12 सितंबर, 2011

तुम तो कान्हां निकले


तुमने यह कैसा नेह किया ,कितना सताया तुमने |
ना ही कभी पलट कर देखा ,राह भी देखी उसने |
प्रीत की पेंगें बढ़ाई क्यूं ,तुम तो कान्हां निकले |
याद न आई राधा उनको ,जब गोकुल छोड़ चले |
आशा

11 सितंबर, 2011

मुस्कान रूठ जाएगी


जाने कितनी यादें

दिल में समाई

जब भी झांका वहाँ

तुम ही नजर आए |

वे सुनहरे दिन

वे उल्हाने वे वादे

सारा चैन हर लेते थे

जाने कब पलक झपकती थी

कब सुबह हो जाती थी |

स्वप्नों के झूलों में झूली

राह देखना तब भी न भूली

अधिक देर यदि हो जाती

बहुत व्यथित होती जाती |

द्वार पर होती आहट

मुझे खींच ले जाती तुम तक

नज़रों से नजरें मिलते ही

कली कली खिल जाती |

वे बातें कल की

भूल न पाई अब तक

हो आज भी करीब मेरे

पर प्यार की वह उष्मा

हो गयी है गुम |

कितने बदल गए हो

दुनियादारी में उलझे ऐसे

उसी में खो गए हो

सब कुछ भूल गए हो |

कोइ प्रतिक्रया नहीं दीखती

भाव विहीन चेहरा रहता है

गहन उदास चेहरा दीखता है

हंसना तक भूल गए हो |

इस दुनिया में जीने के लिए

ग्रंथियों की कुंठाओं की

कोइ जगह नहीं है

उन्हें भूल ना पाओ

ऐसी भी कोइ वजह नहीं है |

खुशियों को यदि ठोकर मारी

वे लौट कर न आएंगी

जीवन बोझ हो जाएगा

मुस्कान रूठ जाएगी |

आशा

10 सितंबर, 2011

कशमकश




  • उस दिन तो बरसात न थी
    मौसम सुखमय तब भी न लगा
    सब कुछ था पहले ही सा
    फिर मधुर तराना क्यूं न लगा |
    शायद पहले बंधे हुए थे
    कच्चे धागों की डोर से
    लगती है वह टूटी सी
    सूखी है हरियाली मन की |
    सुबह वही और शाम वही
    है रहने का स्थान वही
    पर लगता वीराना सारा मंजर
    रहता मन बुझा बुझा सा |
    यादों की दुनिया से बाहर
    आने की कशमकश में
    होती है बहुत घुटन
    पर है अनियंत्रित मन |
    मन नहीं चाहता
    किसी और बंधन में बंधना
    अब फंसना नहीं चाहता
    दुनियादारी के चक्रव्यूह में|










