23 मार्च, 2010

वह बालक

जब हम त्रिवेंद्रम में zoo में घूम रहे थे मैंथोडा पीछे रह गई |मैंने सोचा थोडा आराम करलूं |मैं एक बेंच पर बैठ गई |
इतने मैं स्कूली बच्चों का एक समूह उधरसे गुजरा |शायद वे जू देखने अपने स्कूल की तरफ से आये थे |थोड़ी देर
बाद हम चल पड़े |हम जानवरों को देखते हे धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे |
मेंने देखा की की एक बच्चा मुझसे कुछ कहना चाहता था |नाम पूछने पर उसने अपना नाम राज बताया |इतने मैं एक बन्दर ने जोर से दूसरे पेड़ पर छलांग लगी |राजू खुशी से चहका "beautiful"|कुछ समय बाद वह हमारे साथ
साथ चलने लगा |जैसेही नए पक्षी या जानवर को देखता बोलता "ब्यूटीफुल " या "फाईन "|वह ना तो हिंदी जनता था
और ना ही अंग्रेजी |मैने सोचा शायद स्कूल के बच्चों में से कोई पीछे छूट गया है |साथ चलते चलते वह इशारों से
व टूटी फूटी भाषा में मुझसे बातें करने लगा |उसने मुझे बताया की छह भाई बहिनों में वह सबसे बड़ा है |उसे उनकी
देखभाल भी करना पड़ती है |गरीबी के कारण अब वह स्कूल नहीं जाता |
खैर लगभग दो घंटे तक वह हमारे साथ रहा |उसके घर की करुण कथा सुन मुझे उसपर बहुत दया आ रही थी |
और तो और उसकी भोली सूरत और इशारे से जू का रास्ता गाइड करना बड़ा अच्छा लग रहा था | जब हम बाहर निकलने लगे, मैंने उसे ५ रुपये देने चाहे | उसके मुह से निकला."नो! बस इतना ही? इन्होंने उसे १० रुपये दे दिए |
जैसे ही उसे रुपये मिले, वह गेट के पास पहुँचकर आइस कैंडी खरीदने लगा | उसने हमें बाय कहा और सीधा भाग खड़ा हुआ |
मैंने सोचा भी ना था कि इतना सा बच्चा हमें सरलता से बुध्धू बनाकर पैसे ऐंठ लेगा | फिर भी जब कभी वह किस्सा याद आता है तो उसके शब्द "ब्यूटीफुल" और "फाइन" कानों में गूँजने लगते हैं | उस छोटे गाइड को अभी तक नहीं भूल पाई हूँ | अभी भी आइस क्रीम दिखाकर उसका हाँथ हिलाना और कहना,"अंकल यह देखो !" फिर भाग जाना मुझे याद आता है |

आशा

21 मार्च, 2010

मन कीथाह

मन की थाह नहीं होती
गति अविराम नहीं होती
मन चंचल यदि उड़ना चाहे
कोई रोक नहीं होती
जब चाहे स्वच्छंद रहे
या अम्बर की सैर करे
कोई ना छोर नज़र आता
अम्बर भी छोटा पड़ जाता
चिड़ियों के पंख लगा उड़ता
तारों से अठखेली करता
चंदा से दो बातें करके
प्यारा सा गीत सुना जाता
उमड़ घुमड़ जब बादल आते
झूम-झूम कजरी गाता
मन अनंग की थाह नहीं
उसको कोई न समझ पाता
नदियों की धारा में बहता
झरनों सा वह झर-झर बहता
कण-कण में बसता जाता
जब पुरवाई का झोंका आता
हिरणों के संग दौड़ लगाता
या जंगल में रमता जाता
बाधा यदि बीच में आती
खुद को बाधित कभी न पाता
भूत भविष्य सभी कालों में
या गहन विचारों में
गोते बारम्बार लगाता
मन चंचल है थाह नहीं
कोई लगाम न लगा पाता
वह क्या चाहे क्या है अपेक्षित
या फिर है वह कहीं उपेक्षित
कोई नहीं जान पाता
उस अनजाने की थाह नहीं 
उसकी गति में विराम नहीं|


