02 अप्रैल, 2011

जो आहुति दी


बाट जोहते थक गए नयना
टकटकी लगा देखते रहना
अश्रु धारा थमने का
नाम नहीं लेती |
शायद कोई पाती आ जाती
वह बैठी राह देखती
प्रियतम के इन्तजार में
वे आये भी पर इस रूप में |
आँखे पथरा गईं
हृदय खंड खंड हो गया
मरणोपरांत मिले मेडिल का
सम्मान ही शेष रह गया |
देश हित की कुर्बानी को
जग जाहिर कर
आँसू बहाना
अपमान है बलिदान का |
जो आहुति दी देश के लिए
मन श्रद्धा से भर उठता है
आँखे नम होने लगी
एक मुठ्ठी मिट्टी दी
जब उसे बिदाई में |
सन्देश वह जो दे गया
नौनिहालों के लिए
उस राह पर वे चलेंगे
देश हित में आत्मोत्सर्ग करेंगे |


आशा




31 मार्च, 2011

सौहार्द


खेल को खेल समझा
युद्ध का मैदान नहीं
प्यार का सन्देश समझा
नफरत की दुकान नहीं |
खेल का मैदान था
अहम मैच हो रहा था
स्नेह का सेतु बन रहा था
भाई चारा पनप रहा था |
कोई हारे कोई जीते
बस खेल भावना बनी रहे
दुश्मनी ना हो किसी से
केवल प्यार ही पले |
जीवन का आनंद यही है
खेल भावना फूले फले
यह खेल का मैदान है
यहाँ सौहार्द ही पले |

आशा

30 मार्च, 2011

अडिग विश्वास


झोंपड़े में टिमटिमाता दिया
है अपार शान्ति वहाँ
ना बैर न प्रीत किसी से
केवल संतुष्टि का भाव वहां |
था निश्चिन्त निश्छल
श्रम ही था जीवन उसका
वर्तमान में जीता था
कल क्या होगा सोचा न था |
था अटूट विश्वास कर्ता पर
पर कभी कुछ चाहा नहीं
प्रारब्ध में जो कुछ लिखा था
विधाता की देन समझता था |
अडिग विश्वास नियति पर था
अतृप्ति का भाव न था
कठिन परिश्रम करता था
गहरी नींद में सोता था |
है जीवन क्या और मृत्यु क्या
मन में कभी आया नहीं
मोक्ष किसे कहते हें
यह भी कभी विचारा नहीं |
व्यस्तता इतनी रहती थी
ऐसी बातों के लिये समय न था
ये सब व्यर्थ लगती थीं
कर्म पर ही विश्वास था |
कभी हार नहीं मानीं
एक दिन सब छोड यहीं
प्रकृति की गोद में सर रख कर
चिर निद्रा में खो गया |

आशा





27 मार्च, 2011

जाने ऐसा क्या है इसमें



जाने ऐसा क्या है इसमें
बहुत मोह होता इससे
यदि हल्की सी ठोकर भी लगे
मन को विचलित कर जाए |
झूठे अहम चैन से
उसे रहने नहीं देते
उलझ कर उनमे ही रह जाता
नियति के हाथ की
कठपुतली बन कर |
क्या है उचित और क्या अनुचित
इसका भी ध्यान नहीं रखता
चमक दमक की दुनिया में
इतना लिप्त होता जाता
यह तक समझ नहीं पाता
कि वह क्या चाहता है |
गर्व की चरम सीमा पर
होता है प्रसन्न इतना कि
वह सब से अलग नहीं है
यह तक भूल जाता है |
संयम और सदा चरण
होने लगते दूर उससे
फिर भी भागता जाता है
आधुनिकता की दौड़ में |
दिन में व्यस्त काम काज में
रात गवाता चिंताओं में
फिर भी मन भटकता है
शान्ति की तलाश में |
है संतुष्टि से दूर बहुत
माया मोह में आकंठ लिप्त
शायद भूल गया है
सब यहीं छूट जाएगा |
है यह तन विष्ठा की गठरी
ऊपर से सुंदर दिखा तो क्या
एक दिन मिट जाएगा
चंद यादें छोड़ जाएगा |

