12 मई, 2012

अंतर्प्रवाह


कई विधाएं जीवन की
धाराओं में सिमटीं
संगम में हुईं  एकत्र
प्रवाहित हुईं
लिया रूप नदिया का 
 विचारों की नदिया सतत
बहती निरंतर
 भाव नैया में बैठ
चप्पू चलाए शब्दों के
कई बार हिचकोले खाए
नाव डगमगाई
 उर्मियों की बाहों में
फिर भी तट तक पहुच पाया
ना खोया  अंतर्प्रवाह में
प्रतिबन्ध लगे
निष्काषित हुआ
सहायता भी ना मिल पाई
भटका यहाँ वहाँ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
कई सवालिया चिन्ह लगे
बात बढ़ी बहस छिड़ी

तब भी कहीं ना  रुक पाया
विचारों की सरिता में फिर से
प्रवाह मान  ऐसा हुआ
 विचार व्यक्त करने से
स्वयं को ना रोक पाया |
आशा






09 मई, 2012

आँखें नम ना करना


निकली जो आहें  दिल से
पहुंचे यदि तुम तक मत  सुनना
मेरे दिल सा तुम्हारा दिल भी टूटे ना
तपती धूप में भी 
तुम्हारे पैर कभी जलें ना
अंधकार में भी भय तुम्हें हो ना
सुकून तुम्हें  ना दे पाऊँ 
ऐसा  कभी हो ना
मेरे जैसा सोच तुम्हारा
 निराशा लिए हो ना
रात्रि में साम्राज्य 
अनिद्रा का कभी हो ना
छू ना पाए कभी उदासी
कांटे भी दामन तुम्हारा
 छू पाएं  ना
झूटी कसमें झूठे वादों का 
भरम तुम्हे हो ना
करना ना स्वीकार 
कभी ऐसा  बंधन
जो स्वीकार्य तुम्हें हो ना
 कारण मेरी उदासी का खोजना ना
जान भी लो तो कभी
 सच मानना ना
 रख के दूर उसे खुद से 
नृत्य देखना मोर का
पर उसके आंसुओं पर जाना ना
उसके पैरों में
 पायल हैं या नहीं
या कहीं गुम हो गईं सोचना ना
कोयल सी कुहुकती रहना
वन उपवन महकाना
दुःख के सागर में खो
 आँखें नम ना करना |
आशा 

06 मई, 2012

महिमा अति की

रसना रस में पगी 
शब्दों में मिठास घुली 
आल्हादित मन कर गयी 
सुफल सकारथ कर गयी
पर अति मिठास से 
कानों में जब मिश्री घुली 
हुआ संशय मन में
पीछे  से कोई वार न कर जाए 
अति मिठास कडवी लगी 
दरारें दिल में दिखीं 
तभी जान पाए 
महिमा अति की |
सच  ही कहा था किसी ने
"अति सर्वत्र वर्ज्यते"
पर तब केवल पढ़ा था
आज उसे देख पाए |
आशा


04 मई, 2012

बंधन

 
 ये  घुंघरू बंधन  पैरों के
 ना पहले बजे ना आज
डाले गए  पायलों में
फिर भी बेआवाज
हें ना जाने क्यूँ मौन ?
शायद इसलिए कि
पहनने वाली भी रहती मौन
भाग्य सराहा जाता उसका
होती चर्चा रूप की
सजे पैर पायलों से
यूँ तो आकर्षित करते
घुँघरू तब भी रहते मौन
कोई नहीं जानता
मुराद उसके मन की
रहती सदा अपूर्ण
निराशा ने डेरा डाला
उदासी से पड़ा पाला
 है परकटे पक्षी सी
कैद चार दीवारी में
उड़ नहीं सकती
 है परतंत्र  इतनी
मन की कह नहीं सकती
सोच नहीं पाती
 घर के बाहर भी
 है एक और  जहाँ
ग़मों के अलावा भी
 हैं खुशियाँ वहाँ
 प्रारब्ध का यह खेल कैसा
या फल अनजाने कर्मों का
सब को  सहन करना
आदत सी हो गयी है
ओढ़े आवरण दिखावे का
दिन तो कट ही जाते हैं
है यह कैसा बंधन
लोग ऐसे भी जी लेते हैं |
asha 



30 अप्रैल, 2012

जो मैं भी समझ ना पाया

मनचाहा कह ना पाया 
जो कहा हो ना पाया 
जो भी हुआ 
पचा  ना पाया 
हुए  विद्रोह के स्वर प्रस्फुटित 
वे सारे वार भी 
झेल  ना पाया
किसी ने   मेरा
साथ ना दिया 
सिरे से नकार दिया 
तब धीरे से 
अनकही बातें मन की 
उजागर होने लगीं 
लोगों की समझ से परे 
कई विचार 
उलझे से उपजे 
अन्तर्निहित रहस्य तब भी 
प्रगट नहीं कर पाया 
गहन चिंतन  में खोया 
अपने में सिमट गया 
सार नहीं जब कोई निकला 
अंतर्मुखी हो गया 
लोगों का जब ध्यान गया 
उन सारी बातों पर सोचा 
किसी हद तक उन्हें समझा 
जो मैं भी ना  समझ पाया |
आशा



28 अप्रैल, 2012

बांसुरी

प्राण फूंके कान्हां ने 
बांस की पुगलिया में
बाँसुरी बन कर बजी
ब्रज मंडल की गलियों में
अधरामृत से कान्हां के
 स्वर मधुर उसके हुए
गुंजित हुए सराहे गए
कोई सानी  नहीं उनकी
गोपियाँ खींची चली आतीं
उसकी स्वर लहरी पर
सुधबुध खो रास रचातीं
कान्हां पर बलि बलि जातीं
जमुना तट पर कदम तले
मोह देख कान्हा का
उस बांस की पोंगली से
राधा  जली ईर्ष्या से भरी
बरजोरी की कन्हैया से
छीना उसे और छिपा आई
हाथ जोड़ मिन्नत करवाई
तभी बांसुरी लौटाई
उसे देख कान्हां के संग
ईर्ष्या कम ना हो पाई
वह सौतन सी  नजर आई |
आशा 





25 अप्रैल, 2012

लीन विचारों में




कुछ उलझे से लीन विचारों में
  गर्दन नीची कर बढ़ते
भेड़ों के झुण्ड में जाती एक भेड़ से
चरते सूखी घास पीछे मुड़ नहीं पाते
 सोच  समझ भी खो देते
 उस भेड़ चाल में
 हो  विद्रोही सहनशीलता तज देते
 पर  कभी मेमने के स्वर से
कानों में मिश्री घोलते
अस्थिरता मन की बढ़ती जाती
सुख शान्ति चैन  सब हर लेती 
कुंद बुद्धि होती जाती
जाने वह दिन कब होगा
समृद्धि की बयार बहेगी
जिंदगी सही पटरी पर होगी
लेखनी अवरूद्ध ना होगी
हैं जाने कैसे लोग
कथनी और करनी की
खाई पाट  नहीं पाते
लिखते हैं बहुत कुछ
पर मनोभाव तक पढ़ न पाते
सीमा साहित्य की छू नहीं पाते
नया सोच नई विधाएं अपनाते
क्या बदलाव ला पाएंगे
दर्पण समाज का बन पाएंगे
विष बेल विषमता की
समूल नष्ट कर पाएंगे
जाने कब परिवर्तन होगा
भेड़ चाल से पा छुटकारा
लिखने की स्वतंत्रता होगी
वर्तनी समाज का दर्पण होगी |
आशा