01 जुलाई, 2011

जहां अपार शान्ति होती है

अपनी ४०० वी रचना आज ब्लॉग पर डाल रही हूँ |:-

ऊंचे पर्वतों से निकली
चंचल चपल धवल धाराएं
मार्ग अपना प्रशस्त किया
आगे बढ़ीं सरिता बनीं |
अलग अलग मार्गों से आईं
मंदाकिनी विलीन हो गयी
अलखनंदा में मिल गयी
नदिया में बिस्तार आया
वह और रमणीय हो गयी |
आसपास हरियाली थी
तेज बहती जल धारा थी
कल कल ध्वनि बहते जल की
खींच रही थी अपनी ओर |
घंटों बैठे उसे निहारते
नयनों में वे दृश्य समेटे
एक चित्र कार बैठा पत्थर पर
उकेरता उन्हें कैनवास पर |
जब दिन ढला शाम हुई
दी दस्तक चाँद ने रात में
चंचल किरणें खेलने लगी
जल धारा के साथ में |
खेलता चन्द्रमा लुका छिपी
पेड़ों से छन कर आती
घरोंदों में होती रौशनी से
था दृश्य ही ऐसा
कि मन की झोली में भर लिया |
अब जब भी मन उचटता है
कहीं दूर जाना चाहता है
आखें बंद करते ही
वे दृश्य उभरने लगते हैं
मन सुकून से भर जाता है |
सच कहा था चित्रकार नें
जहां अपार शान्ति होती है
मानसिक थकान नहीं होती
कुछ नया सर्जन होता है |