आशा


26 मार्च, 2011

जिज्ञासा मन की


वह जब भी अकेला होता है
सोचता पापा कब आएँगे
एक रात छत पर
तारों भरे अम्बर के नीचे
वही प्रश्न किया दादी से
कुछ क्षण मौन रहीं
फिर इंगित किया एक तारे को
तेरे पापा हैं वहाँ
अब तू जल्दी से सो जा |
वह अब रोज तारे देखता
मन ही मन प्रार्थना करता
पापा जल्दी आओ ना
मुझे अपने पास सुलाओ ना |
दादी का सिर सहलाना
हल्की हल्की थपकी देना
जाने कब नींद आ जाती
वह सपनों में खो जाता |
एक रात एक तारा टूटा
उसे नीचे आते देखा
सोचा पापा आते होंगे
पर वे नहीं आए |
सुबह हुई वे जब ना मिले
दादी से फिर प्रश्न किया
टूटा तारा गया कहाँ
पापा क्यूँ नहीं आए ?
दादी हौले से बोलीं
जब भी कोई तारा टूटता है
किसी को भगवान बुला लेता है
वही प्रश्न और वही उत्तर
पर हल खोज नहीं पाया
पापा का प्यार पाने के लिए
नन्हा सा दिल तरस गया |
जब दरवाजे पर दस्तक होती
या क़दमों की आहट होती
वह पापा की कल्पना करता
हर रात यही सोचता कि पापा आएंगे |
तारों को रोज देखता
जाने कब आँख लग जाती
और मन की जिज्ञासा
अधूरी ही रह जाती |

आशा

24 मार्च, 2011

जीवन

माटी से दीपक बनाया
अग्नि से उसे पकाया
सुन्दर दिखे इस प्रयास में
कई रंगों से उसे सजाया |
छोटा सा जीवन उसका
स्नेह भरा बाती डाली
ज्योति जब जलने लगी
रौशनी फैलने लगी |
मार्ग पर चलने वालों की
आवश्यकता उसने समझी
कल्याण भावना से भरा
सेवा में वह जुट गया |
कल्याण मार्ग अवरुद्ध ना हो
मार्ग सदा रौशन रहे,
वायु के झोंकों से,
उसे बचाने के लिए
कई प्रयास अनवरत किये |
वह टिमटिमाता रहा
स्नेह चुकता गया
बाती
ने भी साथ छोड़ा
लौ तेज हुई
वह भभका और बुझ गया
मिट्टी से बना था
उसमें ही विलीन हो गया |
पर एक नए दिए ने
उसका स्थान लिया
जो मार्ग दिखाया उसने
उसी को अपना लिया
और परिष्कृत किया |
परिवर्तन अपेक्षित था
एक गया दूसरा आया
यही क्रम चलता रहा
संसार आगे बढ़ता रहा |

आशा


23 मार्च, 2011

है उम्र ही ऐसी


बढ़ता अन्तर द्वन्द
टूटते बिखरते सपने
होते नहीं
किसी के अपने |
अपने भी लगते बेगाने
चाहे कोई
माने ना माने |
कशिश ओर तपिश उसकी
कर देती बेचैन
उसकी ही तलाश में
हुआ प्यासे चातक सा हाल |
मनोदशा ऐसी हुई
पंख कटे पक्षी जैसी
वह छटपटाहट और बदहाली
रात और हो जाती काली |
उस की स्याही में
डूबती उतराती
व्यथा और बढ़ती जाती
रात अधिक हो जाती काली |
सही राह नहीं दिखती
सलाह उचित नहीं लगती
सभी लगते दुश्मन से
जो भी उसका विरोध करते |
होना है जीवन का
अहम फैसला
जिस पर निर्भर
जीवन उसका |
पर है उम्र
ही कुछ ऐसी
जब बहकते कदम
नाम नहीं लेते ठहरने का |