07 सितंबर, 2011

प्याज क छिलके


आचरण समाज का

है प्याज के छिलके सा

जब तक उससे चिपका रहता

लगता सब कुछ ठीक सा |

हैं अंदर की परतें

समाज में होते परिवर्तन की

प्रतीक लगती हैं

अंदर होते विघटन की |

दिखते सभी बंधे एक सूत्र में

फिर भी छिपते एक दूसरे से

पीठ किसी की फिरते ही

खंजर घुसता पीछे से |

तीव्र गंघ आती है

किसी किसी हिस्से से

यदि काट कर न फेंका उसे

प्रभावित और भी होते जाते |

ये तो हैं अंदर की बातें

बाहर से सब एक दीखते

आवरण से ढके हुए सब

अच्छे प्याज की मिसाल दीखते |

बाह्य परत उतरते ही

स्पष्ट नजर आते

टकराव और बिखराव

उसी संभ्रांत समाज में |

है कितनी समानता

प्याज में और समाज में

छिलके उतरते ही

दौनों एकसे नजर आते |

फिर असली चेहरा नजर आता

खराब होते प्याज का

या विघटित होते समाज का

जैसे ही छीला जाता

आंखें गीली कर जाता |

आशा

05 सितंबर, 2011

हूँ परेशान



न जाने कैसी कहानी थी

कुछ सोचा मनन किया |

वह मन की बात न कह पाई

बस यही गुनाह किया |

यही सोच कर हूँ परेशान

कि ऐसा कैसे किया |

जंगल की आग का अनुभव

उसने कैसे न किया |

हो कर चंचल प्याला छलकता

वह मुखर बनी रहती |

तब कभी उदास न रह पाती

मन पर बोझ न रखती |

कोमल भावनाओं से कभी

यूं न खेलती रहती |
अपने अछूते विचारों पर

सदा विहसती रहती |

04 सितंबर, 2011

शिक्षक दिवस पर कुछ विचार


शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है जो जीवन पर्यंत चलती रहती है |पूरे जीवनकाल में न जाने कितने लोगों से हम कुछ न कुछ सीखते हैं |शिक्षक एक मार्ग दर्शक होता है जो विद्यार्थी को अंधकार से प्रकाश की और ले जाता है |
वह एक ऐसी मशाल है जो जल कर अन्य सब का पथ प्रदर्शन करती है |शिक्षक यदि विद्वान हो और व्यक्तित्व का धनी हो तो अपना ऐसा प्रभाव छोड़ता है कि उसे जीवन पर्यंत भुलाया नहीं जा सकता |
शिक्षक तो जन्म जात होता है जो दुनिया के प्रलोभनों से दूर रह करखुद शिक्षा ग्रहण करता है तथा मुक्त हस्त से
दूसरों को बांटता है |इसे ही अपना लक्ष्य और कर्तव्य मान कर संतुष्ट होता है |शिक्षा का व्यवसाईकरण
करने वाले लोग शिक्षक नहीं हैं केवल व्यवसाई हैं |अच्छा शिक्षक सदा याद किया जाता है |

लीजिए हार्दिक शुभ कामनाएं आज शिक्षक दिवस पर :-
कुछ पंक्तियाँ देखिये शायद अच्छी लगे |

महाकाल की नगरी उज्जैनी
राजा विक्रम की उज्जैनी
द्वापर में थी शिक्षा स्थली
कृष्ण और सुदामा की |
दूर दूर से बच्चे आते थे
गुरु कुल में रह शिक्षा पाते थे
आश्रम था गुरु सांदीपनी का
था नहीं भेद भाव जहां |
ऊच नीच और गरीब अमीर में
अंतर कहीं नहीं दीखता था
था सद भाव और प्रेम इतना
मिल जुल कर रहते थे सब |
लिखते थे जिस पट्टिका पर
धोते थे उसे तलैया में
वह क्षेत्र आज भी
अंक पात कहलाता है
द्वापर की याद दिलाता है |
आशा


02 सितंबर, 2011

कई सौपान


है जीवन का नाम

एक एक सौपान चढना

साथ किसी का मिलते ही

बढ़ने की गति द्रुत होना |

इस दुनिया में आते ही

ममता मई गोद मिलती

माँ के प्यार की दुलार की

अनमोल निधि मिलती |

आते ही किशोरावस्था

कोइ होता आदर्श उसका

अनुकरण कर जिसका

अपना मार्ग प्रशस्त करता |

होती कठिनाई तरुणाई में

फंसता जाता दुनियादारी में

कोल्हू के बैल सा जुता रहता

खुद को स्थापित करने मैं |

यदि भूले से पैर फिसलता

गर्त में गिरता जाता

फिर सम्हल नहीं पाता

फँस कर रह जाता मकड़जाल में |

जीवन के अंतिम सौपान पर

जैसे ही कदम रखता

भूलें जो उससे हुईं

प्रायश्चित उनका करता |

फिर दिया जलाता वर्तिका बढाता

जब स्नेह समाप्त होता

हवा के झोके से लौ तेज होती

फिर भभक कर बुझ जाती |

फिर न कोइ सौपान होता

ऊपर जाने के लिए

उसके जीवन की कहानी

बस यूँ ही समाप्त होती |

आशा

प्रार्थना है


हार्दिक शुभ कामनाए इस शुभ अवसर पर

'प्रार्थना है '


