20 मई, 2011

व्यथा दो राहों की


दो राहें अनवरत
सतत आगे बढ़तीं
मिलतीं चौराहे पर
अपनी व्यथा बांटने के लिए |
लगती बहुत आहत
तपते सूर्य की गर्मीं से
बेहाल हैं ,झुलस रही हैं
क्यूँ कि आसपास के
वृक्ष जो कट गए हैं |
छाँव का नामोंनिशान नहीं है
ऊपर से आना जाना
भारी वाहनों का
काँप जाती हैं वे
उनकी बेरहम गति से |
अंतस में हुए गर्त
कारण बनते
दुर्घटनाओं के
लेते परीक्षा उनके धैर्य की |
पर वे हैं कहाँ दोषी
अपराधी तो वे हैं
जिनने उन्हें बनाया है |
वे तो जूझ रही है
अनेकों समस्याओं से
परीक्षा दे रही है
अपने धैर्य की |
कभी तो कोई तरस खाएगा
उनके किनारे पेड़ लगाएगा
हरियाली जब होगी
तपते सूरज से
कुछ तो राहत मिलेगी|
आशा


19 मई, 2011

मेरी सोच कुछ हट कर





तू है सागर की उर्मी सी
संचित ऊर्जा की जननी सी
कैसे शांत रह पाएगी
तट बंध यदि छोड़ा
अपनी राह भटक जाएगी |
जैसे ही सीमां लांघेगी
कई सुनामी आएंगी
आसपास के जन जीवन को
तहस नहस कर जाएँगी |
क्या तेरी संचित ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं होगा
केवल विध्वंसक ही होगी
विनाश का कारण बनेगी |
पर मेरा सोच है कुछ हट कर
तेरी गति तेरा चलन
मन को सुख देता हर दम
तेरे साथ चलने में
वह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |

आशा

18 मई, 2011

कहर गर्मी का


कड़ी धूप लू के थपेड़े

बहुत कष्ट देते हैं

जब पैरों में चप्पल ना हों

डम्बर तक पिघलने लगता है

पक्की सड़क यदि हो |

धरती पर पडती दरारें

गहरी होती जाती हैं

लेती रूप हवा अंधड का

गुबार उठता रोज धूल का

बढता जाता कहर गर्मी का |

फिर भी कोई काम नहीं रुकता

निर्वाध गति से चलता रहता

बस गति कुछ धीमी होती है

दोपहर में सड़कें अवश्य

सूनी सी लगती हैं |

यह तपन गर्मी की चुभन

ऊपर से आँख मिचौली बिजली की

हर कार्य पर भारी पड़ती है

जाने कितने लोगों का

जीवन बदहाल कर देती है |

होता जन जीवन अस्त व्यस्त

पर एक आशा रहती है

इस बार बारिश अच्छी होगी

क्यूंकि धरती तप रही है

उत्सुक है प्यास बुझाने को |

अच्छी बारिश की भविष्य वाणियां

मन को राहत देती हैं

कभी सत्य तो कभी असत्य भी होती हैं

फिर भी वर्तमान में

कटते पेड़ तपती दोपहर

और बिजली की आवाजाही

सारी सुविधाओं के साधन

यूँ ही व्यर्थ कर देती हैं |

सब इसे सहते हैं सह रहे हैं

आगे भी सहते जाएंगे

प्रकृती से छेड़छाड़ का

होता है यही परिणाम

इससे कैसे बच पाएगे |

आशा

17 मई, 2011

कितने अच्छे लगते हो


(१)
कितने अच्छे लगते हो तुम
जब अध् खुली आँखों से देखते हो
अधरों पर मीठी मुस्कान लिए
मन के भाव सहेजते हो |
(२)
यह भावों का दर्शाना
कुछ कहना कुछ छिपा जाना
अनोखी अदा लगती है
गालों पर डिम्पल का आना |
(३)
यही अदा आकर्षित करती
जीवन में रंग सुनहरे भरती
जब भी बंद आँखें होतीं
तुम्हारी छबी सामने होती |

