13 अगस्त, 2016

भोर कभी न आए

हरी भरी वादियों में 
जाने का मन है 
वहीं समय बिताने का मन है 
स्वप्न तक नहीं अछूते 
उनकी कल्पना में
जाने कितने स्वप्न सजाए
कल को जीने के लिए
यह तक याद नहीं रहा
स्वप्न तो सजे हैं
पर रात के अँधेरे में
तेरा अक्स मुझे रिझाए
एकांत पलों के साए में
केनवास पर रंग व् कूची
कई अक्स बनाए मिटाए
 वादियों की तलाश में
वह मन को रिझाए
गीत प्यार के गुनगुनाए
तभी  दिल चाहता है
भोर कभी न आए
स्वप्न में ही वह उसे पा जाए
आने वाला कल उसके लिए
खुशियों की सौगात लाए|
आशा

11 अगस्त, 2016

अभाव हरियाली का


खँडहर में कब तक रुकता
आखिर आगे तो जाना ही है
बिना छाया के हुआ बेहाल
बहुत दूर ठिकाना है
थका हारा क्लांत पथिक
पगडंडी पर चलते चलते
सोचने को हुआ बाध्य
पहले भी वह जाता था
पर वृक्ष सड़क किनारे थे
उनकी छाया में दूरी का
तनिक भान न होता  था
मानव ने ही वृक्ष काटे
धरती को बंजर बनाया
 कुछ ही पेड़ रह गए हैं
वे भी छाया देते नहीं
खुद ही धूप में झुलसते 
लालची मानव को कोसते
जिसने अपने हित के लिए
पर्यावरण से की छेड़छाड़
अब कोई उपाय न सूझता
फिर से कैसे हरियाली आए
  पथिकों का संताप मिटाए |
आशा

08 अगस्त, 2016

कवि बेचारा


लिखने के लिए
अब रहा क्या शेष
सभी कब्जा जमाए बैठे हैं
रहा ना कुछ बाक़ी है
हम तो यूँ ही दखल देते हैं
किसी के प्रिय नहीं हैं
फिर भी जमें रहते हैं
तभी तो कोई नहीं पढ़ता
हमने क्या लिखा है 
ना रहा  किसी का वरद हस्त
ना ही कोई मार्ग दर्शक
हम किसी खेमें में नहीं
तभी अकेले हो गए हैं 
उड़ने की चाह ने 
दी है ऐसी पटकी 
भूल से भी नहीं देखेंगे 
ना ही कभी चाहेंगे 
तमगों की झलक भी |

आशा

06 अगस्त, 2016

व्यर्थ नहीं यह जीवन

03 अगस्त, 2016

वे लम्हें



वे लम्हें के लिए चित्र परिणाम
वे लम्हें जो कभी 
साथ गुजारे थे
सिमट कर 
रह गए हैं यादों में
हैं गवाह
 उन जज्बातों  के
जो धूमिल
 तक न हुए हैं
मन मुदित
 होने लगता है
उन लम्हों में
 पहुँच कर
क्या वे लौट कर
 न आएंगे
मुझे सुकून
 पहुंचाने को 
हर याद है 
इतनी गहरी
उससे जुदाई
 मुश्किल है
हैं वे लम्हें 
 वेशकीमती
उनसे दूरी 
नामुमकिन है |
आशा

01 अगस्त, 2016

मुक्तक

वह तेरा ऐसा  दीवाना हुआ
बिन तेरे दिल वीराना हुआ 
वीराने में बहार आए कैसे 
सोचने का एक बहाना हुआ |

चारो ओर छाया अन्धेरा ,उजाले की इक किरण ढूँढते हैं
गद्दारों से घिरे हुए हैं ,ईमान की इक झलक ढूंढते हैं
जो ईमान पर खरी उतारे ,ऐसी इक शख्शियत ढूँढते हैं
जिस दिन उससे रूबरू होंगे ,उस पल की तारीख ढूँढते हैं |
कहाँ नहीं खोजा आपको आखिर आप कहाँ हैं 
क्या लाभ असमय पहुँचाने का ,जताने का कि आप वहां हैं 
अब तक कई लोग पहुंचगे होंगे ,किसा किस को जाने
कोई आए या न आए आपके बिना ,मन को सुकून कहाँ है |
है नटखट नखराली 
चंचल चपल चकोरी 
चाँद सी सूरत सहेजे 
बारम्बार करती बरजोरी |
जाने कितने राज छिपे  हैं इस दिल में 
 होने लगा आग़ाज अब जमाने में 
कैसे दूरी रख पाओगे ए मेरे हमराज 
छोड़ सारे काम काज उलझे रहोगे उनमें |

की ऊँठ की सबारी रेगिस्थान में
दूर तक था जल का अभाव मरुस्थल में
थी सिक्ता कणों की भरमार वहां
दूर दिखाई देती मारीचिका  मरू भूमि में |


आशा




29 जुलाई, 2016

क्या गलत किया है



शर्तों पर अवश्य टिका है
पर मैंने तेरे नाम
पूरा जीवन लिख दिया
आज के युग में
सुरक्षा लगी आवश्यक
तभी शर्तों का सहारा लिया
क्या कुछ गलत किया
भावनाएं थी प्रवल
जब अनुबंध पर
दस्तखत किये थे
फिर भी मस्तिष्क था सजग
जब तेरा साथ किया था
तभी दौनों की
जुगलबंदी चल रही है
है यह आज की मांग
क्या मैंने गलत किया है
विश्वास पर रिश्ते टिके हैं
फिरभी सुरक्षा लगी आवश्यक
समाज गवाह बना है
इस प्यारे से रिश्ते का
मैंने क्या गलत किया है |
आशा