30 नवंबर, 2012

आधा तीतर आधा बटेर

जाग जाग रातें  काटीं
मुश्किलें  किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
  मंहगाई का बखान
रात  में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ  न मिला पाया
भ्रष्टाचार  के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब  भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह  तुम्हारे बस  का नहीं
क्यूँ  की तुम
 आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो  काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा




27 नवंबर, 2012

आज याद आया





आज याद आया
 वह किस्सा पुराना
जो ले गया उस मैदान में
जहां बिताई कई शामें
 गिल्ली डंडा खेलने में
कभी मां ने समझाया
कभी डाटा धमकाया
पर कारण नहीं बताया |
मैंने सोचा क्यूँ न खेलूँ
अकारण हर बात क्यूँ मानू ?
इसी जिद ने थप्पड़ से
स्वागत भी करवाया
रोना धोना काम न आया
माँ का कहना
वी .टो. पावर हुआ
वहाँ जाना बंद हो गया 
घर में कैरम  शुरू हुआ
आज सोचती हूँ
 कारण क्या रहा होगा
जाने कब सयानी हुई
मुझे याद नहीं |

25 नवंबर, 2012

उलझन


कई  बार विचारों में उलझी
पग आगे बढाए पर हिचकिचाए
थम गए एक मोड पर अकारण
उलझन बढ़ी आशंका जन्मी
कहीं कोइ अनर्थ न हो जाए
मन पर से जाला झटका
मार्ग प्रशस्त किया अपना
पर बिल्ली राह काट गयी
झुक कर एक पत्थर उठाया
आगे फेंक आगे बढ़ी 
एकाएक  छींक आ गयी
शुभ अशुभ के चक्र में फसी
अनजाना भय  हावी हुआ
मन को बार बार समझाया
पर वह स्थिर न हो पाया
सोचा बापिस लौट चलूँ
फिर खुद पर ही हंसी आई
इतना पढना व्यर्थ लगा
यदि वहम से न  बच पाई
मन कडा कर चल पड़ीं
बेखौफ मंजिल तक पहुँची 
अंधविश्वास  से ना घिरी |
आशा

21 नवंबर, 2012

कारण ?

सुबह से शाम तक 
गुमसुम बैठी उदास 
अकारण क्रोध की आंधी 
पूरा धर हिला जाती 
पर  कारण खोज न पाती 
कितनी बार खुद को टटोला 
रहा अभियान नितांत खोखला 
कारण की थाह न पाई 
खुद की कमीं नजर न आई 
हूँ वही जो कभी खुश रहती थी 
कितनी भी कडवाहट  हो 
गरल सी गटक लेती थी
उसे भुला देती थी 
पर  अब बिना बात 
उलझाने  लगती 
कटुभाषण  का वार
 अनायास उन  पर
 जिनका दूर दूर तक 
कोइ भी न हो वास्ता 
बाध्य  करता सोचने  को 
हुआ ऐसा क्या की 
अनियंत्रित मन रहने लगा 
कटुभाषण  हावी हुआ 
बहुत सोचा तभी जाना 
अक्षमता शारीरिक 
मन पर हावी हुई 
असंतोष का कारण हुई |
आशा







20 नवंबर, 2012

परिवर्तन मौसम का

सर्दी का अहसास लिए सोए थे 
पौ फटे जब नींद खुली 
आलस था खुमारी थी 
जैसे ही कदम नीचे रखे 
दी दस्तक ठिठुरन ने
घर के कौने कौने में 
सोचा न था होगा परिवर्तन 
इतने  से अंतराल में 
हाथों में पानी लेते ही 
कपकपी होने लगी 
गर्म प्याली चाय की 
दवा रामबाण नजर आई 
जल्दी से स्वेटर पहना 
कुछ तो गर्मी आई 
खिडकी से बाहर झांका 
समय रुका नहीं था 
थी वही गहमागहमी
बस  जलता अलाव चौरस्ते पर 
कुछ लोगों में बच्चे भी थे 
जो अलाव ताप रहे थे 
थे पूर्ण अलमस्त 
हसते थे हंसा रहे थे 

