01 अप्रैल, 2012

झीना आवरण


वे व्यस्त नजर आते 
जीवन की आपाधापी मे 
अभ्यस्त  नजर आते 
मनोभाव छिपाने में 
आवरण से ढके 
सत्य स्वीकारते नहीं 
झूट हजारों के
सत्य स्वीकारते नहीं
हर वार से बचना चाहते
ढाल साथ रखते
व्यंग वाणों से बचने के लिए
सीधे बने रहने के लिए
यह तक भूल जाते
है आवरण बहुत झीना
जाने कब हट जाए
हवा के किसी  झोंके से
कितना क्या प्रभाव होगा
जब बेनकाब चेहरा होगा
सोचना नहीं चाहते
बस यूं  ही जिये जाते
अनावृत होते ही
जो कुछ भी दिखाई देगा
होगी फिर जो प्रतिक्रया
वह कैसे सहन होगी
है वर्तमान की सारी महिमा
कल को किसने देखा है
बस यही है अवधारणा
मनोभाव छिपाने की |


आशा

30 मार्च, 2012

विशिष्ट आमंत्रण

आप को यह सूचित करते हुए मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि  कल  शनीवार दिनांक ३१.३.२०१२ को अपरान्ह ४.३० बजे होटल विक्रमादित्य, रिंग रोड चौराहा, नानाखेड़ा उज्जैन में मेरे कविता संग्रह "अनकहा सच " का विमोचन है,
इस अवसर पर आप सब की उपस्थिति एवं शुभकामनाएं विशेष रूप से अपेक्षित हैं |
कृपया पधार कर समारोह की शोभा बढ़ायें|
आशा सक्सेना

27 मार्च, 2012

बड़ा दिल

तंग दिल हो क्यूँ रहना 
होना चाहिये हृदय बड़ा
कहना है सरल पर
है कठिन कितना
यह दंश सहना |
कहने से कोशिश भी की 
विस्तार किया 
और बड़ा किया 
बड़ा दिल बड़ी बातें 
रह गए सिमट
कर कोने में
 कुछ कष्ट हुआ
जो बढ़ने लगा
 गहराई तक पहुँच गया
तुरत फुरत 
डाक्टर तक पहुँचे 
शल्य चिकित्सा की सलाह ने 
आई .सी.यू.तक पहुँचा दिया 
ढेरों  कष्टों  में दबे 
सहम गये
जब घर को प्रस्थान किया 
सारी जेबें खाली थीं 
पुन:यही विचार आया 
बड़े  दिल का क्या फ़ायदा 
जिसने अस्पताल पहुँचा दिया |
 
 
आशा
 




25 मार्च, 2012

प्रारब्ध

जगत एक मैदान खेल का 
हार जीत होती रहती 
जीतते जीतते कभी 
पराजय का मुंह देखते 
विपरीत स्थिति में कभी होते 
विजय का जश्न मनाते |
राजा को रंक होते देखा 
रंक कभी राजा होता 
विधि का विधान सुनिश्चित होता 
छूता कोई व्योम   की ऊंचाई 
किसी  के हाथ असफलता आई |
प्रयत्न है सफलता की कुंजी 
पर मिलेगा कितना
  होता सब  पूर्व नियोजित 
उसी ओर खिंचता  जाता
प्रारब्ध उसे जहां ले जाता 
कठपुतली सा नाचता 
भाग्य नचाने वाला होता
हो जाती बुद्धि भी वैसी 
जैसा ऊपर वाला चाहता|
कभी जीत का साथ देता 
कभी हार  अनुभव करवाता 
मिटाए नहीं मिटतीं 
लकीरें हाथ की
श्वासों की गति तीव्र होती 
एकाएक धीमी हो जाती 
कभी  थम भी जाती
जन्म से मृत्यु तक \
सब  पूर्व नियोजित होता 
हर सांस का हिसाब होता
उसका लेखा जोखा होता
शायद यही प्रारब्ध होता |
आशा






22 मार्च, 2012

परोपकार करते करते

रात अंधेरी गहराता तम
 सांय सांय करती हवा 
सन्नाटे में सुनाई देती 
भूले भटके आवाज़ कोइ 
अंधकार  में उभरती 
निंद्रारत लोगों में कुछ को
 चोंकाती विचलित कर जाती 
तभी हुआ एक दीप प्रज्वलित 
तम सारा हरने को 
मन में दबी आग को
 हवा देने को 
लिए  आस हृदय में 
रहा व्यस्त परोपकार में
जानता है जीवन क्षणभंगुर 
पर सोचता रहता अनवरत
जब सुबह होगी 
आवश्यकता उसकी न होगी 
यदि कार्य अधूरा छूटा भी
एक नया दीप जन्म लेगा 
प्रज्वलित होगा 
शेष कार्य पूर्ण करेगा 
सुखद भविष्य की
 कल्पना में खोया 
आधी  रात बाद सोया 
एकाएक लौ तीव्र हुई 
कम्पित  हुई 
इह लीला समाप्त हो गयी 
परम ज्योति में विलीन हो गयी |

आशा