हें गण नायक सिद्धि विनायक
हर वर्ष की तरह इन्तजार तुम्हारा
बहुत किया था
इस वर्ष भी आए अच्छा किया |
तुमसे मिलता बल
हर कार्य सिद्ध करने का
कुछ नया करने का
आ कर मनोबल बढ़ाया
अच्छा किया |
रिद्धि सिद्धि के स्वामी
तुम्हारा आशीष पा कर
जो कुछ भी किया जाता है
शुभ लाभ देख कर
मन सुख पाता है |
पहले की तरह
सुख आए
कामना पूर्ण हो जाए
है यही प्रार्थना आज भी |
सब को सुखी करना
देश के सारे विघ्न हरना
मनो कामना पूर्ण हों
ऐसा आशीष देना |


आशा




01 सितंबर, 2011

कुछ कदम


कुछ कदम वह चले
और कुछ तुम भी चलो
है इतनी लम्बी डगर
फासले कुछ तो कम होंगे |
तुम्हारी ये नादानियां
जी का जंजाल हों गईं
समझौता विचारों में
किस तरह हों पाएगा |
यदि चल पाए दौनों
चार कदम भी साथ साथ
जिन्दगी का बुरा हाल
ऐसा न हों पाएगा |
जब भी वह झुके
और तुम ना झुक पाओ
बनती बात बिगड़ जाएगी
फिर कुछ भी न हों पाएगा |
आशा

31 अगस्त, 2011

माँ की ममता


माँ ने ममता से
पलकों पर बिठाया तुम को
हो तुम क्या
अहसास दिलाया तुम को |
हर पल तुम्हे याद किया
पलकों को छूते ही
अहसास तुम्हारा पा
बाहों में झुलाया तुमको |
जब बाहर पैर रखा
अपना अस्तित्व खोजा
तुमने पलट कर न देखा
कुछ जानना न चाहा |
यह बेरुखी ऐसा व्यवहार
ह्रदय में गहरे जख्म कर गया
तुम नहीं जानतीं
तुमने कितना रुलाया उसको |
उसूलों पर खरी नहीं उतरीं
ना ही कभी सोचा
होती है ममता क्या
और उसकी अपेक्षाएं क्या ?
उसके मन की पीड़ा को
अभी न जान पाओगी ,
समझोगी तब ,
जब स्वयं माँ बनोगी |
आशा

30 अगस्त, 2011

श्री अन्ना हजारे


अपने हृदय की बात उसने ,
इस तरह सब से कही |
सैलाब उमढ़ा हर तरफ से ,
मंच की प्रभुता रही |
ऊंचाई कोइ छू न पाया ,
आचरण ऐसा किया |
सम्मोहनात्मक भावनाओं से ,
भरम डिगने ना दिया |
अपनी बातों पर अडिग रहा ,
अहिंसा पर जोर दिया |

आशा



28 अगस्त, 2011

यह पड़ाव कब पार हो


जीवन की लंबी डगर पर
देखे कई उतार चढ़ाव
अनेकों पड़ाव पार किये
फिर भी विश्वास अडिग रहा |
कभी हार नहीं मानी
जीवन लगा न बेमानी
जटिल समस्याओं का भी
सहज निदान खोज पाया |
आशा निराशा के झूले में
भटका भी इधर उधर
कभी सफलता हाथ लगी
घर असफलता ने घेरा कभी |
अनेकों बार राह भूला
फिर उसे खोज आगे बढ़ा
ऊंची नींची पगडंडी पर
जीवन यूँ ही चलता रहा |
जीवन इतना दूभर होगा
इस अंतिम पड़ाव पर
 कभी सोचा न था
ना ही कल्पना की इसकी |
आज हूँ उदास ओर बेचैन
यह राह कब समाप्त हो
कर रहा हूँ इन्तजार
यह पड़ाव कब पार हो |

