26 सितंबर, 2016

तीनों पीढी एक साथ


कमरे में  तस्वीरों पर 
बहुत धूल थी
सोचा उनको साफ करूँ
नौकर से उन्हें उतरवाया 
टेबल पर रखवाया 
डस्तर ले झाड़ा बुहारा
करीने से लगाने को उठाया 
दादा दादी चाचा ताऊ 
हम और हमारे बच्चे
 आगे रखी तस्वीर में
 तीनों पीढी एक साथ देख
 आँखें खुशी से हुई नम
अद्भुद चमक चहरे पर आई
यही तो है मेरी
 सारे जीवन की कमाई
सभी साथ साथ हैं
भरा पूरा है धर मेरा
अलग अलग रहने की
कल्पना तक कभी
 मन में न आई
बरगद की छाँव में
 बगिया मेरी  हरी भरी
मेरे मन को बहुत भाई|

आशा


24 सितंबर, 2016

ग्राम



ग्राम छोटा सा
जीवंत लोग वहां
मस्ती में जीते |

चौपाल पर
शाम ढले आजाते
भजन गाते |

नाचना गाना
ढोल की थाप पर
रोजाना होता |


कच्चा टापरा
द्वार पर खटिया
खेलते बच्चे |

पीपल तले
ठंडी ठंडी छाँव में
राहत मिले |


आम की पाल
खुलेगी आज अभी
ग्राहक आए |

कुए का पानी
गौरी भरने चली
ले कर घड़ा |

गांधी चरखा
सूत कातती बाला
व्यस्त कार्य में |

काम ही काम
नहीं कोई आराम
यही जीवन |


आशा

22 सितंबर, 2016

उर्मियाँ


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लगता है मुझे  मनमोहक
घंटों सागर तट पर बैठना
अंतहीन सागर को निहारना
तरंगों के संग बह जाना |
उत्तंग तरंगें नीली नीली
उठती गिरतीं आगे बढ़तीं
आपस में टकरातीं
चाहे जब विलीन हो जातीं |
प्रातः झलक बाल अरुण की
रश्मियों के साथ दीखती
कभी अरुण को बाहों में भरतीं  
चाहे जब उर्मियों से खेलतीं |
उनका बादलों में छिपना निकलना
छोटी बड़ी लहरों से उलझना
दृश्य मनोहारी होता
मन तरंगित कर जाता |
स्वर्णिम दृश्य ऐसा होता
समूचा मुझे सराबोर   करता
मन उर्मियों सा होता तरंगित
भावविभोर हो बहना चाहता |
अब उठने का मन न होता
ठंडी रेत पर बैठ वहीं 
दृश्य मन में उतारती
स्वप्नों का किला बनाती|
तभी एक लहर अचानक
मुझे भिगो कर चली गई
झाड़ी रेत  भीगे तन से
ठोस धरातल पर पैर टिके|
पीछे लौटी जाने को घर
 सागर तट का मोह  छोड़
बाल अरुण  सुनहरी धूप
 उर्मियों की   लुका छिपी
और स्वप्नों से मुंह मोड़ कर |
आशा










20 सितंबर, 2016

जुल्फें


जुल्फें तेरी  के लिए चित्र परिणाम
जुल्फें हैं तेरी
काले बदरवा सी
मन में बसीं |

चंचल बाला
बालों में है गजरा
मोहक चाल |

लम्बी सी  चोटी
सर्पिणी सी हिलती
मन मोहती |

कुंतल केश 
बांध न पाए  तुझे 
हुआ ऐसा क्यूं |

जुल्फों का साया 
थकान मिटा गया 
जगाया प्यार |

आशा


18 सितंबर, 2016

मैं हूँ हिन्दुस्तानी


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थे बाबूजी बुन्देल खंड के
अम्मा राजस्थान की
जन्मी मैं बुंदेलखंड में
पर मालवा न छूटा कभी
बोलते समझते थे सब
 अपनी अपनी  भाषा
 मैंने सुनी मालवी  ,मराठी
बुन्देलखंडी ,राजस्थानी
अपने बचपन से आज  तक
पर बोली सदा हिन्दी  बोली
इसी लिए हूँ  हिन्दुस्तानी   
स्कूल में आंग्ल भाषा प्रमुख
हिन्दी दूसरे  स्थान पर थी
संस्कृत कभी पढ़ न पाई   
बहुत ही कठिन लगती थी
पर अब भी सोच नहीं पाती  
त्रिशंकू हो कर रह गई  
आ न पाई परिपक्वता
लिखने और पढ़ने में  
 किसी भी भाषा को
अपने में समाहित करने में  |
आशा



15 सितंबर, 2016

वसुधैव कुटुम्बकम


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इतनी विशाल दुनिया में
दूर दराज देशों में
रहते लोग  अनेक
परिवेश जिनके भिन्न
भाषाएँ हैं अनेक
बात जब होती
 वसुधैव  कुटुम्बकम की
तरह तरह के विवाद छिड़ते
कोई मत ना एक
 सागर है विशाल भाषाओं का
अलग अलग भाषाएँ बोलते
जब बहस होती
 कौनसी संपर्क भाषा हो 
 एक मत कभी न हो पाते
  महत्वपूर्ण  सभी भाषाएँ
 प्रत्येक भाषा  कद्दावर है
प्रचुर समृद्ध साहित्य लिए
फिर बहस किस लिए
 हिन्दी सरल सहज भाषा  
समृद्ध भाषा विज्ञान है
सभी भाषाओं के शब्द
आंचलिक हों या विदेशी
मिलते जाते हैं इसमें
 खीर में दूध और चावल जैसे
तभी कहा जाता है  
क्यों न अपनाया जाए इसे
पर क्या जरूरी  है
 इसे जन जन पर थोपा जाए
है आवश्यक प्रचार प्रसार
पर बिना बात  बहस न हो
जो सच्चे दिल से अपनाए इसे
उसका स्वागत किया जाए
पर अनादर किसी भाषा का ना हो
साहित्य सभी पढ़ा जाए 
सम्मान की क्या जरूरत 
अध्ययन की रूचि 
 जागृत कर दी जाए |
आशा