो गई ,
सारी नफरत, सारा गुस्सा ,
मुझ पर ही उतार डाला ,
मुझे रोता छोड़ गई ,
और फिर कभी न लौटी,
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ,
अच्छी तरह समझती हूँ
मेरा भविष्य क्या होगा
मुझे कौन अपनाएगा ,
मैं अकेली
इतना बड़ा जहान ,
कब क्या होगा
इस तक का मुझे पता नहीं है ,
फिर भी माँ तेरा धन्यवाद
कि तूने मुझे जन्म दिया ,
मनुष्य जीवन समझने का
एक अवसर तो मुझे दिया !

आशा

12 जनवरी, 2011

निकटता कैसी

निकटता कैसी उन सब से ,
जो वही कार्य करते हैं ,
जिसके लिए मना करते हैं ,
हम तो ऐसे लोगों को ,
सिरे से नकार देते हैं ,
प्रतिदिन शिक्षा देते हैं ,
यह करो, यह ना करो ,
पर हैं वे कितने खोखले ,
यह सभी जानते हैं ,
कुछ रहते धुत्त नशे में ,
करते बात नशा बंदी की ,
कई बार झूमते दिख जाते ,
सामाजिक आयोजनों में ,
पर सुबह होते ही ,
करते बात आदर्शों की ,
अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर ,
फोटो जब तब छपते हैं ,
हैं कितने कुकृत्यों में लिप्त ,
सभी लोग जानते हैं ,
फिर क्यूँ हो श्रद्धा उन पर ,
जो झूठे आदर्शों की ,
बातें करते हैं ,
गले-गले तक डूबे अनाचार में ,
बात ईमानदारी की करते हैं ,
कई रंग बदलते गिरगिट की तरह ,
उससे कुछ कम नहीं हैं ,
यदि अवसर मिल जाये ,
दलाली तक से नहीं डरते ,
हम क्यूँ ऐसे लोगों में ,
गुणों कि तलाश करें ,
है महत्व क्या ,
ऐसे लोगों की वर्जनाओं का ,
क्या सब नहीं जानते ?
फिर उन्हें आदर्श मान ,
क्यूँ महत्व देते हैं ,
अधिक समझदार हैं वे ,
जो उनसे दूर रहते हैं |


आशा

10 जनवरी, 2011

बैसाखी नहीं चाहती

जब भी हाथ बढ़ा स्नेह का ,
झोली भर खुशियाँ बाँटीं ,
उस पर जब भी हाथ उठाया ,
वह जाने कितनी मौत मरी ,
है यह कैसा प्यार तकरार ,
और छिपी हुई उसमें ,
जाने कितनी भावनायें ,
है समझ भी उनकी ,
पर जब चोट लगती है ,
वह बहुत आहत हो जाती है ,
और भूल जाती है ,
उस प्रेम का मतलब ,
जो कुछ समय पूर्व पाया था ,
नफरत से भर जाती है ,
बदले का भाव प्रबल होता है ,
और उग्रता आती है ,
यही उग्रता बलवती हो ,
बदल देती राह उसकी ,
और चल पड़ी अनजान राह पर ,
मन में गहरा विश्वास लिये ,
नही जानती कहाँ जायेगी ,
किस-किस का अहसान लेगी ,
बस इतना जानती है ,
इस नर्क से तो आज़ाद होगी ,
प्यार ममता और समर्पण ,
बाँट-बाँट हो गयी खोखली ,
सहन शक्ति की पराकाष्ठा ,
बहुत दूर की बात हो गयी ,
जब अंदर ज्वाला धधकती है ,
पृथ्वी तक फट जाती है ,
थी तब वह अबला नारी ,
पर जुल्म कब तक सह पाती ,
है अब वह सबल सफल ,
कमजोर असहाय नारी नहीं ,
अपना अधिकार पाना जानती है ,
अपने पैरों पर खड़ी है ,
किसी की बैसाखी नहीं चाहती |

