19 मई, 2012

सीमेंट के इस जंगल में


सीमेंट के इस जंगल में
चारों ओर दंगल ही दंगल
वाहनों की आवाजाही
भीड़ से पटी सड़कें
घर हैं या मधुमक्खी के छत्ते
अनगिनत लोग रहते
एक ही छत के नीचे
रहते व्यस्त सदा
रोजी रोटी के चक्कर में
आँखें तरस गयीं
हरियाली की एक झलक को
कहने को तो पेड़ लगे हैं
पर हैं सब प्लास्टिक के
हरे रंग से पुते हुए
दिखते सब असली से
नगर सौन्दरीकरण के नाम पर
जाने कितना व्यय हुआ
पर वह बात कहाँ
जो है प्रकृति के आंचल में
सांस लेने के लिए भी
सहारा कृत्रिम वायु का 
 ठंडक के लिए सहारा
 कूलर और ए.सी. का
है आज की जीवन शैली
इन बड़े शहरों की
सीमेंट सरियों से बने
इस जंगल के घरोंदों की
और वहा  रहने वालों की |
आशा


17 मई, 2012

यूँ ही जिए जाता हूँ

दरकते रिश्तों का 
कटु अनुभव ऐसा 
हो कर मजबूर 
उन्हें साथ लिए फिरता हूँ 
है केवल एक दिखावा 
दिन के उजाले में 
अमावस्या की रात का 
आभास लिए फिरता हूँ 
इस टूटन की चुभन 
और गंध पराएपन की 
है गंभीर इतनी 
रिसते घावों को 
साथ सहेजे रहता हूँ 
नासूर बनते जा रहे 
इन रिश्तों की 
खोखली इवारत की 
सूची लिए फिरता हूँ
स्पष्टीकरण हर बात का 
देना आदत नहीं मेरी 
गिले शिकवों के लिए भी 
बहुत देर हो गयी 
बड़ी बेदिली से 
भारी मन से 
उन सतही रिश्तों को 
सहन करता हूँ 
हूँ बेजार बहुत
पर यूँ ही जिए जाता हूँ |
आशा

14 मई, 2012

नीड़

वृक्ष पर एक घोंसला 
था कभी गुलजार 
कहीं से एक पक्षी आया 
चौंच डाल उसमें 
नष्ट उसे करना चाहा 
पर वह चूक गया 
असफल रहा 
चिड़िया ने आवाज उठाई 
चौच मार आहात किया 
उसे  बहुत भयभीत किया 
वह डरा या थी मजबूरी 
वह चला गया 
नीड़ देख आहात हुई 
चिंता में डूबी सोच रही 
क्यूं ना इसे इतना 
मजबूत बनाऊं 
फिर से कोई क्षति ना हो
आने वाली पीढ़ी इसे
 और अधिक मजबूती दे 
 कभी ना  हो  नुकसान  इसे
वह तो दुनिया छोड़ गयी 
संताने लिप्त निजी स्वार्थ में 
आपस में लडने मरने लगीं
 चौच मारती आहात करतीं 
पर नीड़ की चिंता नहीं
भूले अपनी जन्म स्थली 
माँ की नसीहत भी भूले 
कई सुधारक आये भी 
पर कुछ ना कर पाए 
आज भी वह लटका है
 जीर्ण क्षीण अवस्था में
उसी वृक्ष की टहनी पर |
आशा


12 मई, 2012

अंतर्प्रवाह


कई विधाएं जीवन की
धाराओं में सिमटीं
संगम में हुईं  एकत्र
प्रवाहित हुईं
लिया रूप नदिया का 
 विचारों की नदिया सतत
बहती निरंतर
 भाव नैया में बैठ
चप्पू चलाए शब्दों के
कई बार हिचकोले खाए
नाव डगमगाई
 उर्मियों की बाहों में
फिर भी तट तक पहुच पाया
ना खोया  अंतर्प्रवाह में
प्रतिबन्ध लगे
निष्काषित हुआ
सहायता भी ना मिल पाई
भटका यहाँ वहाँ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
कई सवालिया चिन्ह लगे
बात बढ़ी बहस छिड़ी

तब भी कहीं ना  रुक पाया
विचारों की सरिता में फिर से
प्रवाह मान  ऐसा हुआ
 विचार व्यक्त करने से
स्वयं को ना रोक पाया |
आशा






09 मई, 2012

आँखें नम ना करना


निकली जो आहें  दिल से
पहुंचे यदि तुम तक मत  सुनना
मेरे दिल सा तुम्हारा दिल भी टूटे ना
तपती धूप में भी 
तुम्हारे पैर कभी जलें ना
अंधकार में भी भय तुम्हें हो ना
सुकून तुम्हें  ना दे पाऊँ 
ऐसा  कभी हो ना
मेरे जैसा सोच तुम्हारा
 निराशा लिए हो ना
रात्रि में साम्राज्य 
अनिद्रा का कभी हो ना
छू ना पाए कभी उदासी
कांटे भी दामन तुम्हारा
 छू पाएं  ना
झूटी कसमें झूठे वादों का 
भरम तुम्हे हो ना
करना ना स्वीकार 
कभी ऐसा  बंधन
जो स्वीकार्य तुम्हें हो ना
 कारण मेरी उदासी का खोजना ना
जान भी लो तो कभी
 सच मानना ना
 रख के दूर उसे खुद से 
नृत्य देखना मोर का
पर उसके आंसुओं पर जाना ना
उसके पैरों में
 पायल हैं या नहीं
या कहीं गुम हो गईं सोचना ना
कोयल सी कुहुकती रहना
वन उपवन महकाना
दुःख के सागर में खो
 आँखें नम ना करना |
आशा 

06 मई, 2012

महिमा अति की

रसना रस में पगी 
शब्दों में मिठास घुली 
आल्हादित मन कर गयी 
सुफल सकारथ कर गयी
पर अति मिठास से 
कानों में जब मिश्री घुली 
हुआ संशय मन में
पीछे  से कोई वार न कर जाए 
अति मिठास कडवी लगी 
दरारें दिल में दिखीं 
तभी जान पाए 
महिमा अति की |
सच  ही कहा था किसी ने
"अति सर्वत्र वर्ज्यते"
पर तब केवल पढ़ा था
आज उसे देख पाए |
आशा


04 मई, 2012

बंधन

 
 ये  घुंघरू बंधन  पैरों के
 ना पहले बजे ना आज
डाले गए  पायलों में
फिर भी बेआवाज
हें ना जाने क्यूँ मौन ?
शायद इसलिए कि
पहनने वाली भी रहती मौन
भाग्य सराहा जाता उसका
होती चर्चा रूप की
सजे पैर पायलों से
यूँ तो आकर्षित करते
घुँघरू तब भी रहते मौन
कोई नहीं जानता
मुराद उसके मन की
रहती सदा अपूर्ण
निराशा ने डेरा डाला
उदासी से पड़ा पाला
 है परकटे पक्षी सी
कैद चार दीवारी में
उड़ नहीं सकती
 है परतंत्र  इतनी
मन की कह नहीं सकती
सोच नहीं पाती
 घर के बाहर भी
 है एक और  जहाँ
ग़मों के अलावा भी
 हैं खुशियाँ वहाँ
 प्रारब्ध का यह खेल कैसा
या फल अनजाने कर्मों का
सब को  सहन करना
आदत सी हो गयी है
ओढ़े आवरण दिखावे का
दिन तो कट ही जाते हैं
है यह कैसा बंधन
लोग ऐसे भी जी लेते हैं |
asha