28 मई, 2011

अन्तर मन


तेरे मन के अन्दर
है ऐसा आखिर क्या |
जो कोइ नहीं देखता
तुझे नहीं जानता |
हल्की सी छाया दिखती
तेरा वजूद जताती |
तूने भी न पहचाना
पर मैं उसे देख पाया |
देखा तो तूने भी उसे
पर अनदेखा किया |
मुँह और फेर लिया
यह क्या उचित था |
यदि उलझन नहीं
है क्या यह बेचारगी |
तू कितना सोचती है
अंतस में खोजना |
तभी तो जान पाएगी
कुछ कहना सुनाना |
फिर सोचना गुनना
सक्षम तभी होगी |
अपने को समझेगी
ख़ुद को पा जाएगी |
चमकेगी चहकेगी
रूठी ना रहेगी |

आशा


26 मई, 2011

ज़रा सोच कर देखो


सारे सुख सारी सुविधाएं

पा कर भी कुछ नहीं किया

झूठी सच्ची बातों से

सारे घर को बहकाया |

हर सुविधा का दुरूपयोग किया

खुद को बहुत योग्य समझा

सभी की सलाहों को

समय की बरबादी समझा |

इधर उधर यारी दोस्ती में

बहुमूल्य समय बरबाद किया

क्या यह भी कभी सोचा

आखिर भविष्य क्या होगा |

यह भी जानना नहीं चाहा

बीता कल लौट कर नहीं आता

जब अपनी अंक सूची दिखाओगे

दस जगह ठुकराए जाओगे |

आगे बढ़ने के लिए

कोई रास्ता नहीं होगा

हर ओर अन्धकार होगा

तब तक बहुत देर हो जाएगी |

आज की मौज मस्ती

और यही भटकाव

जीवन भर सालता रहेगा

दुःख के सिवाय कुछ भी

प्राप्त न हो पाएगा |

अपने को नियंत्रित रखने के लिए

सफलता पाने के लिए

प्रलोभनों से बचने के लिए

कष्ट तो उठाने पड़ते हैं

पर जब मीठा फल मिलता है

आनंद कुछ और होता है |

आशा

24 मई, 2011

प्रकृति की गोद में


मैं चाहती हूँ

सोचती हूँ दूर कहीं जंगल में

घनघोर घटाओं से आच्छादित

व्योम तले बैठ नयनों में समेट

उस सौंदर्य को

अपने मन में छुपा लूं

और उसी में खो जाऊं |

यह भूल जाऊं कि मैं क्या हूँ

मेरा जन्म किस लिए हुआ

इस घरा पर आने का

उद्देश्य पूरा हुआ या अधूरा रहा |

बस अपने आस पास

प्रकृति का वरद हस्त पा

मन की चंचलता से

बेचैनी से कहीं दूर जा

एक नए आवरण से

खुद को ढका पाऊँ |

सताए ना भूख प्यास

ना ही रहूँ कभी उदास

चिंता चिता ना बन जाए

केवल हो चित्त शांत

खुलें अंतर चक्षु व मुंह से निकले

है यही जीवन का सत्व

बाकी है सब निरर्थक |

मधुर कलरव पक्षियों का

चारों ओर छाए हरियाली

हो कलकल करती बहती जल धारा

उसी में खो जाऊं |

हर ऋतु का अनुभव करू

आनंद लूं

एकाकी होने के दुख से

दूर रहूँ सक्षम बनूँ

दुनियादारी से दूर बहुत

सुरम्य वादियों में खो जाऊं

वहीँ अपना आशियाना बनाऊँ |

आशा

प्रेम ही जीवन है


चाहे जहां जाते हो

इधर उधर भटकते हो

जब स्थाईत्व नहीं होगा

सुकून कहाँ से पाओगे |

जिंदगी क्षण भंगुर है

उसका कोई ठिकाना नहीं

बिना प्रेम अधूरी है

यह कैसे समझ पाओगे |

मेरे पास आओ कुछ पल ठहरो

दो बोल प्यार के बोलो

मन में छिपी भावना को

पूर्ण रूप से स्वीकार करो |

