25 अक्तूबर, 2010

व्रत

एक दिन एक व्रत लिया
दिन भर खड़े रहने का
सारे दिन मौन रहने का
सोचा दिन भर चुप रहूंगी
एक भी शब्द ना कहूंगी
पर जैसे ही सुबह हुई
आवाजों का क्रम शुरू हो गया
और मौन टूट गया
उस पर भी  था उल्हाना 
जबाब क्यूं नहीं देतीं
कब से पुकार रहे हें
तुम ध्यान नहीं देतीं
इतना शुब्ध मन हुआ
बैठने का मन हुआ
और प्रण टूट गया
फिर सोचा पूजा करू
निर्जला व्रत रखूं
आधा दिन तो बीत गया
फिर सहनशक्ति ने कूच किया
और उपवास टूट गया
जब भी व्रत रखती हूं
कई व्यवधान आते हें
कारण चाहे जो भी हो
हो जाता है मन विचलित
सोच रही हूं अब मैं
कोई उपवास नहीं रखूं
आस्थाओं पर टिक न पाती
सारी महानत व्यर्थ जाती
ऐसे व्रत से लाभ क्या 
जो पूर्ण नहीं हो पाता
मन असंतुलित कर जाता
सत् कर्म से अच्छा
शायद ही कोई व्रत होता हो
मन चाहता उसी पर अडिग रहूं
आस्था उसी पर रखूं |
आशा

24 अक्तूबर, 2010

एक गज़ल लिखूं

दिल से आवाज आई है ,
कि एक गज़ल लिखूं
वीरान फ़िजाओं पर,
कुछ न कुछ कहूं ,
मंजर उदास लम्हों का ,
कैसे बयां करू,
लफ्ज़ों का कोई ,
ज़खीरा नहीं मिलता ,
दिल में उठे गुबार का ,
कोई हमराज नहीं मिलता ,
रहता हूं तन्हां तन्हां ,
अपना वजूद खोजता हूं ,
गर तेरे दामन की हवा ,
तनिक छू गई होती ,
शायद कोई सितम ,
और ना सहा होता ,
सिलसिला गज़ल का ,
शुरू हुआ होता ,
जलती शमा कि रोशनी में ,
परवाने की तरह ,
शब् भर रहा होता ,
नज्म यूँ ही न बनी होती ,
गर मेरे दिल से ,
आह न निकली होती |
आशा

23 अक्तूबर, 2010

पर्वत पर बिछी सफेद चादर

पर्वत पर बिछी श्वेत चादर
  और धवल धरा सारी  
लगती बेदाग़ सफेद चादर सी 
 है सिंधु उदगम यहीं पर 
 यह है रेगिस्तान बर्फ का
  दुनिया की सबसे ऊँची सड़क
 जिस पर गुजरते वाहन 
 नहीं वह भी अछूती बर्फ से 
 यदि विहंगम द्रष्टि डालें 
 दिखती है बिछी सफेद चादर सी 
 जाड़ा कम ही लगता है 
 जब गुजरते सड़क से 
 फिर भी भय रहता है 
 कहीं फिसल ना जाएं 
 कोई हादसा ना हो जाए 
, गाड़ी पिघलती बर्फ 
 और बर्फीला द्रश्य 
 कहीं कहीं पानी सड़क पर 
धीमी गति से गाडी बढ़ना 
 लगता है पैदल चल रहे हें 
एक ओर दीवार बर्फ की 
दूसरी ओर गहरी खाई 
रूह कांप जाती है 
जब दृष्टि पडती खाई पर 
वहाँ बने बंकरों में 
 रहते देश के रक्षक 
 होता जीवन कठिन उनका 
 पर सच्चे निगहवान देश के 
 सदा प्रसन्न होते हें 
 जब मिलते किसी भारत वासी से 
 देख उनकी कठिन तपस्या 
 श्रद्धा से नत होता मस्तक | 
आशा

22 अक्तूबर, 2010

है जीवन काँटों की बस्ती ,

है जीवन काँटों की बस्ती ,
जो भी इस में रहता है
,बच नहीं पाता उनसे ,
एक ना एक चुभ ही जाता है ,
सहन करना है बहुत कठिन ,
मिलता दंश जो उससे ,
कभी नहीं मिट पाता |
है जीवन दुखों का समुन्दर ,
यदि तैरना नहीं आता ,
कोई बाहर निकल नहीं पाता ,
तब डूब ही जाना है ,
व्यर्थ है हाथ पैर मारना |
हर ओर निराशा ही हो ,
आशा की किरण,
न दिखाई दे ,
हो छुपी कहीं गहरे में ,
उसकी एक झलक पा कर ,
जीवन हरा भरा होता है ,
पर है वह क्षणिक ,
उसमे यदि खो जाओ ,
स्वयं को भी भूल जाओ ,
ढेरों खुशियाँ आ सकती हें |
पर जीना केवल अपने लिए ,
है नहीं उचित किसी के लिए ,
है परोपकार भी आवश्यक ,
थोड़ा हित किसी का हो ,
तब उसमे है बुराई क्या |
जो कुछ भी करोगे,
वह यादों में रह जाएगा ,
जो किया अपने लिए,
उसे ना कोई जानेगा ,
ना ही तुम्हें पहचानेगा ,
तुम कृपण समझे जाओगे ,
यदि काम किसी के ना आओगे |
विहंगम द्रष्टि डाल कर देखो ,
जिसने भी परोपकार किया ,
छोड़ कर दुनिया भी चल दिया ,
पर दुनिया ने उसे,
बारम्बार याद किया ,
यथोचित सम्मान दिया |
आशा