आशा




27 अगस्त, 2011

सादगी


थी नादान बहुत अनजान
जानती न थी क्या था उसमे
सादगी ऐसी कि नज़र न हटे
लगे श्रृंगार भी फीका उसके सामने |
थी कृत्रिमता से दूर बहुत
कशिश ऐसी कि आइना भी
उसे देख शर्मा जाए
कहीं वह तड़क ना जाए |
दिल के झरोखे से चुपके से निहारा उसे
उसकी हर झलक हर अदा
कुछ ऐसी बसी मन में
बिना देखे चैन ना आए |
एक दिन सामने पड़ गयी
बिना कुछ कहे ओझिल भी हो गयी
पर वे दो बूँद अश्क
जो नयनों से झरे
मुझे बेकल कर गए |
आज भी रिक्त क्षणों में
उसकी सादगी याद आती है
मन उस तक जाना चाहता है
उस सादगी में
श्रृंगार ढूंढना चाहता है |

आशा





25 अगस्त, 2011

क्या पाया


इंसान का इंसान से यह बैर कैसा
सब जान कर अनजान बना रहता
यूं वैमनस्य लिए कब तक जियेगा
आज नहीं तो कल
सत्य उजागर होगा |
बिना बैर किये जो जी लिया
कुछ तो अच्छा किया
जिंदगी नासूर बनने न दी
चंद क्षण खुशियों के भी जिया |
कुछ नेक काम भी किये
जो जिंदगी के बाद भी रहे |
जिसने नज़र भर देखा उन्हें
उसे भरपूर सराहा याद किया |
जिसके ह्रदय में बैर पनपा
कुछ नहीं वह कर पाया
खुद जला उस आग में
दूसरों को भी जलाया उसी में |
आत्म मन्थन तक न किया
आत्म विश्लेषण भी न कर पाया
बस मिट गया यह सोच कर
क्या चाहा था क्या पाया ?

आशा



23 अगस्त, 2011

जब आँख खुली


उस दिन जब आँख खुली
प्रथम किरण सूरज की
जैसे ही चेहर पर पड़ी
दमकने लगा 
वह  और अधिक |
आँखें झुकी वह शरमाई
उसे देख कर सकुचाई
खोजी नजर जब उधर गयी
प्यार भरे नयनों से देखा
धीमें  से वह मुस्काई |
जो संकेत नयनों से मिले
मन की भाषा पढ़ पाया
पहले प्यार की पहली सुबह
और उष्मा उसकी
अपने मन मैं सजा पाया |

