31 अक्तूबर, 2012

वे दिन



वे दिन भी क्या दिन थे, उनकी धुंधली याद |
अधूरा सा जीवन था ,रहा न कोइ साथ  ||

 रहता भी तो क्या करता ,था जीवन बेकार
अहसास न था प्यार का , और धीमी  रफ्तार || 

 तुम्हें मैंने जान लिया, पहचाना पा पास
दुःख सुख तो आते रहते ,था  तुझ पर  विश्वास ||


 चलता सदा काल चक्र , और समय बलवान |
  पिंजर से होते ही मुक्त  ,दुःख का होगा त्राण ||
आशा 

28 अक्तूबर, 2012

रोज एक धमाका


पेपर  में कुछ नया नहीं
 है मिडीया भी बेखबर नहीं
नित नए घोटाले
उनपर बहस और आक्षेप
केवल छींटाकशी और
आपस में दुर्भाव
कोइ नहीं बचा इससे
यदि थोड़ी भी शर्म बची होती
इतने घोटाले न होते
उंसके  खुलासे न होते
मुंह पर स्याही न पुतती
कोइ तो बचा होता
बेदाग़ छवि जिसकी होती
श्वेत वस्त्रों पर दाग
गुनाहों के ,न होते
रोज एक धमाका होता है
किसी घोटाले का खुलासा होता है
टी .वी .पर बहस या चर्चा
लगती गली के झगडों सी
शोर में गुम हो जाता है
क्या मुद्दा था बहस का
कई बार शर्म आती यही सोच कर
ये कैसे पढ़े लिखे हैं
सामान्य शिष्टाचार से दूर
अपनी बात कहने का
 और दूसरों को सुनने का 
 धैर्य भी नहीं रखते
शोर इतना बढ़ जाता कि
आम दर्शक ठगा सा रह जाता
सोचने को है बाध्य
क्या लाभ ऐसी बहस का
जिसका कोइ  ओर ना छोर
यूँ ही समय गवाया
कुछ भी समझ न आया
सर दर्द की गोली का
 खर्चा और बढ़ाया |
आशा





 

27 अक्तूबर, 2012

शुभकामनाएं ईद के शुभावसर पर |


ईद के शुभ अवसर पर आप सब को हार्दिक शुभ कामनाएं |
 एक डाल के दो पत्ते 
फिर  भी रहे न कभी जुदा
सभी त्यौहार मिल  कर मनाते
हिलमिल कर मिठाई खाते |
प्यार अनवरत बढता जाता
खुशियाँ हर त्यौहार लाता |
आशा


26 अक्तूबर, 2012

पर भूली संस्कार

कौन पिता कैसा पिता ,समझाना बेकार |
बहकावे में चाहत के ,माँ का भूली प्यार  ||

षोडसी प्यारी  दीखती , पर भूली   संस्कार |
दिन में सपने देखती ,कुछ कहना है  बेकार ||

अनजान डगर पर चली ,सारे बंधन तोड़ |
ढलान पर पैर फिसले ,राह न पाई मोड़ ||

वात्सल्य आहत हुआ ,लगा गहन आघात |
देख कर दुर्दशा उसकी ,मन को हुआ संताप ||

पुष्प  कुञ्ज में विचरती ,मुखडा लिए उदास |
स्नेह भरे स्पर्श का ,खो बैठी अधिकार ||
आशा






22 अक्तूबर, 2012

मुझे श्री रूपचंदशास्त्री (‘मयंक’)के द्वारा लिखी गयी मेरी पुस्तक "अन्तः प्रवाह "की समीक्षा को आप सब के साथ बाटते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है |आशा है आपसब पाठक  भी उसका आनंद ले सकेंगे |


मन के प्रवाह का संकलन है अन्तःप्रवाह
   कुछ दिनों पूर्व ख्यातिप्राप्त कवयित्री स्व. ज्ञानवती सक्सेना की पुत्री श्रीमती आशालता सक्सेना के काव्य संकलन अन्तःप्रवाह की प्रति की मुझे डाक से मिली थी। जिसको आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अन्तःप्रवाहउनके मन के प्रवाहों का संकलन है। 
  इस संकलन की भूमिका विक्रम विश्वविद्यालय, उजैन के प्राचार्य डॉ. बालकृष्ण शर्मा ने लिखी है। यह श्रीमती आशालता सक्सेना का द्वितीय रचना संकलन है और इसमें अपनी 84 कविताओं को उन्होंने स्थान दिया है। कवयित्री ने कीर्ति प्रिंटिंग प्रैस, उज्जैन से इसको छपवाया है जिसकी प्रकाशिका वो स्वयं ही हैं। एक सौ दस पृषठों के इस संकलन का मूल्य उन्होंने 200/- मात्र रखा है। इससे पूर्व इनका एक काव्य संकलन अनकहा सच भी प्रकाशित हो चुका है।
    कवयित्री ने इस काव्यसंग्रह के अपनी ममतामयी माता सुप्रसिद्ध कवयित्री स्व. डॉ. (श्रीमती) ज्ञानवती सक्सेना किरण को समर्पित किया है। अपनी शुभकामनाएँ देते हुए शासकीय स्नातकोत्तर शिक्षा महाविद्यालय, भोपाल से अवकाशप्राप्त प्राचार्या सुश्री इन्दु हेबालकर ने लिखा है-
कवयित्री ने काव्य को सरल साहित्यिक शब्दों में अभिव्यक्त कर पुस्तक अन्तःप्रवाह को प्रभावशाली बनाया है। आपको हार्दिक आशीर्वाद। इसी प्रकार लिखती रहें और एक छोटी पतंग, रंबिरंगी न्यारी-न्यारी उड़ाती रहें।
     श्रीमती आशालता सक्सेना ने अपनी बात कहते हुए लिखा है-
मैं काफी समय से कम्प्यूटर से जुड़ी हुई हूँ अपने ब्लॉग आकांक्षा Akankshaपर अपनी रचनाएँ लगाती हूँ। अंग्रेजी भाषा में भी लेखनकार्य करती हूँ.... आस-पास की छोटी-छोटी घटनाएँ मुझे प्रभावित करती हैं। मैं एक संवेदनशील और भावुक महिला हूँ। मन में उमड़ते विचारों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए मैंने कविता लेखन को माध्यम बनाया है...।
कवयित्री ने अन्तःप्रवाह की शीर्षक रचना को पहली कविता के रूप मे स्थान दिया है, जिसमें उन्होंने लिखा है-
..नाव जगमगाई

