20 अप्रैल, 2013

अद्भुद और विलक्षण

रंगों से खेलता बालक 
तूलिका ले हाथ में 
 तन्मय चित्र बनाने में 
था व्यस्त अपने आप में |
आहट से चौंका
चेहरे पर सवालिया भाव देख 
सकुचाया ,शरमाया 
फिर धीमे से मुस्काया |
बिना कुछ कहे 
अपनी कृति यहीं छोड़ 
खेलने भाग गया 
पर उत्सुकता जगा गया |
जब देखा 
क्या बनाया उसने ?
बड़ा अद्भुद नजर आया
विलक्षण उसे पाया  |
जितनी बार उसे देखता 
जिस भी कौण से देखता
कुछ नया दिखाई देता 
जो मुझे प्रेरणा देता |
बहुत सहेज कर रखा उसे 
नित्य नए चित्र बनाए
मैं खोजने लगा कृतियों में
बालक की प्रतिभा को |
एक दिन वह फिर  आया
अपना भाईचारा जताया 
बने चित्र देखना चाहे 
मैंने सारे आगे कर दिए |
 हर चित्र मनोयोग से देखता 
अपनी प्रतिक्रया भी देता 
जैसे ही वह चित्र देखा 
निशब्द ,देखता ही रह गया |
मैंने ही पूछ लिया 
तुमने यह क्या   बनाया   ?
विशिष्ट चमक से चेहरा दमका 
पर प्रतिउत्तर ना दिया |
हंसा और भाग निकला 
जैसे कह रहा हो 
खुद ही सोच लो 
है क्या इसमें |
आशा










16 अप्रैल, 2013

हो क्यूं उदास

जिसे जाना था चला गया 
हो क्यूं उदास इतने 
छोड़ो सारी बातों को 
जिनसे दुःख उपजे |
वहां जाना अवश्य 
दुआ भी करना 
पर आंसूं न बहाना 
कष्ट उसे ना पहुंचाना |
सूक्ष्म रूप धारण किये
 वह भी तुम्हे निहारता होगा 
याद भी करता होगा 
पर तुम्हें बता नहीं सकता |
जो यादें वह
 पीछे छोड़ गया 
उन्हें जीवित रख
सहज सफर उसका करना
वह लौट तो न पायेगा 
स्मृतियों में उसे
 जीवित रखना |
उसकी हर बात 
जो हंसाती थी
 गुदगुदाती थी 
बहुत सहेज कर रखना |
तब ही वे लम्हे जी पाओगे 
यादें जब ताजा होंगी 
तब अकेले नहीं होगे 
उसके बहुत करीब होगे 
उदासी भूल जाओगे |





13 अप्रैल, 2013

नव गीत

है प्रेरित
 नव विचारों से 
ना ही बंधा
 किसी बंधन से 
है उद्बोधक 
सरल सहज 
नव सोच का 
उत्साह से परिपूर्ण 
नव गीत 
नव विधा में
चेतना जागृत करता 
भाव मधुर
 मुखरित होते 
सत्य से 
पीछे न हटते 
सद विचारों से
घट भरता
जब छलकता
 बहकता
हर तथ्य 
उजागर करता
है सोच
 युवा वर्ग का
चेतना है 
जाग्रति है 
अभिव्यक्ति है |
जन मानस का 
समस्त सोच
 समाहित होते
इस में 
परिलक्षित होते
नव गीत के रूप में |





09 अप्रैल, 2013

नव वर्ष

आप सब को नव वर्ष के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभ कामनाएं यहाँ नव वर्ष कैसे मनाया जाता है देखिये :-

नव संवत्सर का प्रथम दिवस
घर घर सजे दरवाजे 
साड़ी की गुड़ियों से 
  शुभ कामनाएं दे रहे परस्पर 
प्यार से गले मिल कर 
नौ दिन तक उपवास करते 
महिमा गाते दुर्गा माँ की 
जौ,तिल घी लौंग की आहुति दे
 हवन करते
वायुमंडल की शुद्धि करते
पूरम पूरी ,गुजिया और
देते प्रसाद चने की दाल का 
सौहाद्र का इजहार करते 
कच्चे आम की कैरी का पना 
लगता बड़ा स्वादिष्ट
आज भी है परम्परा इस दिन
सुबह नीम की कोपल खाने की
हल्दी कुमकुम  देने की 
भर गोद आशीष लेने की |
नव वर्ष हो शुभ  सभी को 
कामना है यही 
हर बरस से अच्छा हो्
सद ्भावना है यही |