आशा

09 जनवरी, 2011

अनजानी

छन-छन छनन-छनन ,
पायल की छम-छम ,
खनकती चूड़ियों की खनक ,
सिमटते आँचल क़ी सरसराहट
कराते अहसास,
पहनने वाली का ,
भूल नहीं पाता मीठा स्वर ,
उस अनजानी का ,
जब भी शब्द मुँह से निकले ,
फूल झरे मधु रस से पगे ,
हँसती रहती निर्झरनी सी ,
नयनों ही नयनों में ,
जाने क्या अनकही कहती ,
उसकी एक झलक पाने को ,
तरस जातीं आँखें मन की ,
वह और उसकी शोख अदायें,
मन को हौले से छू जातीं ,
जाने कब मिलना होगा ,
उस अनजानी मृदुभाषिणी ,
मृग नयनी सुर बाला से ,
आँखें जब भी बंद करूँगा ,
उसे बहुत निकट पाऊँगा ,
उन्मत्त पवन के वेग सा ,
उसकी और खिंचा आऊँगा ,
चंचल चपल अनजानी को ,
और अधिक जान पाऊँगा |


आशा

08 जनवरी, 2011

कल्पना न थी

नया शहर, अनजान डगर ,
उस पर यह अँधेरी रात ,
कहाँ जायें, कैसे ढूँढें ,
एक छोटी सी छत ,
सर छुपाने के लिए ,
फुटपाथ पर कुछ लोग ,
और जलता अलाव ,
थे व्यस्त किसी बहस में ,
वहाँ पहुँच मैं ठिठक गया ,
खड़े क्यूँ हो रास्ता नापो ,
यहाँ तुम्हारा क्या काम ,
माँगी मदद रुकना चाहा ,
जबाव मिला नये अंदाज में ,
साहब है यह शहर ,
कोई किसी का नहीं यहाँ ,
सभी रहते व्यस्त अपने में ,
संवेदनायें मर चुकी हैं ,
भावनायें दफन हो गईं ,
यहाँ है बस मैं और मेरा पेट ,
कोई मकान नहीं देता ,
पहचान बताओ,
पहला वाक्य होता ,
होती अगर पहचान ,
वहीं क्यूँ नहीं जाते ,
यूँही नहीं भटकते ,
है सुबह होने में,
कुछ समय शेष ,
कुछ समय तो ,
कट ही सकता है ,
यही सोच रुक गया वहाँ ,
और सोच में डूब गया ,
तंद्रा भंग हुई ,
एक दबंग आवाज से ,
है क्या यह,
तेरे बाप का घर ,
पैसे निकाल ,
या चलता बन ,
यहाँ हर चीज बिकाऊ है ,
निजी हो या सरकारी ,
है यह जागीर मेरी ,
हफ्ता दे या फूट यहाँ से ,
कितना कड़वा अनुभव था ,
फुटपाथ है जागीर किसी की ,
इसकी तो कल्पना न थी ,
डाला हाथ जेब में ,
दिखाई हरे नोट की हरियाली ,
पत्थर से मोम हुआ वह ,
किराये के मकान
दिखाने तक की
बात कर डाली |