21 अक्तूबर, 2010

उन यादों में खो जायें



यहां आओ पास बैठो हम उन यादों में खो जाएं
वे गीत गुनगुनाएं जो कभी गाया करते थे
उन्हें रचते थे एक दुसरे को सुनाया करते थे
मुझसे कहीं दूर न जा सकोगे

अटूट प्यार के बंधन को यूं ठुकरा न सकोगे
कैसे भुला पाओगे
जब भी यह मौसम आएगा उन यादों को साथ लाएगा
बार बार वहीँ ले जाएगा
जहां कभी हम मिलते थे अपनी रचनाएं गाते थे
कई धुनें बनाते थे
जब भी आँखें बंद करोगे याद आएंगे वे लम्हें
आखें नम हो जाएगीं
उन्हें विदा ना कर पाओगे
ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिसे सच समझ बैठे
कुछ ऐसा कर गए
जिसे सोचना भी कठिन था
अब सीख लिया है वह चर्चा कभी ना हो
जो दिल में चुभ जाए
 घाव कर जाए हमें दुखी कर जाए
कभी लव पर वे बातें नहीं आएंगी
गैरों के समक्ष चर्चा का विषय ना बन पाएंगी
चिंता नहीं है कि लोग क्या कहेंगे
पर बंधन यदि टूटा
मुझे मिटा कर रख देगा जीवन वीरान कर देगा
है मेरी इच्छा बस इतनी
हम दौनों फिर से गीत लिखें पहले से प्यार मैं खो जाएं
मेरी  अधूरी चाह छोड़
तुम कहीं भी ना जा सकोगे
यदि भूले से हुआ ऐसा मुझे कभी ना पा सकोगे
फिर एकाकी कैसे रह पाओगे |
आशा

19 अक्तूबर, 2010

है कितना आकर्षण

तुम नहीं जानतीं ,
है कितना आकर्षण,
समझो या ना समझो ,
मैं कुछ कहना चाहता हूं ,
तुम्हें मांगना चाहता हूं ,
हूं बहुत उलझन में ,
क्या करूं ,किससे कहूं ?
दिन तो कट ही जाता है ,
पर रात काटना बहुत कठिन है ,
मैं तुम्ही में खोया रहता हूं ,
सपनों में तुम्हें देख,
नींद भी धोख दे जाती है ,
तुम्हारी कही हर बात ,
बार बार याद आती है ,
है कारण इसका क्या ,
मुझे नहीं मालूम ,
दिन में याद कहां जाती है ,
रात में ही क्यूं आती है ,
मैं नहीं जानता ,
मेरे लिए क्या सोचा तुमने ,
क्या विचार तुम्हारे मन में ?
पर है इतना अवश्य ,
आकर्षण प्रेम नहीं होता ,
उसे पाने के लिए ,
होता आवश्यक,
मध्यस्त का होना ,
अभी तक सोच नहीं पाया ,
आखिर वह होगा कौन ,
जो तुम तक पहुंचाएगा ,
तुम से संबंध जुड़वाएगा,
यदि तुम भी चाहो ,
और तुम्हारी इच्छा हो,
तभी कोई बात होगी ,
मेरी चाहत पूर्ण होगी ,
अनचाहा रिश्ता नहीं चाहता ,
हो कोई बोझ ह्रदय पर ,
मैं ऐसा भी नहीं चाहता ,
हो संबंध ऐसा,
जिसमें सहमत दौनों हों ,
खुशियां ही खुशियां हों ,
तभी सार्थक होता है ,
सफलता की,
प्रथम सीड़ी होता है |
आशा

17 अक्तूबर, 2010

हुई सुबह सूरज निकला

हुई सुबह सूरज निकला ,
हुआ रथ पर सबार ,
धीमी गति से आगे बढ़ा ,
दोपहर में कुछ स्फूर्ति आई ,
फिर अस्ताचल को चला ,
और शाम होगई ,
मन की बेचैनी और बढ़ गई ,
एकाकी सदासे रहता आया ,
ना कोई संगी नाकोई साथी ,
सूना घर सूना चौराहा ,
था बस तेरा इन्तजार ,
पर तू भी ना आया ,
सुबह से शाम यूंही होगी ,
बिना बात की सजा होगई ,
राह देख थक गई आँखें ,
मन पत्थर सा होने लगा ,
पर आशा की एक किरण ,
कहीं छिपी मन के अंदर ,
उसकी एक झलक नजर आई ,
जब दस्तक दी दरवाजे पर ,
होने लगा स्पंदित मन ,
देख तुझे अरमान जगे ,
मन को कुछ सुकून मिला ,
पत्थर पिघला मोम हुआ ,
सारी बेचैनी सारा गुस्सा ,
जाने कहां गुम हो गया ,
मेरी बगिया गुलजार कर गया |
आशा







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