आशा

16 मई, 2011

है वंचित स्नेह से

आशाओं पर टिकी हुई है
हताश भी कभी होती है
क्यूँ कि है वंचित स्नेह से
बच्चों की हर आहट पर
चौंक सी जाती है
कोई नहीं आता
वह आस लगाए रहती है |
जाने कितने कष्ट सहे थे
उन्हें बड़ा करने में
पर सब तिरोहित हो जाते थे
चहरे पर भोली मुस्कान देख |
अब वही बातें याद आती हैं
गहराई तक साल जाती हैं
सात फेरे क्या लिए
वे वर्तमान में खो गए
किसी और के हो गए |
जो थे कभी माँ के बहुत निकट
सब हैं अब अलग
है गहरी खाई दौनों के संबंधों में |
बस एक ही वाक्य याद है उसे
"आपने क्या विशेष किया ,
यह तो था कर्तव्य आपका "
ये शब्द पिघलते सीसे से
जब कान में पड़ते हैं
वह अंदर तक दहल जाती है |
अंदर से आह निकलती है
क्या वे कभी बूढ़े नहीं होंगे
उनके बच्चे भी वही करेंगे
जो आज वे कर रहे हैं |
फिर भी जाने क्यूँ
वह राह देखती रहती है
बच्चों के बच्चों की
हल्की सी आहट भी उसे
कहीं दूर ले जाती है
अपने बच्चों के बचपन में
पल भर के लिएभूल जाती है
वे किसी और के हो गए हैं |

आशा



14 मई, 2011

साकार होती कल्पना



मंथर गति से चलती

गज गामिनी सी

वह लगती ठंडी बयार सी

जो सिहरन पैदा कर जाती |

कभी अहसास दिलाती

आँखों में आये खुमार का

मन चंचल कर जाती

कभी झंझावात सी |

ना है स्वयम् स्थिर मना

ना चाहती कोई शांत रहे

पर मैं तो कायल हूँ

उसके आकर्षक व्यक्तित्व का |

है वह बिंदास और मुखर

क्या चाहती है मैं नहीं जानता

पर चंचल हिरनी सी

चितवन यही

जहां भी ठहर जाती है

एक भूकंप सा आ जाता है

जाने कितने दिलों में

बजती शहनाई का

दृश्य साकार कर जाता है |

उसका यही रूप

सब को छू जाता है

हर बार महकते गुलाब की

झलक दिखा जाता है |

मन के किसी कौने में

उसका विस्तार नजर आता है

है इतनी प्यारी कि

उसे भुला नहीं पाता |

यही सोच था

बरसों से मन में

जो सपनों में साकार

होता नजर आता |

आशा

12 मई, 2011

जब कंचन मेह बरसता है


जब कंचन मेह बरसता है
वह भीग सा जाता है
जितना अधिक लिप्त होता है
कुछ ज्यादा ही भारी हो जाता है |
उस बोझ तले
जाने कितने
असहाय दब जाते हैं
निष्प्राण से हो जाते हैं |
वर्तमान में यही सब तो हो रहा है
धनिक वर्ग का धन संचय
दिन दूना रात चौगुना
बढाता ही जा रहा है |
अपनी बदनसीबी पर निर्धन
महनत कर भी रो रहा है
शायद ईश्वर ने भी सब को
बाँट कर खाना नहीं सिखाया |
कुछ ने तो भर पेट खाया
और कुछ को भूखा सुलाया
बड़े तो सह भी लें
पर नन्हीं जानों का क्या करें |
यदि पेट में अन्न ना हो
सोने का नाम नहीं लेते
उनका रोना हिचकी भर भर
विध्वंसक विचार मन में लाता है |
नकारात्मक सोच उभरते हैं
मन विद्रोही हो जाता है
भूले से कोई सज्जन भी हो
वह भी दुर्जन ही नजर आता है |
आशा