आशा

21 अगस्त, 2011

कान्हा


द्वापर में भादों के महीने में

काली अंधेरी रात में

जन्म लिया कान्हा ने

मथुरा में कारागार के कक्ष में |

था दिवस चमत्कारी

सारे बंधन टूट गए

द्वार के ताले स्वतः खुले

जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ |

बेटे को बचाने के लिए
गोकुल जाने के लिए

वासुदेव ने जैसे ही

जल में पैर धरा

जमुना की श्रद्धा ऐसी जागी

बाढ आ गई नदिया में |

बाहर पैर आते ही

कान्हा के पैरों को पखारा

जैसें ही छू पाया उन्हें

अद्भुद शान्ति छाई जल में |

सारा गोकुल धन्य हो गया

कान्हा को पा बाहों में

गोपिया खो गईं

मुरली की मधुर धुन में |

बंधीं प्रेम पाश में उसके

रम कर रह गईं उसी में

ज्ञान उद्धव का धरा रह गया

उन को समझाने में |

वे नहीं जानती थीं उद्देश्य

कृष्ण के जाने का

कंस के अत्याचारों से

सब को बचाने का |

अंत कंस का हुआ

सुखी समृद्ध राज्य हुआ

कौरव पांडव विवाद मैं

मध्यस्थ बने सहायता की |

सच्चाई का साथ दिया

युद्ध से विचलित अर्जुन को

गीता का उपदेश दिया

आज भी है महत्त्व जिसका |

जन्म दिन कान्हा का

हर साल मनाते हैं

श्रद्धा से भर उठाते हैं

जन्माष्टमी मनाते हैं |

आशा

18 अगस्त, 2011

भ्रष्टाचार



कहाँ रहे कैसे दिन बीते
इसकी सुरती नहीं उनको
भीग रहे उस फुहार में
आकंठ लिप्त भ्रष्टाचार में |
जब से बैठे कुर्सी पर
उससे ही चिपक कर रह गए
धन दौलत में ऐसे डूबे
सारे आदर्श धरे रह गए |
वे भूल गए वे क्या थे
नैतिक मूल्य थे क्या उनके
सब कुछ पीछे छोड़ दिया
घड़ा पाप का भरता गया |
भ्रष्टाचार के दलदल से
कोई न बाहर आ पाया
है यह एक ऐसा कीटाणु
समूचा देश निगल रहा |
जाने कितने मुद्दे हैं
पहले से हल करने को
उन पर तो ध्यान दिया नहीं
बढ़ावा दिया भ्रष्टाचार को |
वह अमर बेल सा छाता गया
सारा सुख हर ले गया
पूरा पेड़ सूखने लगा
बरबादी का कहर ढहा |
एक युग नायक ने
उनके अनेक समर्थकों ने
अपना विरोध दर्ज किया
जन जागरण मुखर हुआ |
देश में हलचल हुई
जागृति की लहर चली
कुछ तो प्रभाव हुआ इसका
सोते शासन को हिला दिया |
यदि विरोध नहीं करते
यह कैंसर सा बढ़ता जाता
कोई इलाज काम न करता
भयावह अंत नजर आता |
सभी तो लिप्त हैं इस में
लगे हुए हैं घर भरने में
देश की चिंता कौन करे
नाम उजागर कौन करे|
चक्रव्यूह रचने वालों से
या दलाल हवाला वालों से
जाने कब मुक्ति मिलेगी
भ्रष्टाचार के दानव से|
आशा

17 अगस्त, 2011

बोझ दिल का



बहुत कुछ छिपा है ह्रदय में
जैसे चिंगारी दबी हो राख में
घुटन सी रहती है
बेचैनी बनी रहती है |
कुछ सच का कुछ झूठ का
हर वक्त बोझ दिल पर
बढता ही जा रहा
बेबात उलझाता जा रहा |
कब तक दबूं
उस अहसास से
जो चाहता कुछ और है
पर हो जाता कुछ और |
अच्छे और बुरे दिनों ने
बहुत कुछ सिखाया है
बदलाव इस जीवन में
कुछ तो आया है |
मन की किस से कहूँ
अवकाश ही नहीं किसी को
मुझे सुनने के लिए
समस्या समझने के लिए |
अब खिंच रही है जिंदगी
बिना किसी उद्देश्य के
बोझ कम होने का
नाम नहीं लेता |
उसका हर क्षण बढ़ना कैसे रुके
कोइ राह नहीं दिखती
यह तक सोच नहीं पाता
होगा क्या परिणाम इसका |

आशा





15 अगस्त, 2011

गृहणी




शाम ढले उड़ती धूल
जैसे ही होता आगाज
चौपायों के आने का
सानी पानी उनका करती |
सांझ उतरते ही आँगन में
दिया बत्ती करती
और तैयारी भोजन की |
चूल्हा जलाती कंडे लगाती
लकड़ी लगाती
फुकनी से हवा देती
आवाज जिसकी
जब तब सुनाई देती |
छत के कबेलुओं से
छनछन कर आता धुंआ
देता गवाही उसकी
चौके में उपस्थिति की |
सुबह से शाम तक
घड़ी की सुई सी
निरंतर व्यस्त रहती |
किसी कार्य से पीछे न हटती
गर्म भोजन परोसती
छोटे बड़े जब सभी खा लेते
तभी स्वयं भोजन करती |
कंधे से कंधा मिला
बराबरी से हाथ बटाती
रहता सदा भाव संतुष्टि का
विचलित कभी नहीं होती |
कभी खांसती कराहती
तपती बुखार से
व्यवधान तब भी न आने देती
घर के या बाहर के काम में |
रहता यही प्रयास उसका
किसी को असुविधा न हो |
ना जाने शरीर में
कब घुन लग गया
ना कोइ दवा काम आई
ना जंतर मंतर का प्रभाव हुआ
एक दिन घर सूना हो गया
रह गयी शेष उसकी यादें |
आशा

