20 जुलाई, 2014

जलन तुझसे


 हो रही जलन वर्षा तुझसे
दूर हो कर भी
आशा  से तुझे  देखता
सारा देश याद करता तुझे
हम जैसों की
कोई  कीमत नहीं
चाहे कुछ भी करें
अच्छा हो या बुरा
प्रशंसनीय या विद्रुप भरा
कारण है बस एक
हम ठहरे  आम आदमी
घर में बंध कर रह गए
  कुछ विशिष्ट कर न सके
खुद में सिमट कर रह गए |
आशा

19 जुलाई, 2014

मेरा देश

(१)
स्वर्ण चिड़िया
था कहलाता कभी
भारत मेरा
है बदहाल आज
वही जीवन यहाँ |
(२)
हुआ स्वाधीन
परतंत्र नहीं है
देश है  मेरा
फिर भी बदहाल
यहाँ जिंदगी आज |
(३)
हैं नौनिहाल
देश के कर्णधार
 भविष्य दृष्टा
आशा जुड़ी उनसे
सब को बेशुमार |
(४)
हर वर्ष सा
झंडा वंदन किया
मिठाई बटी
तिरंगा फहराया
पर मन उदास  |
सधन्यवाद
आशा लता सक्सेना

16 जुलाई, 2014

झील सी गहरी आँखें







झील सी गहरी नीली आँखें
खोज रहीं खुद को ही
नीलाम्बर में धरा पर
रात में आकाश गंगा में |
उन पर नजर नहीं टिकती
कोई उपमा नहीं मिलती
पर झुकी हुई निगाएं
कई सवाल करतीं |
कितनी बातें अनकही रहतीं
प्रश्न हो कर ही रह जाते
उत्तर नहीं मिलते
अनुत्तरित ही रहते |
यदि कभी संकेत मिलते
आधे अधूरे होते
अर्थ न निकल पाता
कोशिश व्यर्थ होती  पढने की |
पर मैं खो जाता  
ख्यालों की दुनिया में
मैं क्यूं न डुबकी लगाऊँ
उनकी गहराई में |
पर यह मेरा भ्रम न हो
मेरा श्रम व्यर्थ न हो
मुझे पनाह मिल ही जाएगी
नीली झील सी  गहराई में |
आशा

14 जुलाई, 2014

नौका डूबती






नौका डूबती मझधार में
उर्मियों से जूझ रही
है समक्ष भवर की बिछात
उससे बचना चाह रही |
जल ही जल आस पास
जीवन की कोई न आस
मस्तिष्क भाव शून्य हुआ
सोच को ग्रहण लगा |
हुआ दूभर तर पाना
भव बाधा से बच पाना
मेरी नैया पार करो
 भावांजलि स्वीकार करो |
इस पार या उस पार
मझधार में ना कोई सार
यदि पार लग पाऊँ
श्रद्धा सुमन अर्पित करूं |
आशा

12 जुलाई, 2014

कविता में सब चलता है




कविता में सब चलता है
कोई सन्देश हो या न  हो
हर रंग नया लगता है
बस अर्थ निकलता हो
जो मन को छूता हो |
वहाँ शब्द जूझता
अपने वर्चस्व के लिए
अपने अस्तित्व के लिए
हो चाहे नया पुराना आधा अधूरा
या किसी अंचल का |
जब भाव पूर्ण हो जाए
वह रचना में रच बस जाए
सभी को स्वीकार्य फटे फटाए
 नए पुराने नोटों की तरह
हो जाता अनिवार्य रचना के लिए |
कविता चाहे कालजयी हो
या समय की मांग
शब्द तो शब्द ही है
अपना अस्तित्व नहीं खोता
उसका अर्थ वही रहता |

10 जुलाई, 2014

मेघा आ जाओ



घन गरज गरज बरसो
तरसा कृषक देख रहा
आशा निराशा में डूब रहा
कितने जतन किये उसने
कब और कैसे रीझोगे  
अनुष्ठान भी व्यर्थ हुए
मेघा तुम्हें मनाने के
भूल तो हुई  सब से
तुम रूठे ही रहे ना आए
बारबार का क्रोध शोभा नहीं देता
सुख चैन मन का हर लेता
अब तो मन जाओ दुखी न करो
प्यासी धरा की तपन  मिटने  दो
आ जाओ मेधा आ जाओ
वर्षा जल का घट छलकाओ
आशा