आशा

30 जून, 2011

नार बिन चले ना

नार कटवाती दाई ,जन्म होता सुखदाई

मनुष्य जीवन पाया ,यूं व्यर्थ जाए ना |

वह सुन्दरी सुमुखी ,सज सवर चल दी

रीत यहाँ की जाने ना ,चाल सीधी चले ना |

उसकी नागिन जैसी ,बल खाती लंबी वेणी

मुख में बीड़ा दबाना ,बिना हंसे चले ना |

मंद मंद मुस्काना ,ध्यान कहीं भटकाना

गुमराह होती जाना ,मार्ग है अनजाना |

मन में होती अशांति ,तूती बजे ना फिर भी

प्रभु के भजन गाना ,नार बिन चले ना|

आशा

29 जून, 2011

है यही रीत दुनिया की


हरीतिमा वन मंडल की

अपनी ओर खींच रही थी

मौसम की पहली बारिश थी

हल्की सी बूंदाबांदी थी

तन भीगा मन भी सरसा

जब वर्षा में तेजी आई

पत्तों को छू कर बूंदे आईं |

पगडंडी पर पानी था

फिर भी पास एक

सूखा साखा पेड़ खडा था

था पत्ता विहीन

था तना भी बिना छाल का |

उसमें कोई तंत न था

जीवन उसका चुक गया था

कई टहनियाँ काट कर

ईंधन बनाया उन्हें जलाया

जब भी कोई उसे देखता

सब नश्वर है यही सोचता |

पहले जब वह हरा भरा था

कई पक्षी वहाँ आते थे

अपना बसेरा भी बनाते थे

चहकते थे फुदकते थे

मीठे फल उसके खाते थे

जो फल नीचे गिर जाते थे

पशुओं का आहार होते थे |

घनी घनेरी डालियाँ उसकी

छाया देती थीं पथिकों को

था वह बहुत उपयोगी

सभी यही कहते थे |

पर आज वह

ठूंठ हो कर रह गया है

सब ने अनुपयोगी समझ

उसका साथ छोड़ दिया है

है यही रीत दुनिया की

उसे ही सब चाहते हैं

जो आए काम किसी के

उपयोगिता हो भरपूर

तभी मन भाए सभी को |

जैसे ही मृत हो जाए

जो कुछ भी पास था

वह भी लूट लिया जाता है

कुछ अधिकार से

कुछ अनाधिकार चेष्टा कर

अस्तित्व मिटा देते हैं उसका

वह आज तो ठूंठ है

कल शायद वह भी न रहेगा

लुटेरों की कमी नहीं है

उनको खोजना न पड़ेगा |

आशा

26 जून, 2011

इसी तरह जी लेंगे


जब से तेरी तस्वीर सीने से लगाई है

दिल पर अधिकार न रहा

उसकी धडकन कभी धीमीं

तो कभी तेज हो जाती है

तस्वीर कभी रंगीन तो कभी रंग हीन

नजर आती है |

उससे निकली आवाज कभी ताल में

तो कभी बेताल हो जाती है

यह कहीं मेरे अंतर्मन में उठते

विचारों का सैलाव तो नहीं

जो मुझे बहा ले जाता है |

जब भी मैं खुश होता हूँ

उस पर भी खुशी झलकती है

देख कर मेरी उदासी

वह गम के साये में खो जाती है

बहुत उदास नजर आती है |

तू जाने किस अन्धकार में खो गई

पर मन में इस तरह बस गई

जहां भी नजर पडती है

तेरी याद आ जाती है

दिल की धड़कन बढ़ जाती है

यह कहीं मेरा भ्रम तो नहीं

तू जीती जागती

सजीव नजर आती है |

ऐसे ही अगर जीना है

हम यह भी सह लेंगे

कोई गिला शिकवा न करेंगे

किसी सहारे की दरकार नहीं है

बस इसी तरह जी लेंगे |

आशा

यदि चाहत हो कुछ करने की


यदि चाहत हो कुछ करने की

हर बार सफल रहने की

फिर भी करना मनमानी

उचित नहीं लगता

कुछ भी हाथ नहीं आएगा

समय पंख लगा उड़ जाएगा |

जिसने भी की मनमानी

अपनी जिद को सर्वोपरी समझा

असफलता की सीड़ी पर

चढता गया फिर मुड़ न सका

उम्र भी निकल गई

सिवाय पछतावे के
कुछ भी हाथ नहीं आया |

आशा

24 जून, 2011

कैसे तुझे भुलाऊँ


तू यहाँ रहे या वहाँ रहे

जहां चाहे वहाँ रहे

कभी रूठी रहे

या मन जाए

पर बहारों का पर्याय है तू

मीठी यादों का बहाव है तू |

चेहरे की मुस्कराहत

अठखेलियाँ करती अदाएं

अखियों की कोर सजाता काजल

लगा माथे पर प्यारा सा डिठोना

किसी की नजर ना लग जाए |

तेरी नन्हीं बाहों की पकड़

कसती जाती थी

जब भी बादल गरजते थे

दामिनी दमकती थी

वर्षा की पहली फुहार

तुझे भिगोना चाहती था |

आगे पीछे सारे दिन

मेरा पल्ला पकड़

इधर उधर तेरा घूमना

गोदी में आने की जिद करना

राह में हाथ फैला कर रुक जाना

बाहों में आते ही मुस्कराना

जाने कितनी सारी बातें हैं

दिन रात मन में रहती हैं

कैसे उन्हें भुलाऊँ

तू क्या जाने

तू क्या है मेरे लिए |

आशा

22 जून, 2011

विश्वास मन का



मंदिर गए मस्जित गए

और गिरजाघर गए

गुरुद्वारे में मत्था टेका

चादर चढाई मजार पर |

कई मन्नतें मानीं

कुछ इच्छाएं पूरी हुईं

कई अधूरी रह गईं

तब अंतर मन ने कहा

है यह विश्वास मन का

ना कि अंध विश्वास किसी धर्म का

होता वही है

जो है विधान विधि का |

क्या अच्छा और क्या बुरा

,हर व्यक्ति जानता है

फिर भी भटकाव रहता है

सब के मन में |

जान कर भी जानना नहीं चाहता

अनजान बना रहता है

,मन की शान्ति खोजता है

जिसका मन होता स्वच्छ और निर्मल

वह उसके बहुत करीब होता है |

जब आख़िरी दिन होगा

हर बात का हिसाब होगा

सब कर्मों का लेखा जोखा

यहीं दिखाई दे जाएगा |

आशा