उर्मियों की बाहों में
फिर भी तट तक पहुँच पाया
ना खया अन्तःप्रवाह में...
      अपनी कविताओं में श्रीमती आशालता सक्सेना जी ने बरसात के बारे में लिखा है-
हरी-भरी वादी में

लगी जोर की आग
मन ने सोचा
जाने क्या होगा हाल
फिर जोर से चली हवा
उमड-घुमड़ बादल बरसा
सरसा तब संसार...
    "अन्तःप्रवाह" में कवयित्री की बहुमुखी प्रतिभा की झलक दिखाई देती है। ज़िन्दगी के बारे में वे लिखतीं हैं-
यह ज़िन्दगी की शाम

अजीब सा सोच है
कभी है होश
कभी खामोश है...
    एक ओर जहाँ इन्होंने नफरत, प्रतीक्षा, अतीत, शब्द, नीड़, अजनबी, अवसाद, बन्धन, आतंक, भटकाव, अफवाहें, अहंकार आदि विषयों को   अपनी रचना का विषय बनाया है, तो दूसरी ओर बहार, बाँसुरी, मन का सुख, बेटी, पतंग, होली, दीपावली, सपनों आदि के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में विस्तार मिला है। वे अपने परिवेश की सामाजिक समस्याओं पर भी अपनी लेखनी चलाई है
    बेटी के बारे में वे लिखतीं हैं-
बेटी अजन्मी सोच रही

क्यूँ उदास माँ दिखती है
जब भी कुछ जानना चाहूँ
यूँ ही टाल देती है
रह न पाई
कुलबुलाई
समय देख प्रशन दागा
क्या तुम मुझे नहीं चाहती...
   सहनशीलता के बारे में कवयित्री लिखती है-
रल नहीं सहनशील होना

इच्छा शक्ति धरा सी होना
नहीं दूर अपने कर्तव्य से...
मृगतृष्णा पर प्रकाश डालते हुए कवयित्री कहती है-
जल देख आकृष्ट हुआ
घंटों बैठ अपलक निहारा
आसपास था जल ही जल
जगी प्यास बढ़ने लगी
खारा पानी इतना
कि बूँद-बूँद जल को तरसा
गला तर न कर पाया
प्यासा था प्यासा ही रहा...
मन की ऊहापोह के बारे में कवयित्री लिखती है-
मन चाहता है
कुछ नया लिखूँ
क्या लिखूँ
कैसे लिखूँ
किसपर लिखूँ
हैं प्रश्न अनेक
पर उत्तर एक
प्रयत्न करूँ
प्रयत्न करूँ.."
अंग्रेजी की प्राध्यापिका होने के बावजूद कवयित्री ने हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग व्यक्त करते हुए लिखा है-
 “भाषा अपनी
भोजन अपना
रहने का अंदाज अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बँधे एक सूत्र से
.....
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा
....
सरल-सहज
और बोधगम्यता लिए
शब्दों का प्रचुर भण्डार
हिन्दी ही तो है...
नयनाभिराम मुखपृष्ठ, स्तरीय सामग्री से सुसज्जित यह काव्य संकलन स्वागत योग्य है। आम आदमी की भाषा में लिखी गयीं सभी रचनाएँ कवयित्री ने संवेदनशीलता के मर्म में डूबकर लिखी हैं। आशा है कि आशालता जी का अन्तःप्रवाह पाठकों के मन में गहराई से अपनी पैठ बनायेगा।
इस सुबोधगम्य और पठनीय काव्यसंग्रह के लिये श्रीमती आशालता सक्सेना को मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
खटीमा (उत्तराखण्ड) पिन-262308
सम्पर्क-09368499921,
वेबसाइट-http://uchcharan.blogspot.in/