31 अगस्त, 2010

सूखी डाली

है आज वह सूखी डाली ,
जो शोभा बढाया करती थी ,
कभी किसी हरे वृक्ष की ,
फल फूलों से लदी हुई वह ,
आकर्षित सब को करती थी ,
उस डाली पर बैठे बैठे ,
पक्षियोंकी चहचहाहट,
फुर्र से उड़ना उनका ,
बापिस वही लौट आना ,
घंटों बैठ चोंच लड़ाना ,
बहुत अच्छा लगता था ,
जाने कितना आकर्षण ,
उसमे होता था,
पथ से गुजरते राही ,
जब उसे निहारते थे ,
आत्म विभोर हो जाते थे ,
फल प्राप्ति की चाहत में ,
कई प्रयत्न किया करते थे ,
जब फल पकते और टपकते थे ,
कई जीव पेट अपना भरते थे ,
जीवन में हरियाली छाई थी ,
नामोंनिशां उदासी का न था ,
पर अब वह सूख गई है ,
उस पर उल्लू बैठा करते है ,
उसकी अवहेलना सभी करते हैं ,
ध्यान कहीं और रहता है ,
शिकार कई खोज में रहते हैं ,
जब लकड़हारा देख उसे ,
काटने के लिए चुन रहा है ,
वह और उदास हो जाती है ,
वृद्धावस्था की तरह ,
उसकी कमर झुक जाती है ,
एक दिन काटी जाएगी ,
अग्नि को समर्पित की जाएगी ,
उसकी जीवन लीला की ,
ऐसे ही समाप्ति हो जाएगी ,
वह सूख गई है ,
कभी हरी ना हो पाएगी ,
सोचती हूं ,विचारती हूं ,
इस क्षणभंगुर जीवन की ,
और कहानी क्या होगी |
आशा

30 अगस्त, 2010

मैं कुछ लिखना चाहती हूं

इच्छा कुछ लिखने की ,
बचपन से थी ,
रहती थी अध्यन रत,
तब भी चाहे जब ,
अंदर छिपे कवि की ,
छबि दिखाई देती थी ,
कभी कभी लिखती थी ,
साहित्यकार बनने की ,
अभिलाषा भी रखती थी ,
पर था दायरा सीमित ,
जब भी कुछ लिखा ,
केवल पत्रिका के लिए ,
उसमे छप भी जाता था ,
तब लेखन से ,
इतना ही मेरा नाता था ,
जब अध्यापन का क्षेत्र चुना ,
समय की कोई कमी न थी ,
अध्ययन में मन लगता था ,
वही विचारों में प्रस्फुटित होता था ,
मंच पर आने की चाहत ,
मन में घर करने लगी ,
और निखार आया लेखन में ,
सपने सच्चे होने लगे ,
विचारों का झरना बहने लगा ,
दामन खुशियों से भरने लगा ,
देख पल्लवित होती आकांक्षा ,
मन मुक्त आकाश में उड़ने लगा ,
अब मैं लिखना चाहती हूं ,
आने वाली पीढ़ी के लिए ,
बीता कल ना लौट पाएगा ,
पर संदेश कविताओं का ,
मन में घर करता जाएगा ,
मैं क्रांतिकारी तो नहीं ,
पर सम्यक क्रांति चाहती हूं ,
हूं एक बुद्धिजीवी ,
प्रगति देश की चाहती हूं |
आशा

29 अगस्त, 2010

कोई साथ नहीं देगा

प्रतिस्पर्धा के इस युग में ,
सभी  व्यस्त अपने अपने में
जब कोई कठिन समस्या हो
या सहायता की आवश्यकता
देख कर भी अनदेखा कर देते है
उससे किनारा के लेते हैं |
समस्या में ना उलझ कर
बच कर निकल आने पर
बहुत प्रसन्न हो जाते हैं
निजी स्वार्थ में लिप्त हो
आत्म केंद्रित हो जाते हैं
समाज से भी कटते जाते 
यदि ऐसा ही चलता रहा
आने वाले समय में
यह दुःख का कारण होगा
जब खुद पर मुसीबत आएगी
तब कोई साथ नहीं देगा
सहायता के लिए गुहार करोगे
आसपास कोई ना होगा
हर व्यक्ति मुंह मोड लेगा
समाज भी आइना दिखा देगा |
आशा

28 अगस्त, 2010

एक झलक

है नई जगह अनजाने लोग ,
फिर भी अपने से लगते हैं ,
हैं भिन्न भिन्न जीवन शैली ,
भाषा भी हैं अलग अलग ,
पर सब समझा जा सकता है ,
उनकी आत्मीयता और स्नेह ,
गति अवरोध दूर करते हैं ,
आसपास नए चेहरे ,
पर गहराई उनके स्नेह में,
उस ओर आकर्षित करती है,
हैं वे सब भारतवासी ,
साहचर्य भाव रखते हैं ,
भेद भाव से दूर बहुत ,
सब से प्रेम रखते हैं ,
अनेकता में एकता की ,
झलक यदि देखना है ,
तो आओ इस देश में ,
इतना प्यार तुम्हें मिलेगा ,
डूब जाओगे अपनेपन में ,
गर्व करोगे अतिथि हो कर ,
और जब बापिस जाओगे ,
जल्दी फिर लौटना चाहोगे |
आशा