आशा

07 जनवरी, 2011

है कितनी आवश्यकता

है कितनी आवश्यकता ,
चिंतन मनन की ,
आत्म मंथन की ,
कभी इस पर विचार किया ,
क्या सब तुम जैसे हैं ,
इस पर ध्यान देना ,
जब विचार करोगे ,
अनजाने न बने रहोगे ,
सागर से निकले हलाहल
का पान कर पाओगे ,
तभी शिव होगे ,
संसार चला पाओगे ,
यदि थोड़ी भी कमी रही ,
जीवन अकारथ हो जायेगा ,
जिस यश के हकदार हो ,
वह तिरोहित हो जायेगा ,
मन वितृष्णा से भर जायेगा ,
जब जानते हो ,
कोई नहीं होता अपना ,
सारे रिश्ते होते सतही ,
सतर्क यदि हो जाओगे ,
तभी उन्हें निभा पाओगे ,
मन में उठे ज्वार को ,
सागर सा समेट
अपने पर नियंत्रण रख ,
करोगे व्यवहार जब ,
सफल जीवन का ,
मुँह देख पाओगे ,
रत्न तो पाये जा सकते हैं ,
पर गरल पान सरल नहीं ,
जो दिखता है ,
सब सत्य नहीं है ,
जितना गहराई से सोचोगे ,
गहन चिंतन करोगे ,
तभी हो पायेगा ,
कई समस्याओं का समाधान ,
सफल जीवन की होगी पह्चान ,
जो आदर सम्मान मिलेगा ,
जिसके हो सही हकदार ,
उस पर यूँ पानी न फिरेगा |


आशा



,
,

06 जनवरी, 2011

दस्तूर दुनिया का

पहले जब देखा उन्हें ,
वे मेरे निकट आने लगे ,
मन में भी समाने लगे ,
जब तब सपनों में आकर ,
उन्हें भी रंगीन करने लगे ,
आने से उनके ,
जो फैलती थी सुरभि ,
स्वप्न में ही सही ,
सारी बगिया महक उठती थी ,
बहुत बार विचार किया ,
फिर मिलने की आशा जागी ,
पहले तो वे सकुचाए ,
फिर घर का पता बताने लगे ,
उन लोगों तक जब पहुँचा ,
कुछ कहना चाहा हाथ माँगा ,
एक ही उत्तर मिला ,
घर वालों से पहले पूछो ,
उनकी स्वीकृति तो लो ,
बात उठाई जब घर में ,
सुनने को मिला आदेश भी ,
यह खेल नहीं गुड्डे गुड़िया का ,
सारी बातें भूल जाओ ,
पहले अपना भविष्य बनाओ ,
फिर कोई विचार करना ,
गहन हताशा हाथ आई ,
मन बहुत उदास हुआ ,
अचानक जाने क्या हुआ ,
जल्दी ही मन के विरुद्ध ,
किया गया एक रिश्ता ,
बे मन से ही सही ,
उसे स्वीकार करना पड़ा ,
सोचने को है बहुत कुछ ,
ओर सोचा भी कम नहीं ,
मन कसैला होने लगा ,
पर एक बात ध्यान आती है ,
शायद होता यही दस्तूर दुनिया का ,
यहाँ हर रिश्ता बे मेल होता है ,
पर समाज को स्वीकार होता है |


आशा

05 जनवरी, 2011

अब तो तलाश है

जीवन की तेज़ रफ्तार ,
अब रास नहीं आती ,
ऊँची नीची पगडण्डी पर ,
चल नहीं पाती ,
कारण जानती हूँ ,
पर स्वीकारती नहीं ,
हैं कमियाँ अनेक ,
समझती हूँ सब ,
पर अनजान रहती हूँ ,
प्रतिकार नहीं करती ,
क्यूँकि सच का सामना ,
कर नहीं पाती ,
कुछ करने की,
ललक तो रहती है ,
पर जीवन की शाम ,
और यह थकान ,
मन की हो ,
या हो तन की ,
पूर्ण होने नहीं देती ,
असफल होते ही ,
मन खंड-खंड हो जाता है ,
एक बवंडर उठता है ,
भूचाल सा आ जाता है ,
जीवन के आखिरी पड़ाव का ,
अहसास घेर लेता है ,
लाभ क्या ऐसे जीवन का ,
विचार झझकोर देता है ,
मन विचलित हो जाता है ,
गिर कर उठना सहज नहीं है ,
अब तो है तलाश,
मुक्ति मार्ग की |