खुशियों से महरूम नहीं 
 किसी मौसम का प्रभाव नहीं 
जीने का नया अंदाज
वहीं   नजर आया 
सारी  उलझनें सारी कठिनाई 
अलाव में भस्म हो गईं
थी केवल मस्ती और शरारतें 
कर लिया था सामंजस्य 
प्रकृति में  होते परिवर्तन से |
काश हम भी उनसे हो पाते 
तब नए अंदाज में नजर आते |
|
आशा


16 नवंबर, 2012

आत्म संतोष



पहले भी रहे असंतुष्ट
आज भी वही हो
पहले थे अभाव ग्रस्त
पर आज सभी सुविधाएं
 कदम चूमती तुम्हारे
फिर प्रसन्नता से परहेज क्यूं ?
कारण जानना चाहा भी
 पर कोइ सुराग न मिल पाया
परन्तु मैंने ठान लिया
कारण खोजने के लिए
तुम्हें टटोलने के लिए |

जानते  हो तुम भी
सभी इच्छाएं पूर्ण नहीं होतीं
समझोते भी करने होते हैं
परिस्थितियों से ,
 यह भी तभी होता संभव
जब स्वभाव लचीला हो
समय के साथ परिपक्व हो
कुंठा ग्रस्त न हो  |
चाहे जब खुश हो जाना
अनायास गुस्सा आना
 उदासी का आवरण ओढ़े
अपने आप में सिमिट जाना |
कुछ तो कारण होगा
जो बार बार सालता होगा
वही अशांति का कारण होगा
जो चाहा कर न पाए
कारण चाहे जो भी हो |
क्या सब को
 सब कुछ मिल पाता है ?
जो मिल गया उसे ही
अपनी उपलब्धि मान
भाग्य को सराहते यदि
 आत्मसंतुष्टि का धन पाते |
सभी पूर्वनिर्धारित  है
भाग्य से ज्यादा कुछ न मिलता
जान कर भी हो अनजान क्यूँ ?
हंसी खुशी जीने की कला
बहुत महत्त्व रखती है
 कुछ अंश भी यदि अपनाया
जर्रे जर्रे में दिखेगी
खुशियों की छाया
फिर उदासी तुम्हें छू न पाएगी
सफलता सर्वत्र  होगी |
आशा


13 नवंबर, 2012

कल बाल दिवस है (चानी)

देहरादून जेल में जब पंडित जवाहर लाल नेहरू अकेले होते थे जेल परिसर में  एक पेड़ के नीचे बैठ कर अक्सर अपनी बेटी को पत्र लिखा  करते थे |एक दिन एक गिलहरी बहुत पास आ गयी और जैसे ही उसे छूना चाहा बहुत तेजी से पेड़ पर चढ गयी |जब दाना खिलाया वह उनसे हिल गयी अब रोज उसी समय वह आती और दाना खाती उसे रोज देखना बहुत अच्छा लगता था |आज एकाएक मुझे वह कहानी याद आई अब आप सब के साथ जिसे बांटना चाहती हूँ ||
याद  आई एक कहानी 
देखी चानी पेड़ पर
चढती उतरती दाना खाती 
अपनी लंबी पूँछ हिलाती 
हाथ में दाना लिए 
उसे अपने पास बुलाया 
पहले हिचकिचाती 
पर हर रोज वहीं आती 
घंटों बैठ उसे निहारना
प्यार से  उसे सहलाना
हाथ से दाना खिलाना  
अपने आप में एक खेल बन गया
साथ उसका भला लगा 
उसकी फुर्ती उसकी चुस्ती 
मन में ऊर्जा भर जाती
कर्मठता  प्रेरित करती
कुछ न कुछ करने को
 निगाहें खोजती उसी को
जिसने  दिया सन्देश
चुस्ती ,फुर्ती ,निर्भयता का
 बन गयी आदर्श मेरा |
आशा