12 अगस्त, 2011

नौनिहाल


लो आया पन्द्रह अगस्त

त्योहार स्वतंत्रता दिवस का

याद दिलाने उन शहीदों की

जो प्राण न्योछावर कर गए

देश की आजादी के लिए |

खुशियों से भरे नौनिहाल

सोच कैसे मनाएं त्यौहार

तैयारी में जुट गए

भाषण ,कविता और नाटिका

सब में भाग लेने के लिए |

नए कपड़ों में सजे

एकत्र हुए तिरंगे की छाँव तले

देश भक्ति में ओतप्रोत

गीत गाते नारे लगाते

सही कर्णधार नजर आते

स्वतंत्र भारत के |

देख उनकी कर्मठता लगता

है सारा भार

उन नन्हें कन्धों पर

आने वाले कल का |

हर बार की तरह

शपत भी ली है

उन नन्हें बच्चों ने

कोइ एक कार्य पूर्ण करने की |

वे पूर्ण श्रद्धा से करते नमन

उन आजादी के परवानों को

जो आहुति अपनी दे गए

स्वतंत्रता का मीठा फल

भेट देश को कर गए |

09 अगस्त, 2011

रक्षा बंधन बचपन का

जाने कितनी रिक्तता
है आज ह्रदय में
आँखें धुंधलाने लगी हैं
बीते दिन खोजने में |
प्रति वर्ष आता रक्षा बंधन
उसे खोजती रह जाती
फिर अधिक उदास हो जाती |
भूल नहीं पाती बीता कल
जाने कब बीत गया बचपन
वह उल्लास वह उत्साह
जाने कहाँ गया |
जब रंगबिरंगी राखी की
दुकानों पर पडती नजर
याद आती हैं वे गुमटियां
जो पहले सजा करती थीं |
घंटों बीत जाते थे
एक राखी खोजने में खरीदने में
जो भैया के मन भाए
पा कर खुशी से झूम जाए |
सुबह जल्दी उठ जाती
नए कपडे पहन तैयार होती
थाली सजाती दिया लगाती
घेवर और फैनी लाती |
टीका लगा आरती करती
राखी बाँध मुंह मीठा कराती
जैसे ही वह पैर छूता
मन मयूर दुआ देता |
जब एक रुपया
उपहार मिलता
बड़े जतन से उसे सहेजती
आज यह सब कहाँ |
ना भाई है न स्नेह उसका
बस रह गयी
यादें सिमिट कर
हृदय के इक कौने में |

आशा



07 अगस्त, 2011

वह और उसकी तन्हाई


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है पुरानी नैया
नया है खिवैया
आगे बढ़ना न चाहे
साँसें तक रुकती जाएँ |
हिचकोले खाए डगमगाए
रुकना चाहे
आगे बढ़ ना पाए
लगता नहीं आसान
उस पार जाना |
देख पवन का वेग
मस्तूल खींचना चाहे
पर पतवार का वार
उसे लौटा लाए |
है अजब संयोग
सरिता के संग
वो जाने का मन बनाए |
नहीं चाहती कोइ खिवैया
ना ही मस्तूल कोइ
बस चाहती है
मुक्त होना बंधन से |
काट कर सारे बंधन
जाना चाहती दूर बहुत
जहां कोइ खिवैया न हो
बस वह हो और उसकी तन्हाई |
आशा