17 फ़रवरी, 2011

क्या वह बचपना था

कई रंगों में सराबोर गाँव का मेला
मेले में हिंडोला
बैठ कर उस पर जो आनंद मिलता था
आज भी यादों में समाया हुआ|
चूं -चूं चरक चूं
आवाज उसके चलने की
खींच ले जाती उस ओर
आज भी मेले लगते हैं
बड़े झूले भी होते हैं
पर वह बात कहाँ जो थी हिंडोले में|
चक्की ,हाथी ,सेठ ,सेठानी
पीपड़ी बांसुरी और फुग्गे
मचलते बच्चे उन्हें पाने को
पा कर उन्हें जो सुख मिलता था
वह अब कहाँ|
आज भी खिलौने होते हैं
चलते हैं बोलते हैं
बहुत मंहगे भी होते हैं
पर थोड़ी देर खेल फेंक दिए जाते हैं
उनमे वह बात कहाँ
थी जो मिट्टी के खिलौनों में |
पा कर उन्हें
बचपन फूला ना समाता था
क्या वह बचपना था
या था महत्व हर उस वस्तु का
जो बहुत प्रयत्न के बाद
उपलब्ध हो पाती थी
बड़े जतन से सहेजी जाती थी |

आशा


15 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार
    बचपन के दिनों केइ याद दिला दी आपने
    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों....बेहतरीन भाव....खूबसूरत कविता...

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  2. बचपन कि यादें कभी नहीं भुलाई जा सकती

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  3. सचमुच आपने तो बचपन के मेलों की अपनी रचना के माध्यम से पुन: सैर करा दी ! इन्हीं खिलौनों को कितने जतन से हम लोग सहेजते सम्हालते थे ! बहुत मनभावन लगी आपकी यह रचना ! प्रेमचंद की 'ईदगाह' कहानी की याद आ गयी ! बहुत बढ़िया !

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  4. कई रंगों में सराबोर गाँव का मेला
    मेले में हिंडोला
    बैठ कर उस पर जो आनंद मिलता था
    आज भी यादों में समाया हुआ|

    बचपन की यादें ...!!
    आखों देखा हाल बताती कविता.
    अतीत की सुमधुर यादों से घिरी सुंदर रचना

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  5. था महत्व हर उस वास्तु का
    जो बहुत प्रयत्न के बाद
    उपलब्ध हो पाती थी
    बड़े जतन से सहेजी जाती थी
    mujhe bhi yahi lagta hai....sundar kavita.

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  6. अदभुत रचना आशा जी..
    शायद उन खिलोनो में एक बात थी जो अभी के खिलोनो में नहीं हैं..अपनी मिट्टी की महक..

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  7. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (19.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  8. बचपन याद आया ,सुंदर प्रस्तुति,आभार

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  9. आदरणीया आशा जी!

    सत्यम शिवम् जी की चर्चा के माध्यम से आज आपके ब्लॉग तक पहुँची और इस अनुपम रचना का आस्वाद लिया।
    जो वस्तु बहुत प्रयत्न के बाद प्राप्त होती है, उसकी मधुरिमा ही कुछ और होती है। प्रत्यनपूर्वक प्राप्ति में ही रस है, आनन्द है और उसी में तृप्ति बसती है।
    हस्तकलाओं की विशिष्टता यही है कि यद्यपि हर गुड़िया एक सी होती है परन्तु उसमें विभेद भी होता है, सबकी एक पहचान होती है। औद्योगिकीकरण ने वस्तु की ये विशेषता छीन ली, क्योंकि आज हर वस्तु के असंख्य क्लोन हैं, जो एक समान होते हैं।
    आज का शिशु मँहगे खिलौने तो पाना चाहता है, माता-पिता उसे दिलाते भी है, पर उसको पाकर उसे वैसी प्रसन्नता नहीं होती जैसी पहले के शिशुओं को एक गुडोया पाकर या मेला घूमने जाकर हुआ करती थी।
    आज के भीड़भाड़ में हर जगह मेा ही लगता है, ऐसे में एक बच्चे के लिये ‘मेला’ मात्र भीड़ समझ मेम् आता है।
    पहले बच्चों को प्रतीक्षा होती थी, उस दिन की जब वे अपने बड़ों के साथ मेला देखने जाते थे, वहाँ से खिलौने लाते थे, फिर उसे बहुत सहेजकर रखते थे।
    आज कोई प्रतीक्षा नहीम् होती, जहाँ जाओ वहीं से खिलौने ले आओ।
    यह परिवर्तन है, जो इतने दिनों में हुआ है।
    यद्यपि मेरे शैशव में भी बाजारू खिलौनो का बहुत चलन था, मुझे बहुत से मिले भी थे, रन्तु ये सब खिलौने वास्तव में मुझे उतनी तुष्टि नहीं देते थे, जितनी तुष्टि मुझे मेरे बाबाजी (grandfather)द्वारा लाये गये तोते से मिलती थी,जिसे वे जब सरयू नहाने जाते थे मेरे लिये लाते थे। उसमें एक रबर बँधा होता था, और जब मैं खींचती थी तो खूब उछलता था।

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  10. सच, बचपन की याद दिला दी आपने ....
    सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए बधाई।

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  11. बहुत अद्भुत रचना!
    पढ़कर हमें भी अपना बचपन याद आ गया!

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  12. बहुत सुंदर रचना .. सचमुच बचपन की याद आ गयी !!

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  13. आप सब का ब्लॉग पर आकर मेरा मनोबल बढाने के लिए बहुत बहुत आभार |मुझे लगता है बचपन से अच्छा जीवन कहीं नहीं होता |
    आशा

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  14. खूबसूरत कविता... बचपन की याद .....अपनी मिट्टी की महक
    Aahaaaaaa.......hriday tript ho gaya

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  15. बेहतरीन भाव...बहुत सुंदर रचना

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