27 नवंबर, 2015

रोटी बेटी

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रोटी ताती चाहिए ,ठंडी नहीं सुहाय |
नखरे क्यूं  करता भला ,बात समझ ना आय ||

बात समझ ना आय ,अरे तू कैसा मूरख |
खाले अब चुपचाप ,उतारी है क्यूं सूरत ||

सच्चाई को मान ,रोटी  होती है रोटी 
क्यूं पीछे है पडा ,चाहिए ताती रोटी ||

रोटी मीठी ही लगे ,चाहे जब लो खाय |
प्यार से पाया टुकड़ा ,मन को सदा सुहाय ||


प्रेम भाव मन में बसा ,झुटला सका न कोय |
दूरी दिखती जब इससे ,यही दिखावा होय ||

जब से बेटी के कदम पड़े , घर में आई बहार |
देखी जब उसकी अदाएं ,मन में रहा न खार ||




आशा

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24 नवंबर, 2015

अंतर कल व आज में

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एक वह भी लेखनी थी
था वजन जिस में इतना 
लिखा हुआ मिटता न था
लाग लपेट न थी जिसमें
वह बिकाऊ कभी न थी
किसी का दबाव नहीं सहती
थी स्वतंत्र सत्य लेखन को
अटल सदा रहती थी
एक लेखनी यह है
बिना दबाव चलती नहीं
यदि धन का लालच हो साथ
कुछ भी लिखने से
हिचकती नहीं
अंजाम कोई भी हो
इसकी तनिक चिंता नहीं
यही तो है अंतर
कल व आज के सोचा का
कल था सत्य प्रधान
आज सब कुछ चलता है 

पहले भी स्याही का 
रंग स्याह हुआ करता था 
आज भी बदला नहीं है 
फिर यह परिवर्तन क्यूं 
आधुनिकता का है प्रभाव 
या कलियुग का प्रादुर्भाव
क्या नियति उसकी यही है 
या सोच हो गया भिन्न |

आशा

22 नवंबर, 2015

मुक्तक

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 टिमटिमाते तारे देखे खुले आसमान में
देख उन्हें दीपक जलाए मानव ने जहान में
सृष्टि के कण कण में छिपे कई सन्देश
हम शिक्षा लेते उन्हीं से जीते नहीं अनुमान में |


मौसम बीता गरमीं गई 
ठंडा दिन और रात हुई 
मिन्नतें हजार करते रहे 
गर्म मिजाज़ी कम न हुई |

मुक्त आकाश में उड़ती हुई 
स्वतंत्रता की  ध्योतक वही 
चिड़िया जैसा उड़ना चाहूँ 
रहा मेरा अरमान यही |


आशा

20 नवंबर, 2015

सुख चैन



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पहले भटके दर दर
सुख चैन की तलाश में
थी अनगिनत बाधाएं
उन पलों की आस में
पर एक मार्ग खोज लिया
था कठिन  फिर भी
सुकून से भरते गए
जब आए उसकी शरण
विश्वास का संबल लिए  
प्रेम का एक बीज लगाया
जल से सिंचित उसे  किया
जब नन्हां सा अंकुर फूटा
फल पाने को बेचैन हुआ
यही अस्थिरता मन की  
मार्ग से भटकाने लगी
सुख  तिरोहित हो गया
बेचैनी का सामना हुआ
पर फल की आशा में
चंचल मन वही अटका 
जब तक फल ना मिला
उसका डेरा वहीं रहा
कुछ सुख का अनुभव हुआ
 स्थिरता आई मन में
बचैनी से किनारा किया  
उसकी तलाश पूरी हुई
दौनों पूरे तो  मिल न सके 
पर राहत का अनुभव हुआ |
आशा

18 नवंबर, 2015

कश्ती कागज़ की


 


आधी अधूरी जिन्दगी
कागज़ की कश्ती सी
बहती जाती डगमगाती
वार लहर का सह न पाती
हिचकोले खाती
असंतुलन से नजरें मिलाती
धीरे धीरे गलने लगती
है नश्वर वह जान जाती
पर जल से सम्बन्धबना पाती
समय ने भी सिखाना चाहा
साथ चलो बढ़ते जाओगे
पर बात समझ से थी परे
उस पर अमल न कर पाई
कागज  की कश्ती डूब गई
 वह तो  यह भी न कर पाई  
अपने आपमें उलझी रही
समय से सीख न ले पाई
अब बहुत देर हो चुकी है
किसी के सुझाव मानने को
अपनी त्रुटियाँ जानने को
विचारों को मूर्त रूप देने को
जीवन की शाम  उतर आई है
और इंतज़ार बाक़ी है
मुकाम तक पहुँचने को |
आशा