आशा

04 जनवरी, 2011

कुछ विचार बिखरे बिखरे

(१)
वह राज़ क्या ,
उसका अंदाज़ क्या ,
जिसे जानने की उत्सुकता न हो |
(२)
वह साज़ क्या ,
उसकी मधुरता क्या ,
जिसे सुनने की चाहत न हो |
(३)
वह रूप क्या ,
उसका सौंदर्य क्या ,
जिसे देखने की तमन्ना न हो |
(४)
वह प्रश्न क्या ,
उसका महत्व क्या ,
जिसका केवल एक उत्तर न हो |
(५)
वह समाज क्या ,
उसका वजूद क्या ,
जिसमे सामंजस्य की क्षमता न हो |
(६)
हो अपेक्षा उससे कैसी ,
जो वक्त पर काम न आये ,
हृदय की भावना भी न पहचान पाये |
(७)
होता सच्चा प्यार वही,
जो पहली नज़र में हो जाये ,
और दोनों को ही रास आये |
(८)
है स्वप्न सच्चा वही,
जो साकार तो हो ,
पर डरा कर ना जाये |
(९)
है दुश्मन वही ,
जो पूरी दुश्मनी निभाये ,
दे चोट ऐसी कि ज़िंदगी के साथ जाये |


आशा

03 जनवरी, 2011

क्यूँ उठने लगे हैं सवाल

क्यूँ उठने लगे हैं सवाल ,
रोज होने लगे हैं खुलासे ,
और होते भंडाफोड़ ,
कई दबे छिपे किस्सों के ,
पहले जब वह कुर्सी पर था ,
कोई कुछ नहीं बोला ,
हुए तो तभी थे कई कांड ,
पर तब था कुर्सी का प्रभाव ,
कहीं खुद के काम न अटक जायें ,
तभी तो मौन रखे हुए थे ,
जाते ही कुर्सी इज्जत सड़क पर आई ,
कई कमीशन कायम हुए ,
अनेकों राज़ उजागर हुए ,
और खुलने लगे द्वार,
कारागार के उनके लिए ,
क्या उचित था तब मौन रहना ,
या गलत को भी सही कहना ,
हाँ में हाँ मिला उसके,
अहम् को तुष्ट करना ,
प्रजातंत्र के नियमों का ,
खुले आम अनादर करना ,
तब आवाज़ कहां गयी थी ,
क्यूँ बंद हो गयी थी ,
अब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर ,
ढोल में पोल बता कर ,
सोचने पर विवश कर रहे हो ,
तुम भी उन में से ही हो ,
तब तो बढ़ावा खूब दिया ,
अब टांगें खींच रहे हो ,
जब कुर्सी से नीचे आ गया है ,
पर है वह चतुर सुजान ,
चाहे जितने कमीशन बैठें ,
अपने बचाव का उपाय खोज ही लेगा |


आशा

02 जनवरी, 2011

रंग बिरंगे फूल चुने

रंग बिरंगे फूल चुने
चुन-चुन कर 
 माला बनाई 
रोली चावल और नैवेद्य से
है थाली खूब सजाई 
यह नहीं केवल आकर्षण
प्रबल भावना है मेरी
माला में गूँथे गये फूल
कई बागों से चुन-चुन
नाज़ुक हाथों से
सुई से धागे में पिरो कर
माला के रूप में लाई हूँ
भावनाओं का समर्पण
ध्यान मग्न रह
तुझ में ही खोये रहना
देता सुकून मन को
शांति प्रदान करता
जब भी विचलित होता
सानिध्य पा तेरा
स्थिर होने लगता है
नयी ऊर्जा आती है
नित्य प्रेरणा मिलती है
दुनिया के छल छिद्रों से
 दूर बहुत हो शांत मना 
भय मुक्त सदा  रहती हूँ
होता संचार साहस का
है यही संचित पूँजी
इस पर होता गर्व मुझे
हे सृष्टि के रचने वाले
 मन से करती  स्मरण तेरा
तुझ पर ही है पूरी निष्ठा |


आशा