वैसे तो यह परम्परा महाराष्ट्र की है पर यदि सब लोग इतनी खुशियाँ इसी प्रकार बांटे तो जितना आनंद मिलेगा शायद कम हो |
आशा



07 अप्रैल, 2013

मन की पीर

अनाज यदि मंहगा हुआ ,तू क्यूं आपा खोय |
मंहगाई की मार से बच ना पाया कोय ||
 
कोई भी ना देखता , तेरे मन की पीर  |
हर वस्तु अब तो लगती ,धनिकों की जागीर ||

रूखा सूखा जो मिले ,करले तू स्वीकार |
उसमें खोज खुशी अपनी ,प्रभु की मर्जी जान ||
 
पकवान की चाह न हो ,ना दे बात को तूल |
चीनी भी मंहगी हुई ,उसको जाओ भूल ||

वाहन भाडा  बढ़ गया , इसका हुआ प्रभाव  |
भाव आसमा छु रहे ,लगता बहुत अभाव  ||

इधर उधर ना घूमना ,मूंछों पर दे ताव  |
खाली यदि जेबें रहीं ,कोइ न देगा भाव  ||

भीड़ भरे बाजार में ,पैसों का है जोर  |
मन चाहा यदि ना मिला , होना ही है बोर ||

आशा


05 अप्रैल, 2013

बोझिल तन्हाइयां

आँखों की आँखों से बातें 
ली जज्बातों की सौगातें
कुछ हुई आत्मसात
शेष बहीं आसुओं के साथ
अश्रु थे खारे जल से 
साथ  पा कर उनका 
हुई नमकीन वे भी 
यह अनुभव कुछ कटु हुआ 
वह भाप बन कर उड़ न सका 
हुई बोझिल तन्हाइयां 
मलिन मन मस्तिष्क हुआ 
धीरज कोई न दे पाया 
कटु सत्य सामने आया 
कितनी बार किया मंथन 
आस तक न जगी झूठी
पर मैं जान गयी 
हूँ खड़ी कगार पर
कभी भी किसी भी पल 
यह साथ छूट जाएगा 
अधिक खींच न सह पाएगा 
जीवन डोर का बंधन 
जिसे समझा था अटूट 
टूटेगा बिखर जाएगा 
जाने कहाँ ले जाएगा |
आशा
 
 


02 अप्रैल, 2013

बेटा क्या सोच रहा

आज न जाने क्यूँ बाबूजी 
उदासी धेरे मुझे 
जैसे ही पलक मूंदता 
आप समक्ष होतेमेरे
आपका हाथ सर पर 
दे रहा संबल मुझे |
हो गया कितना बदलाव 
पहले में और आज में 
तब आप अलग से थे 
जब भी सामना होता था 
भय आपसे होता  था |
पर जाने कब आपका
 व्यवहार मित्रवत हुआ
आपका अनुशासित दुलार
गहन प्रभाव छोड़ गया 
दमकता चहरा  मृदु मुस्कान लिए
दृढ निश्चय और कर्मठता का
अदभुद  प्रताप लिए
आप सा कोइ नहीं लगता|
यही पीर  मन में है
होते हुए अंश आपका 
 आप सा  क्यूं न बन पाया
चाहता समेट लूं  सब को
मैं भी अपनी बाहों में
पर भुजाओं का वह  विस्तार 
मैं कहाँ से लाऊँ
आपकी प्रशस्ति के लिए 
शब्दों की संख्या कम लगती 
माँ सरस्वती ,लक्ष्मी और काली 
तीनो का था वरद हस्त
हाथ कभी न रहे खाली |
जीवन के हर मोड़ पर
 कर्मठता ने दिया साथ 
शरीर थका पर मस्तिष्क नहीं 
दृढ़ता कम न हुई मन की 
सार्थक जीवन जिया आपने 
बने  प्रेरणा सबकी  |
सोचता हूँ मैं हर पल
 हूँ कितना भाग्यशाली 
आपकी छत्र छाया मिली 
आपने इस योग्य बनाया 
उन्नत सर मैं कर पाया 
फिर भी कसक बाकी रही
आपसा क्यूं न बन पाया |
 
आशा





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