06 दिसंबर, 2012
03 दिसंबर, 2012
प्रभाव परिवर्तन का
मन शंकाओं से भरता जाता
यह परिवर्तन हुआ कैसे
छोर नजर नहीं आता
फिर भी परेशान नहीं हूँ
खोजना चाहती हूँ उसे
जो है असली कारक और कारण
इस होते परिवर्तन का
क्या देखा उसने ऐसा
जो खिचा चला आया
बिना जाने अपनापन जताया
कहीं से रिश्ता भी खोज लाया
वह कितना सही कितना गलत
यह तो नहीं मालूम
पर लगता कोई गहरा छिपा राज
अचानक प्रेम उमढने में
कहीं कोई धोखा तो नहीं
जो छल करे मेरे अनजाने में
मेरी ममता से भरे जीवन में
मुझे कोई भी परिवर्तन
रास नहीं आता
समाधान मन की शंका का
हो नहीं पाता|
आशा
मुझे कोई भी परिवर्तन
रास नहीं आता
समाधान मन की शंका का
हो नहीं पाता|
आशा
30 नवंबर, 2012
आधा तीतर आधा बटेर
जाग जाग रातें काटीं
मुश्किलें किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
मंहगाई का बखान
रात में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ न मिला पाया
भ्रष्टाचार के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह तुम्हारे बस का नहीं
क्यूँ की तुम
आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा
मुश्किलें किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
मंहगाई का बखान
रात में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ न मिला पाया
भ्रष्टाचार के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह तुम्हारे बस का नहीं
क्यूँ की तुम
आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा
27 नवंबर, 2012
आज याद आया
आज याद आया
वह किस्सा पुराना
जो ले गया उस मैदान में
जहां बिताई कई शामें
गिल्ली डंडा खेलने में
कभी मां ने समझाया
कभी डाटा धमकाया
पर कारण नहीं बताया |
मैंने सोचा क्यूँ न खेलूँ
अकारण हर बात क्यूँ मानू ?
इसी जिद ने थप्पड़ से
स्वागत भी करवाया
रोना धोना काम न आया
माँ का कहना
वी .टो. पावर हुआ
वहाँ जाना बंद हो गया
घर में कैरम शुरू हुआ
आज सोचती हूँ
कारण क्या रहा होगा
जाने कब सयानी हुई
मुझे याद नहीं |
25 नवंबर, 2012
उलझन
कई बार विचारों में उलझी
पग आगे बढाए पर
हिचकिचाए
थम गए एक मोड
पर अकारण
उलझन बढ़ी आशंका
जन्मी
कहीं कोइ
अनर्थ न हो जाए
मन पर से
जाला झटका
मार्ग
प्रशस्त किया अपना
पर बिल्ली
राह काट गयी
झुक कर एक
पत्थर उठाया
आगे फेंक आगे
बढ़ी
एकाएक छींक आ गयी
एकाएक छींक आ गयी
शुभ अशुभ के
चक्र में फसी
अनजाना भय हावी हुआ
मन को बार
बार समझाया
पर वह स्थिर
न हो पाया
सोचा बापिस लौट चलूँ
फिर खुद पर
ही हंसी आई
इतना पढना
व्यर्थ लगा
यदि वहम से
न बच पाई
मन कडा कर चल पड़ीं
मन कडा कर चल पड़ीं
बेखौफ मंजिल
तक पहुँची
अंधविश्वास से ना घिरी |
अंधविश्वास से ना घिरी |
आशा
21 नवंबर, 2012
कारण ?
गुमसुम बैठी उदास
अकारण क्रोध की आंधी
पूरा धर हिला जाती
पर कारण खोज न पाती
कितनी बार खुद को टटोला
रहा अभियान नितांत खोखला
कारण की थाह न पाई
खुद की कमीं नजर न आई
हूँ वही जो कभी खुश रहती थी
कितनी भी कडवाहट हो
गरल सी गटक लेती थी
उसे भुला देती थी
पर अब बिना बात
उलझाने लगती
कटुभाषण का वार
अनायास उन पर
जिनका दूर दूर तक
अनायास उन पर
जिनका दूर दूर तक
कोइ भी न हो वास्ता
बाध्य करता सोचने को
हुआ ऐसा क्या की
अनियंत्रित मन रहने लगा
कटुभाषण हावी हुआ
बहुत सोचा तभी जाना
अक्षमता शारीरिक
मन पर हावी हुई
असंतोष का कारण हुई |
आशा
20 नवंबर, 2012
परिवर्तन मौसम का
सर्दी का अहसास लिए सोए थे
पौ फटे जब नींद खुली
आलस था खुमारी थी
जैसे ही कदम नीचे रखे
दी दस्तक ठिठुरन ने
घर के कौने कौने में
सोचा न था होगा परिवर्तन
इतने से अंतराल में
हाथों में पानी लेते ही
कपकपी होने लगी
गर्म प्याली चाय की
दवा रामबाण नजर आई
जल्दी से स्वेटर पहना
कुछ तो गर्मी आई
खिडकी से बाहर झांका
समय रुका नहीं था
बस जलता अलाव चौरस्ते पर
कुछ लोगों में बच्चे भी थे
जो अलाव ताप रहे थे
थे पूर्ण अलमस्त
हसते थे हंसा रहे थे
खुशियों से महरूम नहीं
किसी मौसम का प्रभाव नहीं
जीने का नया अंदाज
वहीं नजर आया
वहीं नजर आया
सारी उलझनें सारी कठिनाई
अलाव में भस्म हो गईं
थी केवल मस्ती और शरारतें
कर लिया था सामंजस्य
प्रकृति में होते परिवर्तन से |
काश हम भी उनसे हो पाते
तब नए अंदाज में नजर आते |
|
आशा
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