29 सितंबर, 2011

तुम ना आए


तुम ना आए इस उपवन में
आते तभी जान पाते
कितने जतन किये
स्वागत की तैयारी में |
अमराई में कुंजन में
जमुना जल के स्पंदन में
कहाँ नहीं खोजा तुमको
इस छोटे से जीवन में |
खोजा गलियों में
कदम के पेड़ तले
तुम दूर नज़र आए
मगन मुरली की धुन में |
पलक पावडे बिछाए थे
उस पल के इन्तजार में
वह होता अनमोल
अगर तुम आ जाते |
आते यदि अच्छा होता
सारा स्नेह वार देती
प्यारी सी छबी तुम्हारी
मन में उतार लेती |
बांधती ऐसे बंधन में
चाहे जितनी मिन्नत करते
कभी न जाने देती
अपनी मन बगिया से |
आशा





27 सितंबर, 2011

दिल किसे कहें


है पुंज भावानाओं का
या हिस्सा शरीर का
पर सभी बातें करते
दिल की दिलदारी की |
पल सुख के हों या दुःख के
दौनों ही प्रभावित करते
धडकनें तीव्र होती जातीं
चैन न आ पाता उसको |
हर रंग प्रकृति का
सवाल कर झझकोरता उसे
कभी कोइ जज़बाती करता
बेचैन कर जाता उसे |
मस्तिष्क से उठाती तरंगें
संकेत कुछ देती उसे
वह भावों में डूबा रहता
कल्पनाओं में जीता |
क्या है वह वही दिल
जिसके होते चर्चे आम
दिल लेने देने की बातें
होती रहती सरे आम |
फिर भी कुछ तो होते ऐसे
जो हृदय हीन दिखाई देते
कोइ भी अवसर हो
अनर्गल बातें करते |
पर संवेदनशील हुए बिना
वे कैसे हें रहा पाते
है विचारणीय होता दिल क्या
और
घर कहाँ उसका |
है बड़ी दुविधा किसे दिल कहें
उसे तो नहीं जो धड़के शरीर में
या वह जिसका घर होता
मन मस्तिष्क में |
आशा







26 सितंबर, 2011

मेरा अस्तित्व


तू बरगद का पेड़
और मैं छाँव तेरी
है यदि तू जलस्त्रोत
मैं हूँ जलधार तेरी |
तू मंदिर का दिया
और मैं बाती उसकी
अगाध स्नेह से पूर्ण
मैं तैरती उसमे |
तूने जो चाहा वही किया
उसे ही नियति माना
ना ही कोइ बगावत
ना ही विरोध दर्ज किया |
पर ना जाने कब
पञ्च तत्व से बना खिलौना
अनजाने में दरक गया
सुकून मन का हर ले गया |
कई सवाल मन में आए
वे अनुत्तरित भी न रहे
पर एक सवाल हर बार
आ सामने खडा हुआ |
है क्यूँ नहीं अस्तित्व मेरा
वह कहाँ गुम हो गया
मेरा वजूद है बस इतना
वह तुझ में विलीन हो गया |
आशा




23 सितंबर, 2011

ओ अजनवी


जान न पाया कहाँ से आई
ओर हों कौन ओ अजनवी
जाने कब तुम्हारा आना
मेरे जीने का बहाना हों गया |
ये सलौना रूप और पैरहन
और आहट कदमों की
छिप न पाये हजारों में
ले चले दूर बहारों में |
दिल में हुई हलचल ऐसी
सम्हालना उसे मुश्किल हुआ
हर शब्द जो ओंठों से झरा
हवा में उछला फिज़ा रंगीन कर गया |
हों तुम पूरणमासी
या हों धुप सुबह की
साथ लाई हों महक गुलाब की
तुम्ही से गुलशन गुलजार हों गया |
चहरे का नूर और अनोखी कशिश
रंगीन इतनी कि
रौशनी का पर्याय हों गयी |
दिल में कुछ ऐसे उतारी
गहराई तक उसे छु गयी
वह काबू में नहीं रहा
कल्पना में खो गया |

आशा


22 सितंबर, 2011

मन बावरा


मन बावरा खोज रहा
घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमे
बेपनाह मोहब्बत की |
यहाँ वहाँ का भटकाव
और सब से होता अलगाव
अब सहन नहीं होता
एकांत पा बेचैन होता |
अब चाहता ठहराव
अपने धुमंतू जीवन में
समय भी ठहर जाए
भर दे नई ऊर्जा ह्रदय में |
अब तक अनवरत
भागता रहा
बचपन कब बीता
याद नहीं आता |
है सुख का पल क्या
जान नहीं पाता
बस भागता रहता
कुछ पाने की तलाश में |
चाहता है क्या ,जानता नहीं
पर है इतना अवश्य
कहीं गुम हो गयी है
पहचान मेरी |
अब ऊब गया इस बेरंग उदास
एक रस जीवन से
बच नहीं पाया
अस्थिरता
के दंशों से |
जन्म से आज तक
पल दो पल की भी
शान्ति न मिल पाई
इस बंजारा जीवन में |
पर अब भी है दुविधा बाकी
क्या यह ठहराव
दे पाएगा आज भी
कुछ पल का सुकून |

आशा



















20 सितंबर, 2011

ताज महल


उस दिन एक गाइड ने
कहानी कही अपने अंदाज में
वह आगे बढता जाता था
कई कहानी ताज की सुनाता था |
उसी से सुनी थी यह भी कहानी
विश्वास तो तब भी न हुआ था
इतना नृशंस शहंशाह होगा
मन को यह स्वीकार न हुआ |
निर्माण कार्य में जुटे कारीगर
दूर दूर से आए थे
कुशल इतने अपने हुनर में
थी न कोइ सानी उनकी |
ताज महल के बनाते ही
वे अपने हाथ गवा बैठे
था फ़रमान शाहजहां का
जो बहुत प्रेम करता था
अपनी बेगम मुमताज से |
वह चाहता न था
कोइ ऐसी इमारत और बने
जो ताज से बराबरी करे |
जीवन के अंतिम पलों में
था जब बेटे की कैद में
अनवरत देखता रहता था
इस प्रेम के प्रतीक को |
आज भी बरसात में
दौनों की आरामगाह पर
जो बूँदें जल की गिरती हैं
दिखती परिणीति परम प्रेम की |
यह कोइ नहीं कहता
अकुशल थे कारीगर
बस यही सुना जाता है
आकाश से प्रेम टपकता है |

आशा




18 सितंबर, 2011

कल्पना के पंख


जीवन में पंख लगाए
आसमान छूने को
कई स्वप्न सजाए
साकार उन्हें करने को |
उड़ती मुक्त आकाश में
खोजती अपने अस्तित्व को
सपनों में खोई रहती थी
सच्चाई से दूर बहुत |
पर वह केवल कल्पना थी
निकली सारी खोखली बातें
ठोस धरातल छूते ही
लगा वे थीं सतही बातें |
और तभी समझ पाई
कल्पना हैं ख्याली पुलाव
होते नहीं सपने भी सच्चे
होती वास्तविकता कुछ और |

आशा