मन का बोझ हल्का होगा

फिर भी मन यदि ना माने

और बेचैनी बढ़ जाए

चाहे जहां चले जाना |

पुरानी कटु बातों को

दोहराने से क्या लाभ

जब उन पर ध्यान नहीं दोगे

वे विस्मृत होती जाएँगी |

मीठी यादों में जब खो जाओगे

शान्ति का अनुभव करोगे

संसार बहुत सुंदर लगेगा

पराया भी अपना लगेगा |

प्रेम ही तो जीवन है

जब शांत चित्त से सोचोगे

स्थिर मन हो जाओगे

फिर इसे ना भूल पाओगे |

जिंदगी आनंद से भरपूर होगी

पूर्ण प्रेम की अनुभूति होगी

एक नई कहानी बनेगी |

आशा

22 मई, 2011

बदलता परिवेश


प्रातःकाल अखवार की सुर्खियाँ

प्रथम पृष्ठ पर कई समाचार

ऊपर से नीचे तक

समूचा हिला जाते हैं |

यह साल भी अनोखा निकला

मंहगाई अनियंत्रित हुई

सारी सीमां पार कर गयी

हर पखवाड़े के बाद और बढ़ती गयी |

यह तो पहली बार देखा

कैसे करें इसे अनदेखा

पेट्रोल महंगा होता गया

एक ही वर्ष में ९ बार कीमत बड़ी |

फिर भी खपत कम ना हुई

बढ़ती ही गयी

साथ ही वाहनों की

संख्या भी बढ़ी |

ना जाने कैसे लोग

अपने शौक पूरे करते हैं

काला धन बाहर आता है

या ऋण में डूबे रहते हैं |

अर्थ शास्त्र के नियम भी

अब पुराने लगते हैं

है कितना निर्भर व्यक्ति

भौतिक सुविधाओं पर |

उनके बिना जीना

किसी को अच्छा नहीं लगता

गरीब हो या अमीर

उनका गुलाम होता जाता |

अब सभी सुविधाओं का

आवश्यक सूची में जुडना

लगभग निश्चित सा हो गया है

आवश्यकता ,सुविधा और विलासिता में अंतर

नगण्य सा हो गया है |


आशा


20 मई, 2011

व्यथा दो राहों की


दो राहें अनवरत
सतत आगे बढ़तीं
मिलतीं चौराहे पर
अपनी व्यथा बांटने के लिए |
लगती बहुत आहत
तपते सूर्य की गर्मीं से
बेहाल हैं ,झुलस रही हैं
क्यूँ कि आसपास के
वृक्ष जो कट गए हैं |
छाँव का नामोंनिशान नहीं है
ऊपर से आना जाना
भारी वाहनों का
काँप जाती हैं वे
उनकी बेरहम गति से |
अंतस में हुए गर्त
कारण बनते
दुर्घटनाओं के
लेते परीक्षा उनके धैर्य की |
पर वे हैं कहाँ दोषी
अपराधी तो वे हैं
जिनने उन्हें बनाया है |
वे तो जूझ रही है
अनेकों समस्याओं से
परीक्षा दे रही है
अपने धैर्य की |
कभी तो कोई तरस खाएगा
उनके किनारे पेड़ लगाएगा
हरियाली जब होगी
तपते सूरज से
कुछ तो राहत मिलेगी|
आशा


19 मई, 2011

मेरी सोच कुछ हट कर





तू है सागर की उर्मी सी
संचित ऊर्जा की जननी सी
कैसे शांत रह पाएगी
तट बंध यदि छोड़ा
अपनी राह भटक जाएगी |
जैसे ही सीमां लांघेगी
कई सुनामी आएंगी
आसपास के जन जीवन को
तहस नहस कर जाएँगी |
क्या तेरी संचित ऊर्जा का
कोई उपयोग नहीं होगा
केवल विध्वंसक ही होगी
विनाश का कारण बनेगी |
पर मेरा सोच है कुछ हट कर
तेरी गति तेरा चलन
मन को सुख देता हर दम
तेरे साथ चलने में
वह भी तुझ सा हो जाता
कोई भी कठिन समस्या हो
सरलता से सुलझा पाता |

आशा