आशा

19 मार्च, 2010

बेटी आज की

पान फूल सी बेटी मेरी ,
बुद्धि गजब की रखती है ,
भरा हुआ सलीका उसमें ,
बेबाक बात वह करती है ,
दृढ निश्चय है संबल उसका ,
जो ठाना कर लेती है ,
आत्म बल से भरी हुई है ,
सारे निर्णय लेती है ,
कोई क्षेत्र नहीं छूटा
जिसमें वह ना खरी उतरी ,
ऐसी कोई विधा ना छोड़ी
सब में रस वह लेती है ,
क्यों रहे किसी से पीछे ,
उसका मन यह कहता है ,
जो चाहे जैसा चाहे ,
पाकर ही दम लेती है ,
आरक्षण से कुछ भी पाना ,
यह नहीं स्वीकार उसे ,
माँ की नजरों से यदि तोलें ,
गुण सम्पन्न वह लगती है ,
समाज यदि नहीं बदले ,
आरक्षण नाकारा है ,
ऐसा सोच लिए मन में ,
वह कठिन डगर पर चलती है ,
नारी उत्थान नारी जागरण
सारे खोखले नारे हैं ,
यदि परिवर्तन नहीं सोच में ,
ये सारे शब्द बेचारे हैं ,
आरक्षण की बैसाखी ले कर ,
हिमालय पार नहीं होता ,
यदि दरार बड़ी हो तो ,
नारी उत्थान नहीं होता ,
पान फूल सी बेटी मेरी ,
सोच-सोच यह थकती है ,
कैसे बदले सोच हमारा ,
यह एक कठिन समस्या है ,
विषम परिस्थितियों में भी वह ,
नहीं किसी से डरती है |


आशा

18 मार्च, 2010

संगिनी

वह दूर खड़ी प्रस्तर प्रतिमा सी ,
एलोरा की मूरत है ,
बेहिसाब सुंदरता की ,
सहेजी गयी धरोहर है |
ना जाने कब अनजाने में ,
मन उस पर प्यार लुटा बैठा ,
सभी मुश्किलें भूल गया ,
अपनी उसे बना बैठा ,
ना कोई शिकवा न ही शिकायत,
ना कभी भाग्य पर रोती है,
सारे सुख दुख समेट बाहों में,
इत्मीनान से सोती है,
कैसी भी कठिनाई आये,
हिम्मत मुझे दिलाती है,
श्रम कण यदि उभरे माथे पर,
चुन-चुन उन्हें मिटाती है,
हर दिन होली है उसकी,
हर रात दीवाली आती है |
मीठी मुस्कान सदा अधरों पर,
सेवा भाव सदा नैनों में,
बेबाक बात मुख मन का दर्पण,
सदा विहँसती रहती है,
उसकी प्यारी न्यारी अदा,
मेरा मन हर लेती है,
तारों से माँग सजाती है,
चंदा की बिंदिया लगाती है,
सजी सजाई वह दुल्हन सी,
बेमिसाल हो जाती है,
हर रोज होली है उसकी,
हर रात दीवाली मनाती है,
हर काम सलीके का उसका,
मन क्यों ना हो केवल उसका,
गुण की खान कहूँ उसको,
या कहूँ चाँद का टुकड़ा,
कोई उपमा ना खोज पाया,
ये कैसी उसकी माया,
अपने मन मंदिर में मैं तो,
केवल उसे ही सजा पाया,
आने वाले कल का सपना,
उसके नैनों से झाँके,
जैसे ही उसको पाया,
भूल गया सब कुछ अब मैं,
वह है सुंदरता की मूरत,
कोई सहेजी गयी धरोहर है,
हर रोज होली है उसकी,
उसकी हर रात दीवाली है|

