25 मार्च, 2014

कुरुक्षेत्र



एक पार्टी  ने धक्का दिया
दूसरी ने बांह थामी 
पद प्रलोभन हावी हुआ
वह तुम्हारी तरफ हुआ |
इस बात को अभी
अधिक समय नहीं हुआ
तुमने फिर किक लगाई
फुटबाल हो कर रह गया |
तीसरा मोर्चा  याद आया
जुगाड़ की  वहां जाने की 
वहां भी वही खींचातानी
इसकी उसकी बुराई |
राजनीति इतनी ओछी है
कल्पना न की थी कभी
हाई कमान किसे समझे 
आज तक मालूम नहीं |
आम जनता का रुख भी
स्पष्ट नहीं लगता
भीतर घात का भय
 सदा बना रहता |
चुनाव गले की फांसी है
या गले में अटकी हड्डी
दलदल में फँस गया है
निकल नहीं सकता |
कुरुक्षेत्र की लड़ाई में 
चक्रव्यूह में फँस गया है 
राजनीति के मैदान में 
फुटबाल बन कर रह गया है |

24 मार्च, 2014

ना कहने को कुछ रहा


ना कहने को कुछ रहा ,
ना सुनने को बाक़ी 
जो देखा है  काफ़ी वही ,

उसका सिला देने को |

गुड़ खाया बोला  गुड़ सा ,आई नहीं मिठास |
कडुवाहट मन से न गयी व्यर्थ रहे प्रयास ||


वाणी मधुरस से पगी ,अंतस तक छा जाय  |
कटु भाषण यदि किया ,धाव गहन हो जाय ||

फूलों  की वादियों  में एक ठूंठ नजर आया 
ना ही कभी फूल  खिले ,नाही कभी हरियाया ||

 प्यार कभी जाना नहीं ,ना ही कभी मुस्कान
चहरे से यूं ही लगता  , कटु भाषण की खान  ||
आशा


 



21 मार्च, 2014

गौरैया




गाँव में छप्पर के नीचे
खिड़की ऊपर एक धोंसला
हर साल बना करता था
था वह नीड़ गौरैया का 
वह आती ठहरती चहचहाती
चूजों को दाना खिलाती
फिर  कहीं उड़ जाती |
इस बार घर सुधरवाया
पक्का करवाया
अब वहां नहीं कोइ नीड़ बना
था इन्तजार पर वह ना आई
एक बात ही समझ में आई
 उसे आधुनिकता पसंद न आई |
मैं रोज  एकटक
उस स्थान को देखती हूँ
सूना सूना देख उसे
बहुत आहत होती हूँ
सोचती हू क्यूं  पक्का करवाया
यदि वह जगह वैसी ही होती
गौरैया आँगन में होती |
आशा

20 मार्च, 2014

खेल खेल में




खेल खेल में मन उलझा
नई पुरानी यादों में
किसी ने दी खुशी
कुछ शूल सी चुभीं |
इसी चुभन ने भटकाया
खेल में व्यवधान आया
मित्रों ने भांप लिया
खेल रोक कर  समझाया |
पहले खेल फिर कुछ और
है बड़ी काम की बात
सफल जीवन में
 जीत का है यही  राज़़ |
अवधान किया केन्द्रित
खेल में व्यस्त हुआ
सोच ने  ली करवट
यादों में मिठास घुली |
है यह कैसा टकराव  
नहीं स्थाईत्व किसी में
जब उभर कर आता  
मन उद्वेलित हो  जाता |
खेल में जीत हार
एक लंबा सिलसिला हुआ
 विचारों का सैलाव आया
कविता का जन्म हुआ |
जब वर्तमान भी जुड़ने लगता
भाव तरंगित होते
शब्द प्रवाहित होते
सोचने को बाध्य करते |
क्या है यही कहानी
खेल खेल में
शब्दों के उछाल की
कविता के जन्म की |
आशा

18 मार्च, 2014

एक बूँद मीठे जल की




एक बूँद मीठे जल की
बादल से आती सागर में
असहज अनुभव करती
खुद को स्थापित करने में |
बारम्बार धकेली जाती
वहीं ठहरे रहने की
उसी में समाए रहने की
नाकाम कोशिश करती |
है कितना कठिन
अपना अस्तित्व बचाए रखना
चोटिल हो कर भी
स्वयं हार न मानना |
विषम स्थितियों में 
 अपना हश्र स्वीकारना
हो जुझारू
अपना सत्व बनाए रखना |
है अद्भुद समानता
नारी में और उसमें
नारी भी है कर्तव्यरत
उसी के समान
अपना अस्तित्व बचाने में
समय के साथ एकाकार होने में |
आशा

16 मार्च, 2014

पर परीक्षा नहीं




चौके से आती सुगंध
ले जाती उस ओर
मावे की गुजिया खीचती
मुझको अपनी और
मन चाहता मुंह में डालूँ
पर माँ की
तिरछी नजर
छूने नहीं देती
मुह में मिठास
धुलने नहीं देती
बस एक वाक्य
सुनाई देता
कल परीक्षा है
क्या भूल गए
खाने को उम्र पडी है
होली फिर भी आनी है
पर परीक्षा नहीं |
आशा