20 सितंबर, 2016

जुल्फें


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जुल्फें हैं तेरी
काले बदरवा सी
मन में बसीं |

चंचल बाला
बालों में है गजरा
मोहक चाल |

लम्बी सी  चोटी
सर्पिणी सी हिलती
मन मोहती |

कुंतल केश 
बांध न पाए  तुझे 
हुआ ऐसा क्यूं |

जुल्फों का साया 
थकान मिटा गया 
जगाया प्यार |

आशा


18 सितंबर, 2016

मैं हूँ हिन्दुस्तानी


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थे बाबूजी बुन्देल खंड के
अम्मा राजस्थान की
जन्मी मैं बुंदेलखंड में
पर मालवा न छूटा कभी
बोलते समझते थे सब
 अपनी अपनी  भाषा
 मैंने सुनी मालवी  ,मराठी
बुन्देलखंडी ,राजस्थानी
अपने बचपन से आज  तक
पर बोली सदा हिन्दी  बोली
इसी लिए हूँ  हिन्दुस्तानी   
स्कूल में आंग्ल भाषा प्रमुख
हिन्दी दूसरे  स्थान पर थी
संस्कृत कभी पढ़ न पाई   
बहुत ही कठिन लगती थी
पर अब भी सोच नहीं पाती  
त्रिशंकू हो कर रह गई  
आ न पाई परिपक्वता
लिखने और पढ़ने में  
 किसी भी भाषा को
अपने में समाहित करने में  |
आशा



15 सितंबर, 2016

वसुधैव कुटुम्बकम


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इतनी विशाल दुनिया में
दूर दराज देशों में
रहते लोग  अनेक
परिवेश जिनके भिन्न
भाषाएँ हैं अनेक
बात जब होती
 वसुधैव  कुटुम्बकम की
तरह तरह के विवाद छिड़ते
कोई मत ना एक
 सागर है विशाल भाषाओं का
अलग अलग भाषाएँ बोलते
जब बहस होती
 कौनसी संपर्क भाषा हो 
 एक मत कभी न हो पाते
  महत्वपूर्ण  सभी भाषाएँ
 प्रत्येक भाषा  कद्दावर है
प्रचुर समृद्ध साहित्य लिए
फिर बहस किस लिए
 हिन्दी सरल सहज भाषा  
समृद्ध भाषा विज्ञान है
सभी भाषाओं के शब्द
आंचलिक हों या विदेशी
मिलते जाते हैं इसमें
 खीर में दूध और चावल जैसे
तभी कहा जाता है  
क्यों न अपनाया जाए इसे
पर क्या जरूरी  है
 इसे जन जन पर थोपा जाए
है आवश्यक प्रचार प्रसार
पर बिना बात  बहस न हो
जो सच्चे दिल से अपनाए इसे
उसका स्वागत किया जाए
पर अनादर किसी भाषा का ना हो
साहित्य सभी पढ़ा जाए 
सम्मान की क्या जरूरत 
अध्ययन की रूचि 
 जागृत कर दी जाए |
आशा

ध्वज हमारा




चाहते नहीं
झुकें अनावश्यक
हैं वे स्वतंत्र |

ध्वज हमारा
सम्मान का प्रतीक
मान  हमारा |

शीश नवाएँ
झंडा फहरा कर
वन्दना करें |

जंग जीत ली
स्वतंत्रता प्राप्त की
हुए आजाद |


भारत माता
जान से प्यारी हमें
 गर्व है हमें |

हुए सुरक्षित
तिरंगे की छाँव में
 हम बालक |
आशा

13 सितंबर, 2016

चुभन



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उलझनों की अति हो गई
बोझ मन का कैसे हल्का हो
कहने को शब्द नहीं मिलते
मुंह तक आते आते ही
बेआवाज होते जाते हैं
अब तो लगाने लगा है
ताला जवां पर लग गया है
अब कुछ किसी से नहीं कहना
फ़कत उलझनों का
एहसास ही काफी है
यही एहसास जब तब
शूल सा चुभने लगता है
जिसे निकाल फेंका पहले ही
पर आज भी चुभन होती है
अब तो अंतराल में होती
खलिश का एहसास ही काफ़ी है |
आशा