आशा

12 मार्च, 2010

विषमता

हे करुणाकर, हे अभयंकर
क्यूँ सबकी अरज नहीं सुनता
भूखों को अन्न नहीं देता
निर्धन को निर्धन रखता है |
जब कोई समस्या आती है
निर्धन को ही खाती है
महँगाई की मार उसे
भूखे पेट सुलाती है |
कोई नेता नहीं मरता
कहीं धनवान नहीं फँसता
बिना गेट के फाटक पर
केवल निर्धन ही कटता है |
कैसा तेरा न्याय अनोखा
धनिकों का घर भरता है
नेता यदि आड़े आए
उसको भी खुश रखता है |
जब आता भूकंप कभी
दरार न होती महलों में
केवल घर तो निर्धन का ही
ताश के घर सा ढहता है |
जो गरीबी में जन्मा
निर्धनता से मरता है !
घावों में टीस उभरती है
पस तिल-तिल करके रिसता है|
नेता हो यदि बीमार कभी
इलाज विदेश में होता है
आम आदमी तो बस
अंतिम साँसें ही गिनता है |
तेरी लाठी बेआवाज
सब पर वार नहीं करती
निर्धन पिसता जाता है
धनवान अधिक पा जाता है |
दिन दूना रात चौगुना
नेता फलता जाता है
एक नहीं फल पाये तो
अन्यों को उकसाता है |
क्यों बनाया अंतर इतना
क्यों न्याय सही ना कर पाया ?
हे कमलाकर, हे परमेश्वर
यह है तेरी कैसी माया |

आशा

11 मार्च, 2010

ऐसे देखा वनराज

मुझे नई जगह देखने और नए स्थानों पर घूमने मेंबहुत आनंद आता है |कुछ समय पूर्व गुजरात जाने का अवसर मिला |सोमनाथ और द्वारिका जाना है ,सोच कर ही मन प्रफुल्लित होने लगा |जल्दी ही आरक्षण भी करवा लिया |
जैसे ही ट्रेन चली ,लगा बहुत दिनों की तमन्ना बस पूरी हुई जाती है |ट्रेन की गति के साथ ही मन भी कल्पना जगत में विचरण करने लगा |कब नींद आई पता ही नहीं चला |जब नींद खुली अहमदाबाद आने वाला था |जल्दी से
सामान समेटा और स्टेशन पर उतर गए व् बस स्टॉप की और चल पड़े |
द्वारिका जाने वाली बस तो जा चुकी थी |सोमनाथ जाने वाली बस रात को आठ बजे जाती थी |अतः दिन भर अहमदाबाद घूमा |ठीक समाय पर बस स्टॉप आ कर अपनी आरक्षित सीट पर बैठ गए |इतने थके हुए थे कि पता ही नहीं चला कि कब अहमदाबाद पीछे रह गया |
नींद के आगोश में ऐसे खोये कि बेरवाल आ कर ही आँख खुली |वहां से सोमनाथ के लिए एक मोटर साइकल
पर बने टेम्पो की सबारी की और गन्तब्य तक पहुंचे |सुबह कि ठंडी हवा ,समुद्र का किनारा और मीठा नारियल
पानी ,मन को बहुत भाया |पास के ही होटल में ठहर कर थोडा विश्राम किया और सोम नाथ जी के दर्शन किये |
अब हमारे पास सारा दिन पड़ा था |सोचा क्यों न गिरी अभ्यारण्य जाएं | होटल वाले ने टेक्सी की व्यवस्था कर
दी |हम फिर से बेरवाल होते हुए गिरी अभयारण्य की और चल दिए|
चारो और हरियाली और पक्षियों का कलरव ,मन में उत्साह भरने लगा |रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला |
वहां जा कर टिकिट खरीदे और सफारी में जाने के लिए अपने नम्बर का इंतजार करने लगे |इंतज़ार के ये क्षण
बहुत कठिन थे |कुछ लौट कर आने वालों से पता चला कि वे सिंह नहीं देख सके |वह शायद भोजन कर कहीं निकल गया था |
मन में उदासी छाने लगी |सोचा यदि वनराज ही नहीं दिखा तो इतनी दूर आने से क्या लाभ |इतने में जीप आ
गयी और उस पर सवार हो अपने गंतब्य कि और चल पड़े |हमारे साथ ८ लोग और भी थे |साथ आया गाइड बता
रहा था "रात को सिंह राज ने बड़ा शिकार किया था |अब कहीं सो रहा होगा |मैं यदि सिंह के दीदार न करा पाऊं
तो कैसा गाइड ?आप तो निश्चिन्त रहो साहब वह हमें जरूर मिलेगा |"
जीप में अब हम छोटी २ पगडंडियों पर घूम रहे थे |चारों और धूलही धूल,हरियाली तो केवल नदी के किनारे ही
थी |बड़े पेड़ जरूर दिखाई दे रहे थे |एक जीप लौट कर आ रही थी |गाइड ने उससे बात कीऔर तुरंत ही अपना रास्ता बदलने को कहा |हम लोगों को सुई पटक सन्नाटा बनाए रखने को कहा |जीप की गति बहुत धीमी करवा ली |
जैसे ही जीप रुकी हमने देखा कि लगभग १० फिट कि दूरी पर वनराज सोया हुआ था |उसके विशालकाय शरीर
में
न तो कोई हलचल थी न ही आवाज |वह शिकार खा कर दोपहर कि धूप का आनंद ले रहा था |उसने धीरे से आँखे
खोलीं ,इधर उधर देखा और फिर से सोने कि मुद्रा में आ गया |कल्पना के परे था कि इतना शांत वन राज होगा |तभी गाइड नीचे उतरा और एक छोटा सा कंकड उसकी और फेका |वनराज ने सर उठाया ,हुनकर भरी और फिर आँख बंद कर ली |
हमारी जीप धीरे २ रेंगने लगी |वनराज पर इसका कोइ प्रभाव नहीं था |वह तो अपने आराम में इतना ब्यस्त था कि किसी का आना जाना उसके लिए बेमानी था |उसका आकार प्रकार देखते ही बनता था |सच में वन का राजा अपने आप में बेमिसाल था |
फिर जीप ने गति पकड़ी और आधे घंटे बाद हम गिरी अभयारण्य के बाहर थे |आज भी वह द्रश्य आँखों के सामने
घूम जाता है |
आशा