26 अगस्त, 2010

स्मृतियां


सुरम्य वादियों में
दौनों ओर वृक्षों से घिरी ,
है एक पगडंडी ,
फूल पत्तियों से लदी डालियाँ ,
हिलती डुलती हैं ऐसे ,
जैसे करती हों स्वागत किसी का ,
चारों ओर हरियाली ,
सकरी सी सफेद सर्पिनी सी ,
दिखाई देती पगडंडी ,
जाती है बहुत दूर टीले तक ,
एक परिचिता सी ,
पहुंचते ही उस तक ,
गति आ जाती है पैरों में ,
टीले तक खींच ले जाती है ,
कई यादें ताजी कर जाती है ,
लगता है टीला,
किसी स्वर्ग के कौने सा ,
और यादों के रथ पर सवार ,
हो कर कई तस्वीरें ,
सामने से गुजरने लगती हैं ,
याद आता है वह बीता बचपन ,
जब अक्सर यहाँ आ जाते थे ,
घंटों खेला करते थे ,
बड़े छोटे का भेद न था ,
केवल प्यार ही पलता था ,
कभी न्यायाधीश बन ,
विक्रमादित्य की तरह ,
कई फैसले करते थे ,
न्याय सभी को देते थे ,
जब दिखते आसमान में ,
भूरे काले सुनहरे बादल ,
उनमे कई आकृतियाँ खोज , ,
कल्पना की उड़ान भरते थे ,
बढ़ चढ कर वर्णन उनका ,
कई बार किया करते थे ,
छोटे बड़े रंग बिरंगे पत्थर,
जब भी इकठ्ठा करते थे ,
अनमोल खजाना उन्हें समझ ,
गौरान्वित अनुभव करते थे ,
खजाने में संचित रत्नों की ,
अदला बदली भी करते थे ,
बचपन बीत गया ,
वह लौट कर ना आएगा ,
वे पुराने दिन ,
चल चित्र से साकार हो ,
स्मृतियों में छा जाते हैं ,
वे आज भी याद आते हैं |
आशा

23 अगस्त, 2010

घुँघरू

बंधी किंकिणी कमर पर
पहने पैरों में पैजनिया
जब ठुमक ठुमक चलता
सुनाई देती ध्वनि घुंघरूओं की
थामना चाहती उंगलियां
कहीं चोट न लगाजाए |
चाहती हूं थामूं उंगली उसकी ,
कहीं चोट ना लग जाए |
कारे कजरारे नयनो वाली
है अवगुंठन चहरे पर
चूड़ियों की खनक से
पैरों में सजी पायलों से
देती है झलक अपने आगमन की
पायलें भी ऐसी जो बोलती हैं
मन के भेद खोलती हैं
हैं हमजोली नूपुर की |
मीरा ने घुँघरू बांधे थे
वह कृष्ण प्रिया हो गयी
सुध बुध खो नृत्य करती
थी भक्ति भाव में सराबोर
आती है मधुर ध्वनि घुँघरू की
आज भी मीरा मंदिर से |
है मंदिर प्रांगण में आयोजन
सजधज कर आई बालाएं
हो विभोर नृत्य कर रहीं
उनका पद संचालन
और झंकार घुंघरूओं की
पहुंचती है दूर तक
प्रसन्न होता मन
वह मधुर झंकार सुन |
है पंडाल सजा सजाया
मंच पर पड़ती थाप
नर्तकियों के पैरों की
घुँघरूओं के बजाते ही
सब उसी रंग में रंगते जाते |
है घुंघरुओं की खनक सब मैं
पर हर बार भिन्न लगती है
पैरों के घुँघरू बचपन के
तो कभी हैं अभिसारिका के
कभी नाइका की पदचाप
तो कभी चंचल मोरनी की
थिरकन से लगते हैं |
घुँघरू हैं वही पर
हर बार भाव भिन्न और
बजने का अंदाज भिन्न
एक घुंगरू भी यदि अलग हो जाए
असहाय सा हो जाता है
अपना अस्तित्व
खोजता रहा जाता है |
है घुँघरू आधार नृत्य का
वह उसके बिना अधूरा है ,
बिना घुँघरू की मधुर धुन के ,
जीवन भी सूना सूना है |
आशा

22 अगस्त, 2010

जब रात होती है

जब रात होती है ,
नींद अपने बाहों में लेना चाहती है ,
तभी एक अनजानी शक्ति ,
अपनी ओर खिचती है ,
आत्म चिंतन के लिए बाध्य करती है ,
दिन भर जो कुछ होता है ,
चल चित्र की तरह आता है ,
आँखों के समक्ष ,
दिन भर क्या किया ?
विचार करती हूं ,
कभी विचारों में ठहराव भी आता है ,
गंभीर चिंतन और मनन
मन नियंत्रित कर पाता है ,
जो उचित होता है ,
कुछ खुशियाँ दे जाता है ,
पर जब त्रुति कोई होती है ,
पश्चाताप होता है ,
कैसे उसे सुधार पाऊं ,
बारम्बार बिचारती हूं ,
जाने कब आँख लग जाती है ,
कब सुबह हो जाती है ,
यह भी पता नहीं चलता ,
कभी अहम बीच में आता है ,
क्षमा याचना मुश्किल होती है ,
कहाँ गलत हूं जानती हूं ,
फिर भी स्वीकर नहीं करती ,
सोचती अवश्य हूं ,
भूल तुरंत सुधार लूं ,
एक निश्प्रह व्यक्ति की तरह ,
जब सोच पाउंगी ,
तभी अपने अंदर झांक पाउंगी ,
है यह कठिन परीक्षा की घड़ी,
फिर भी आशा रखती हूं ,
आत्म नियंत्रण कैसे हो ,
इसका पूरा ध्यान रखूंगी |
आशा