16 जुलाई, 2012

प्यासा मन


प्यासी धरती प्यासा सावन
प्यासा पपीहे का तन मन
घिर आई काली बदरिया
पर वह न आए आज तक
आगमन काली घटाओं का
नन्हीं जल की बूंदों  का
हरना चाहता ताप तन मन का
पर यह हो नहीं पाता
अब है हरियाली ही हरियाली
जहाँ तक नजर डाली
भीगे भीगे से सनोवर
उल्लसित होते सरोवर
फिर भी विरहणी की उदासी
कम होने का नाम न लेती
जब पिया का साथ न होगा
प्यासा मन प्यासा ही रहेगा |
आशा


14 जुलाई, 2012

बढ़ते चरण महगाई के

सुरसा राक्षसी

बढ़ते चरण मंहगाई के
जीना दुश्वार कर रहे
आज है यह हाल जब
कल की खबर किसे रहे
यादें सताती है
कल के खुशनुमा दिनों की
मन पर अंकुश तब भी था
पर हर वस्तु लेना संभव था |
बात आज की क्या करें
ना तो  नियंत्रण मन पर
ना ही चिंता भविष्य की
‘बस इस पल में जी लें ‘
है अवधारणा आज की
 है हाल बुरा मंहगाई का
अंत नजर ना आता इसका
सुरसा का मुँह भी लगता छोटा
इसका कोई हल ना होता |

आशा









12 जुलाई, 2012

जज्बा प्यार का



भावनाएं हो तरंगित
लेती हिलोरें मन में
जल में उठती लहरों सी
होती तरंगित दौनों ओर
सामान रूप से
जब होती आंदोलित
बांधती उन्हें
अगाध प्रेम के बंधन में
छोड़ती अमित छाप
अग्रसर होते जीवन में
यही है जज्बा प्यार का
बंधन होता इतना प्रगाढ़
कोई प्रलोभन
कोई आकर्षण
या यत्न इसे डिगाने के
बंधन तोड़ नहीं पाते
सभी विफल हो जाते
सरल नहीं इसे भुलाना
छिप जाता है
अंतस के किसी कौनेमें
हो यदि अलगाव
उससे उत्पन्न वेदना
असहनीय होती
मन में कसक पैदा करती
यही बेचैनी यही कसक
सदैव ही बनी रहती
कहानी प्यार की
अधूरी ही रह जाती |
आशा


10 जुलाई, 2012

कैसी संस्कृति


आलीशान अट्टालिकाएं
गगनचुम्बी इमारतें बहुमंजिली
विभिन्न वर्ग यहाँ पलते
साथ साथ रहते
भूल् गए  कहाँ से आए ?
हैं कौन ?क्या थे?
और क्या संसकृति उनकी ?
बस एक ही संसकृति महानगर की
दिखाई देती यहाँ वहाँ |
हैं व्यस्त इतने कि
घर पर ध्यान नहीं देते
छोटे मोटे काम भी
स्वयंनहीं करते  |
इन्हीं के बल पल रही
पास ही झोंपड़पट्टी
नारकीय जीवन जीते
 यहाँ के रहवासी |




कचरे के अम्बार में से
कुछ खोजते एकत्र करते
सहेजत बच्चे
पौलीथीन के थैले में |
कर्मठता से खुश हो
शाम पड़े जाते
पाते कुछ पैसे कवाड़ी से
उस कवाड़ के बदले में |
महिलाएं प्रातः रुख करतीं
नगर की ओर
और हो जातीं हिस्सा
उसी संसकृति का |
पैसा हर काम का मिलता
पर जीवन सत्व निचोड़ लेता
जब शाम पड़े बापिस आतीं
फटी टूटी कथरी ही
सबसे बड़ी नियामत लगती
थकी हारी वे सो जातीं
गहरी नींद के आगोश में
तभी वहाँ एक वर्ग जागता रहता
कभी नशे में धुत्त रहता
किसी गुनाह को अंजाम देता
उसे ही अपना कर्म समझता
आय का स्त्रोत समझता
यहाँ पनपते कई गुनाह
साए में अन्धकार के
आकंठ डूबे वे नहीं जानते
क्या होगा अंजाम ?
बस आज में जीते हैं
कल की चिंता नहीं  पालते |


आशा

08 जुलाई, 2012

यूं ही नहीं जीता

यूँही नहीं जीता
पीता हूँ ग़म भुलाने के लिए
जीता हूँ पीने के लिए
 दर्देदिल छिपाने के लिए |
मदहोश कदम आगे जाते
वहीँ जा कर रुक जाते
होते अधीर अतृप्त अधर
और अधिक की चाहत रखते
ग़म भुलाने की लालसा
यहाँ तक खींच लाई
 ना हाला हलक तर कर पाई
ना ही साकी बाला आई |
लहराता झूमता झामता
नितांत अकेला
निढाल सा गिरता सम्हलता
पर सहारा किसी का न पाता |
फबतियां कानों में पडतीं
आदतन है शराबी
घर फूँक वहीँ आता
जहाँ अपने जैसे पाता |
सच कोई नहीं जानता
हालेदिल नहीं पहचानता
 छींटाकशी शूल सी चुभती 
फिर भी उसी ओर जाता
आशा 



07 जुलाई, 2012

शासन की डोर न सम्हाल सके


शासन की डोर न सम्हाल सके
सारे यत्न असफल रहे
मोह न छूटा कुर्सी का
 क्यूंकि लोग सलाम कर रहे |
ना रुकी मंहगाई
ना ही आगे रुक पाएगी
अर्थ शास्त्र के नियम भी
सारे  ताख में रख दिए |
अर्थशास्त्री बने रहने की लालसा
फिर भी बनी रही
जहाँ भी कोशिश की
पूरी तरह विफल रहे |
सत्ता से चिपके रहने की
भूख फिर भी न मिटी
कुर्सी से चिपके रहे
बस नेता हो कर रह गए |
आशा

02 जुलाई, 2012

पहली फुहार


टपकता पसीना
सूखे नदी नाले
सूखे सरोवर सारे
पिघलते हिम खंड
कराते अहसास गर्मीं का
हैं बेहाल सभी
बेसब्री से करते
इन्तजार जल प्लावन का
छाई घन घोर  घटाएं
वारिध भर लाए जल के घट
उनसे बोझिल वे आपस में टकराते
गरज गरज जल बरसाते
दामिनी दमकती
 हो सम्मिलित खुशी में
नभ में आतिशबाजी होती
झिमिर झिमिर बूँदें झरतीं |
मौसम की पहली बारिश से
धरती भीगी अंचल भीगा
मिट्टी की सौंधी खुशबू से
मन का कौना कौना महका |


 दादुर मोर पपीहा बोले
वन हरियाए उपवन सरसे
गर्मीं की हुई विदाई
चारों ओर हरियाली छाई |




आशा