10 मार्च, 2010

तितली


मैं तितली रंगों से भरी
ऋतुराज क्यूँ न खेले होली
बंधन है आलिंगन है
या मन का स्पन्दन है
आखिर है यह कैसा विधान
मैं खुद ही बेसुध हो जाऊँ |
फूलों भरी वादियों में
जब विचरण करती हूँ
इस फूल से उस फूल तक
पंख फैलाकर उडती हूँ |
बच्चे बूढ़े और सभी जन
मेरे रंगों में उलझे
मन भाया फूल मुझे चाहे
मुझ पर अपना प्यार लुटाये
पैरों में लिपट चिपट जाये
खुशबू से तन महका जाये |
फिर और तेज मैं उड़ती
सुरभि से सब को भरती
वासंती बयार मुझे
खींचे अपनी ओर
फूलों से लदे पेड़ भी
ललचाते अपनी ओर |
मैं प्याली रंगों से भरी
तरह-तरह के रंग सजे
फागुन के मीठे गीत सुने
ऋतुराज मिलन को तरस रहे |
जब मैं वादी में घूमूँ
फूलों के रंग चुरा लाऊँ
अपने पंखों पर लगा उसे
सब के मन रंगती जाऊँ |
मैं तितली रंगीन
सब के मन को बहकाऊँ
प्रत्येक फूल मुझे चाहे
अपने में भरना चाहे
पर मैं बंधन से रहूँ दूर |
मौसम में खुशियाँ भर कर
केवल मन स्पंदित कर
उनके मन को बहकाऊँ
मैं तितली रंगीन
खुले व्योम में उड़ती जाऊँ |
छोटा सा जीवन मेरा
फूलों में रमती जाऊँ
मैं तितली रंगों से भरी
प्रकृति की अनमोल छवि
ऋतुराज संग खेलूँ होली |

आशा